विकसित देशों का कचरा विकासशील देशों के लिए बना आफत, हर साल करोड़ से ज्यादा लोगों की जा रही है जान

दुनिया में ज्यादातर प्लास्टिक विकासशील देशों से ही पर्यावरण में पंहुच रहे हैं। विकसित देश अपना प्लास्टिक कचरा एकत्र कर वैध या फिर अवैध तरीके से विकासशील देशों तक पंहुचा देते हैं, जहां उनका निपटान किया जाता है या फिर उनका पुनःचक्रण किया जाता है।

फोटोः सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

ऑस्ट्रेलिया से 2100 किलोमीटर उत्तर पश्चिम में स्थित कोकोस आइलैंड पर लगभग 300 लोग रहते हैं। दुनिया से लगभग कटा हुआ यह द्वीप विश्व के उन चुनिंदा क्षेत्रों में से है जहां अब तक समझा जाता था कि पर्यावरण विनाश या फिर प्रदूषण का असर नहीं पड़ा है। लेकिन हाल में ही वैज्ञानिकों ने इस द्वीप पर लगभग 238 टन कचरा खोज निकाला है जो हिन्द महासागर की लहरों के साथ इसके किनारे पर आकर जमा हो गया है। इस कचरे में लगभग 42 करोड़ प्लास्टिक के टुकड़े भी हैं।

पिछले सप्ताह अमेरिका के विक्टर वेस्कोवो ने प्रशांत महासागर की सबसे गहरी जगह, मारिआना ट्रेंच, में 10927 मीटर की गहराई तक पहुंच कर एक नया विश्व रिकॉर्ड स्थापित किया। माउंट एवेरेस्ट की ऊंचाई कुल 8848 मीटर है, यानी विक्टर वेस्कोवो जिस गहराई तक गए वह माउंट एवेरेस्ट की कुल ऊंचाई से भी अधिक है। उनसे पहले महासागर में इस गहराई तक पहुंचने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पाया। यहां वेस्कोवो का जिक्र इसलिए क्योंकि इस रिकॉर्ड-तोड़ गहराई में भी उन्हें प्लास्टिक से ढका कचरा मिला।

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार हरेक सेकंड लगभग 2 बस के बराबर और हर साल लगभग 80 टन प्लास्टिक महासागरों में जा रहा है और इसे रोकने के लिए कोई ठोस उपाय नहीं किये जा रहे हैं। अधिकतर प्लास्टिक विकासशील देशों से ही पर्यावरण में पंहुचते हैं। विकसित देश अपना प्लास्टिक कचरा एकत्रित कर वैध या फिर अवैध तरीके से विकासशील देशों तक पंहुचा देते हैं जहां इनका निपटान किया जाता है या फिर इनका पुनःचक्रण किया जाता है।

निपटान के लिए इस कचरे को जमीन पर छोड़ दिया जाता है, जहां हवा के बहाव के साथ ये दूर तक फैलते हैं और फिर सागरों और महासागरों तक पहुंच जाते हैं। पुनःचक्रण के दौरान भारी मात्रा में जहरीली गैसें वायुमंडल में मिलती हैं।


टीयरफंड नामक एक गैर-सरकारी संस्था के अनुसार विकासशील देशों में प्रतिवर्ष 1 करोड़ से अधिक लोग केवल कचरे के बेतरतीब तरीके से बिखरे होने के कारण मर जाते हैं। कचरे में प्लास्टिक मौजूद होने के कारण हालात और बिगड़ गए हैं। प्लास्टिक में मौजूद हानिकारक अवयव धीरे-धीरे रिस कर भू-जल तक पहुंचने लगे हैं। प्लास्टिक और कचरा हवा-पानी के साथ नदियों और झीलों को भी प्रभावित कर रहा है।

मछलियों और दूसरे खाने योग्य जलीय जन्तुओं में प्लास्टिक और दूसरे प्रदूषणकारी पदार्थों की मात्रा बढ़ती जा रही है। कचरे से पानी के प्रदूषित होने के कारण अतिसार का कहर बढ़ता जा रहा है और यह दुनिया में असामयिक मृत्यु का सबसे बड़ा कारण भी है। दुनिया में लगभग 2 अरब आबादी ऐसी है, जिनके कचरे का प्रबंधन कोई नहीं करता और यह आबादी लगभग 10 करोड़ टन कचरा प्रतिवर्ष उत्पन्न करती है। यह पूरा कचरा आबादी के बीचोंबीच पड़ा रहता है और इसे सड़क किनारे, खाली जमीन पर, नदियों के किनारे और नालों में देखा जा सकता है।

कचरा बीनना दुनिया में सबसे बड़ा असंगठित कारोबार भी है। हमारे देश में भी लाखों लोग कचरे से ही अपना गुजर-बसर करते हैं। इसके अपने खतरे हैं। सड़कों पर कचरा बीनने के दौरान बड़ी संख्या में लोग दुर्घटनाओं का शिकार भी होते हैं। कचरे के ढेर के गिरने से कई बार कचरा बीनने वाले दब जाते हैं और मर जाते हैं। कचरे से निकलने वाले हानिकारक पदार्थ भी इन लोगों को नुकसान पहुंचाते हैं। कचरे के ढेर पर आग लगना सामान्य घटना है, इसमें अनेक बार कचरा बीनने वाले झुलस जाते हैं।

प्लास्टिक के नुकसान यहीं तक सीमित नहीं हैं। अब नए अनुसंधान इसे तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन से भी जोड़ने लगे हैं। सेंटर फॉर इंटरनेशनल एनवायर्मेंटल लॉ नामक संस्था द्वारा कराए गए एक अध्ययन के अनुसार केवल एक बार इस्तेमाल किया जा सकने वाला प्लास्टिक जलवायु परिवर्तन में बड़ी भूमिका निभा रहा है।


अनुमान है कि 2050 तक दुनिया में कुल कार्बन उत्सर्जन में 13 प्रतिशत से अधिक का योगदान प्लास्टिक के उत्पादन, उपयोग और अपशिष्ट का होगा, जो लगभग 615 टन कोयले से चलने वाले ताप-बिजली घरों जितना होगा। इस संस्था के अनुसार प्लास्टिक के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों की तो खूब चर्चा की जाती है पर इसके तापमान वृद्धि में योगदान को नजरअंदाज कर दिया जाता है।

इतना तो स्पष्ट है कि कचरे का वैज्ञानिक और पर्यावरण अनुकूल प्रबंधन समय की आवश्यकता है, लेकिन इस ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। हालत यह है कि निर्जन द्वीपों पर भी कचरे का अम्बार लगा है।

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