अडानी गाथा: छलांग लगाती शेयर कीमतें और चढ़ते बाजार का सच

शेयरों की कीमत को कृत्रिम तरीके से चढ़ाना, उस आधार पर ज्यादा बड़ा लोन ले लेना और फिर उस पैसे से वृद्धि की रफ्तार को बढ़ाना ऐसा दुश्चक्र है जिसकी बुनियाद किसी भी आपात स्थिति में हिल जाती है

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मोहित सत्यानंद

मोहित सत्यानंद

अगर आपकी कंपनी के शेयर की कीमत आसमान छूने लगे तो फोर्ब्स पत्रिका आपकी तस्वीर अपने कवर पर छाप देगी। शक नहीं कि यह एक बड़े ही गर्व का भाव होगा। लेकिन शेयर के ऊंचे भाव की हकीकत कहीं और होती है।

शेयर को एक करेंसी मान लीजिए। उस स्थिति में ऊंचे भाव वाला शेयर एक मजबूत करेंसी होगा। ठीक वैसे ही जैसे श्रीलंकाई रुपये की तुलना में अमेरिकी डॉलर इसे रखने वाले को अपेक्षाकृत ज्यादा क्रय शक्ति देता है। बेशक वह व्यक्ति अपने शेयर न बेचे लेकिन उसकी अधिक क्रय शक्ति तो बनी ही रहती है।

इसे दूसरे तरीके से समझिए: अगर किसी को कारोबार बढ़ाने के लिए लोन चाहिए तो आम तौर पर बैंक गिरवी के तौर पर कोई ऐसी संपत्ति मांगेगा जिससे अगर वह व्यक्ति समय पर ब्याज या लोन का भुगतान नहीं कर सका तो उसे बेचकर बैंक अपना पैसा निकाल ले। अगर कोई व्यक्ति एक सफल उद्योगपति है तो उसकी सबसे बड़ी संपत्ति संभवत: उसके शेयर होंगे और फिर बैंक जो राशि लोन के रूप में देगा, उसके अनुपात में शेयर गिरवी रख लेगा।

फर्ज कीजिए, अगर किसी को 100 करोड़ का लोन चाहिए तो संभव है कि बैंक गिरवी के तौर पर 250 करोड़ के शेयर मांगे। अगर किसी व्यक्ति के किसी कंपनी में 2,500 करोड़ के शेयर हैं तो वह 1,000 करोड़ का लोन ले सकता है। अगर शेयर की कीमत 25,000 करोड़ है तो वह व्यक्ति 10,000 करोड़ का लोन ले सकता है। अगर वह व्यक्ति एक महत्वाकांक्षी व्यवसायी है जो तेजी से बढ़ना चाहता है तो उसे बैंक से उतने ही बड़े लोन की जरूरत होगी और अगर उस व्यक्ति के शेयर के भाव काफी ऊंचे हों तो वह उतना ही ज्यादा लोन ले सकेगा। हममें से ज्यादातर लोगों की ही तरह वह उद्योगपति भी रुपये की कमजोरी के मुकाबले डॉलर की मजबूती चाहेगा।

आम तौर पर एक कंपनी के शेयर का भाव उसके व्यावसायिक प्रदर्शन पर निर्भर करता है लेकिन ऐसा कुछ ही हद तक होता है। सामान्य तौर पर लाभ के प्रत्येक करोड़ के लिए एक कंपनी का मूल्य केवल 10 करोड़ रुपये या ज्यादा से ज्यादा 300 करोड़ रुपये तक आंका जा सकता है। किसी उद्योगपति के लिए मोटी पूंजी की व्यवस्था करना आसान हो जाता है जब उसके व्यवसाय का मूल्य उसके मुनाफे की तुलना में सैकड़ों गुना आंका जाए। आम तौर पर यह 10 गुना ही होता है।


इस तरह के बढ़ा-चढ़ाकर किए गए मूल्यांकन को अक्सर असाधारण दूरदर्शिता, दोषरहित निष्पादन, अद्वितीय सूझबूझ और आसमान छूती वृद्धि के आधार पर उचित ठहराया जाता है। फिर नए संयंत्र, नए-नए उत्पाद, नए व्यवसाय, नए बाजार…सिलसिला चल निकलता है। तेज विकास शेयर की ऊंची कीमतों को सही ठहराता है और शेयर की ऊंची कीमतें उस विकास को बढ़ावा देने के लिए लोन की व्यवस्था को आसान बनाती हैं।

