राम पुनियानी का लेखः सत्ताधारी दल को समझना होगा संसद धार्मिक नारेबाजी का अखाड़ा नहीं, समस्याओं पर चर्चा का मंच है

धार्मिक नारों को लेकर इस तरह का हंगामा संसद में पहली बार देखा गया। संसद देश की समस्याओं पर चर्चा करने का मंच है। अब देखने वाली बात है कि क्या आगे भी सत्ताधारी दल इसी तरह की नारेबाजी कर विपक्षी और मुस्लिम सांसदों की आवाज दबाने की कोशिश करता है या नहीं।

फोटोः सोशल मीडिया
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राम पुनियानी

हाल में, दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र ने अपने विधि-निर्माताओं, अर्थात सांसदों, को चुनने की वृहद कवायद संपन्न किया। सत्ताधारी दल बीजेपी को मिले जबरदस्त जनादेश के परिप्रेक्ष्य में, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दो महत्वपूर्ण बातें कहीं। पहली यह कि हमें पक्ष या विपक्ष के साथ न जाकर, निष्पक्ष रहना चाहिए और दूसरी यह कि प्रजातंत्र के सुचारू संचालन में विपक्ष की महती भूमिका होती है और उसकी राय को गंभीरता से लिया जाएगा। लेकिन सवाल यह है कि क्या सत्ताधारी दल, अपने नेता की कथनी को करनी में बदलेगा?

क्योंकि संसद में नवनिर्वाचित सांसदों के शपथ ग्रहण के दौरान जो कुछ हुआ उससे ऐसा नहीं लगता कि बीजेपी सदस्य अपने नेता को गंभीरता से ले रहे हैं। अपनी विजय से अतिउत्साहित सत्ताधारी दल के सदस्यों ने शपथ ग्रहण के दौरान विपक्षी नेताओं के साथ जमकर टोका-टाकी की और उनका मखौल बनाया। यह बहुसंख्यकवाद का खुला प्रदर्शन था।

इस दौरान बीजेपी सदस्यों ने ऐसे नारे लगाए, जिनकी विपक्ष के कई सदस्य अलग ढंग से व्याख्या करते हैं। उनके निशाने पर मुख्य तौर पर मुस्लिम सांसद और तृणमूल कांग्रेस के सदस्य थे। जब मुस्लिम सदस्य शपथ ले रहे थे तो उस समय सदन ‘जय श्रीराम‘, ‘वंदे मातरम्‘, ‘मंदिर वहीं बनाएंगे‘ और ‘भारत माता की जय‘ जैसे नारों से गूंज रहा था। जवाब में एआईएमआईएम के असदुद्दीन औवैसी ने ‘जय भीम-जय मीम‘ ‘नारा ए तकबीर अल्ला हू अकबर‘ और ‘जयहिंद‘ के नारे लगाए।

वहीं एक अन्य मुस्लिम सांसद शफीकुर रहमान बर्क ने ‘अल्ला हू अकबर‘ और ‘हिन्दुस्तान की जय‘ का नारा बुलंद किया। उन्होंने यह भी कहा कि वंदे मातरम् का नारा लगाना इस्लाम के खिलाफ है, क्योंकि इस्लाम अपने अनुयायियों को अल्लाह के सिवाए किसी की इबादत करने की इजाजत नहीं देता। उन्होंने यह भी कहा कि वंदे मातरम् में मातृभूमि को एक हिन्दू देवी के रूप में दिखाया गया है। एक अन्य मुस्लिम सांसद ने भी ‘अल्ला हू अकबर‘ और ‘जय संविधान‘ का नारा बुलंद किया। हाालंकि देश में ऐसे मुसलमानों की कमी नहीं जिन्हें ‘वंदे मातरम् ‘या ‘भारत माता की जय’ कहने में कोई परेशानी नहीं है। हमारा संविधान भी वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत का दर्जा देता है, लेकिन राष्ट्रगान का नहीं। हमारा राष्ट्रगान ‘जन गण मन‘ है।


वहीं, फिल्म अभिनेत्री हेमा मालिनी ने शपथ लेने के बाद ‘राधे-राधे‘ कहा। तृणमूल कांग्रेस के सांसदों ने ‘जय श्रीराम‘ का जवाब ‘जय मां काली‘, ‘जय भारत‘ और ‘जय बांग्ला‘ से दिया। जबकि चुनाव में बुरी तरह से परास्त वामपंथी दलों के सदस्यों ने धर्मनिरपेक्षता की रक्षा की बात कही।

संसद में लगे नारों से संबंधित सांसदों की राजनीति की झलक मिलती है। सत्ताधारी दल के सदस्यों द्वारा नारेबाजी का उद्देश्य विपक्षी सदस्यों को धमकाना था। सत्ताधारी दल के वरिष्ठ नेताओें ने अपने सदस्यों को विपक्षी सांसदों की रैगिंग लेने से नहीं रोका। बीजेपी सदस्यों ने तीन नारे लगाए, लेकिन उनका सबसे प्रमुख नारा था- ‘जय श्रीराम‘। इस नारे को संसद में गूंजते देखकर ऐसा लग रहा था मानो संसद, प्रजातंत्र का मंदिर न होकर कोई हिन्दू मंदिर हो।

जबकि प्रधानमंत्री मोदी ने प्रजातंत्र में विपक्ष की भूमिका के बारे में जो कुछ कहा था उसके तारतम्य में विपक्षी सांसदों के साथ गरिमापूर्ण व्यवहार किया जाना था। परन्तु बीजेपी सांसदों ने जिस तरह ‘जय श्रीराम‘ के नारे लगाए उससे ऐसा लगा मानो वे भगवान राम को अपनी विजय के लिए धन्यवाद देना चाह रहे हों।

देश में राम मंदिर आंदोलन के बाद से ‘जय श्रीराम‘ का नारा धार्मिक-आध्यात्मिक नारा नहीं रह गया है। वह एक राजनैतिक नारा बन गया है। भारत में भी सभी लोग भगवान राम को उस रूप में नहीं देखते जिस रूप में बीजेपी के सदस्य उन्हें देखते हैं। संत कबीर के लिए तो भगवान राम एक ऐसे व्यक्तित्व थे जो जातिगत संकीर्णता से ऊपर थे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की दृष्टि में राम एक समावेशी भगवान थे। गांधी, राम और अल्लाह को एक ही दर्जा देते थे। बाबासाहेब अंबेडकर और पेरियार रामासामी नाईकर, राम को एक अलग ही दृष्टि से देखते थे।


अंबेडकर की पुस्तक ‘रिडिल्स ऑफ राम एंड कृष्ण‘ में दलित शंबूक और पिछड़ी जाति से आने वाले बाली की राम द्वारा हत्या की आलोचना की गई है। अपनी गर्भवती पत्नि को वनवास पर भेजने के लिए भी अंबेडकर राम को कटघरे में खड़ा करते हैं। पेरियार की ‘सच्ची रामायण‘ में भी राम को श्रद्धा का पात्र नहीं माना गया है।

जहां भगवान राम उत्तर भारत में लोकप्रिय हैं, वहीं बंगाल में सबसे महत्वपूर्ण आराध्य काली मां हैं। बंगाल में बीजेपी का रथ ‘जय श्रीराम‘ के नारे के सहारे आगे बढ़ रहा है तो टीएमसी अपनी जमीन बचाने के लिए ‘जय मां काली‘ का नारा बुलंद कर रही है। बंगालियों और गैर-बंगालियों के बीच खाई खोदकर वह श्रेत्रीय भावनाओें को उभारने की कोशिश भी कर रही है। यह दिलचस्प है कि बंगाल में दो हिन्दू भगवान, अलग-अलग पार्टियों के प्रतीक बन गए हैं। मां काली तृणमूल कांग्रेस को बचाने में कितनी सफल हो पाती हैं, यह तो समय ही बताएगा।

लेकिन यहां यह याद रखना जरूरी है कि हमारे स्वाधीनता संग्राम के दौरान ‘इंकलाब जिंदाबाद‘ (भगत सिंह) और ‘जय हिंद‘ (सुभाष चन्द बोस) मुख्य नारे थे। इस तथ्य पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि वर्तमान सत्ताधारी दल ने हमेशा ‘जय हिंद‘ के नारे से सख्त परहेज किया है।

धार्मिक नारों को लेकर इस तरह का हंगामा संसद में पहली बार देखा गया। धार्मिक नारों के महत्व से कोई इंकार नहीं कर सकता, लेकिन संसद उन्हें लगाने के लिए उपयुक्त स्थान नहीं है। संसद देश की समस्याओं पर चर्चा करने का मंच है। अब यह देखने वाली बात होगी कि क्या आगे भी सत्ताधारी दल के सदस्य इसी तरह की नारेबाजी कर विपक्षी और मुस्लिम सांसदों की आवाज को दबाने की कोशिश करते हैं या नहीं। अगर यह जारी रहा तो यह प्रजातंत्र के लिए अशुभ होगा। संसद को कृषि संकट और बेरोजगारी पर चर्चा करनी चाहिए। जिस देश में ऑक्सीजन की सप्लाई बाधित होने या दिमागी बुखार से सैकड़ों बच्चों की मौत हो जाती हो, उस देश की संसद में धार्मिक नारे लगाने की प्रतिस्पर्धा घोर शर्मनाक है।

(लेख का अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

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