शेयरों की कीमत शेयर बाजारों से समर्थित करने की जरूरत है जहां खरीदार और विक्रेता नियमित रूप से लेनदेन कर शेयर की कीमत 'तय' करें। किसी शेयर का उचित मूल्य क्या हो, इस पर किन्हीं भी दो लोगों की राय अलग हो सकती है लेकिन जब लाखों लोग इसमें सौदा कर रहे हों तो उससे शेयर की कीमत एक लोकतांत्रिक तरीके से तय होती है।

सेबी (भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड) जैसे नियामक निकाय यह सुनिश्चित करने के लिए नियम बनाते हैं कि बाजार लोकतांत्रिक और पारदर्शी बने रहें। वे किसी शेयर की कीमत में हेरफेर की गुंजाइश को कम करना चाहते हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी शेयर का स्टॉक एक्सचेंजों में कारोबार किया जाना है, तो उसके मालिकों को उसके 75% से अधिक शेयरों को नियंत्रित नहीं करना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि शेष 25% उचित मूल्य की ‘खोज’ के लिए जनता को पर्याप्त आवाज और वजन देता है।

शेयरों की कीमतों में हेरफेर का इरादा रखने वाला एक कारोबारी मालिक जानता है कि उन शेयरों की कीमत बढ़ाना कठिन है जो व्यापक रूप से जनता के स्वामित्व में हैं। वह इसी को ध्यान में रखते हुए शेयरों का प्रबंधन करता है- 75% उसके पास, 5% जनता के साथ, 10% मित्रवत वित्तीय संस्थानों के साथ। बाकी 10% उन 'शेल कंपनियां' के पास जिनका अकेला काम अपनी कंपनियों के शेयर को रखना है; सबसे अहम बात यह है कि इन कंपनियों का नियंत्रण मूल कंपनी के पास होने की बात साबित न हो सके।

अगर नियामक एजेंसियां इन छद्म कंपनियों के वास्तविक नियंत्रण का पता लगाने का मुश्किल काम नहीं कर पाती हैं तो शेयर बाजार अपेक्षित तरीके से काम नहीं कर पाता। ऐसे में कंपनियों की कीमत बहुत अधिक हो जाती है और महत्वाकांक्षी मालिक को विकास की गति और तेज करने के लिए जरूरी पूंजी मिल जाती है।

सार्वजनिक बाजारों में शेयर का केवल 5% हिस्सा होता है और ऐसे में शेयरों की कीमतों को कृत्रिम तरीके से फुलाया जाता है। जमीनी स्तर पर संपत्ति में जो वृद्धि दिखती है, वह वास्तविक होती है और मीडिया में चलने वाला नैरेटिव इसका जश्न मनाता रहता है।


अगर सब कुछ ठीक रहा तो कहानी ऐसे ही चलती रहती है। व्यवसायी खेल का दायरा बढ़ाता रहता है, कर्ज के बढ़ते पहाड़ के साथ अपने साम्राज्य का विस्तार करता जाता है। कर्ज नियमित रूप से चुकाया भी जाता है क्योंकि और ज्यादा पैसे लेने के लिए इस तरह का ट्रैक रिकॉर्ड जरूरी है। हमें भरोसा दिलाया जाता है कि अभी के लिए तो नए लोन से पुराने लोन को चुकाया जा रहा है लेकिन अंतत: इसे मुनाफे से चुकाया जाएगा। मालिक भी खुश और 5% सार्वजनिक शेयरधारक भी खुश।

जब तक वृद्धि तेज गति से होती रहती है, यह सिलसिला चलता रहता है और यह उड़ान लंबी भी हो सकती है। लेकिन अगर कोई गड़बड़ी हुई तो यह मशीन बिल्कुल बैठ भी सकती है क्योंकि कंपनी पर भारी लोन होता है जिसे चुकाते रहना जरूरी होता है। मोटे लोन से संचालित विकास में लाभ मार्जिन में कमी, ब्याज दरों में वृद्धि, युद्ध या प्राकृतिक आपदा जैसे कारक अत्यधिक अहम हो जाते हैं। तब बैंक लोन की उसी राशि के लिए और शेयर जमा करने को कहते हैं और फिर बहुत बार ऐसी भी स्थिति आती है जब यह ऐलान करना पड़ता है कि उसके शेयर अब कानूनी विनिमय उपकरण नहीं रहे। 

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