आकार पटेल का लेख: कश्मीर जैसे इलाकों में हिंसा का सबसे अच्छा जवाब स्वतंत्र चुनाव से लोकतंत्र बहाली

स्वतंत्र चुनाव और स्वशासन की आंशिक वापसी के साथ-साथ यह दावा भी किया जा रहा है कश्मीर अब पहले से ज़्यादा सुरक्षित है। यह एक उलझा हुआ मुद्दा है और इसकी असलियत समझने के लिए हमें आंकड़ों में झांकना होगा।

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आकार पटेल

जम्मू-कश्मीर में 10 साल बाद हुए चुनाव के बाद एक नई सरकार आई है, जिससे अब केंद्र सरकार द्वारा मनोनीत लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा को मिले हुए कुछ अधिकार नई सरकार के पास आ जाएंगे। यह एक अच्छी बात है। हालांकि इस बात पर काफी चर्चा हुई है कि दशकों बाद राज्य में सबसे निष्पक्ष चुनाव हुए हैं। यह एक सकारात्मक पहलू है, और उम्मीद की जानी चाहिए कि वक्त के साथ लोकतंत्र विकसित होते हैं न कि उनका चुनावी रूप से पतन होता है।

स्वतंत्र चुनाव और स्वशासन की आंशिक वापसी के साथ-साथ यह दावा भी किया जा रहा है कश्मीर अब पहले से ज़्यादा सुरक्षित है। यह एक उलझा हुआ मुद्दा है और इसकी असलियत समझने के लिए हमें आंकड़ों में झांकना होगा।

कश्मीर में उग्रवाद की शुरुआत 1980 के दशक के आखिरी बरसों हुई थी। साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल क्षेत्रवार में हिंसा के आंकड़े जमा करता है और उन्हें सुरक्षित रखता है। 1989 में कश्मीर में कुल 92 लोग मारे गए थे। इसके अगले साल हिंसा भड़क उठी और 1,177 लोगों की जान गई, जिनमें से 862 नागरिक, सुरक्षा बलों के 132 जवान और 183 आतंकवादी थे।

इस संख्या में 1991 (1393) और 1992 (1909) में इजाफा हुआ। 1993 में राज्य में 2.567 लोगों की मौत हुई। इनमें से 1023 नागरिक थे और सुरक्षा बलों के 216 जवान शामिल थे। हिंसा में जान गंवाने वाले नागरिकों और सुरक्षा बलों की संख्या लगभग पहले जैसी ही थी, लेकिन मारे गए आतंकवादियों की संख्या बढ़कर 1,328 तक पहुंच गई थी। अगले कुछ सालों तक ऐसी ही स्थिति रही। हालंकि शहीद होने वाले सुरक्षा जवानों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी हुई जो कि वर्ष 2000 तक आते-आते 441 तक पहुंची। उस साल कश्मीर में 3,000 लोगों की मौत हुई थी।

हिंसा का यह ऐसा स्तर था जिसने सभी को चौंका दिया था क्योंकि जम्मू के बिना कश्मीर की आबादी केवल एक भारतीय महानगर (लगभग 50 लाख यानी बेंगलुरु से भी कम) के बराबर है। 2001 में कश्मीर में मौतों की संख्या में जबरदस्त उछाल दर्ज किया गया। उस दौरान कुल 4,011 लोगों की मौत हुई। इनमें से 628 सुरक्षा बलों को जवान, 1,024 नागरिक और 2,345 आतंकवादी थे। अगले साल, 2002 में, यह संख्या पहली बार 1,000 घटकर 3,098 पर आ गई, और उसके अगले साल, यानी 2003 में यह संख्या और घटकर 2,507 हो गई।


आखिर इन आंकड़ों से हमें क्या पता चलता है कि लंबे समय तक मौतों में वृद्धि होती रही और फिर इसमें गिरावट दर्ज की गई?

दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुई - अमेरिका में 11 सितंबर का हमला, जिसके बाद पाकिस्तान ने कहा कि वह 'आतंकवाद के खिलाफ युद्ध' में अमेरिका का साझेदार बन गया है; और तीन महीने बाद दिसंबर 2001 में भारतीय संसद पर हमला, जिसमें नौ भारतीयों और पांच हमलावरों की मौत हुई।

संसद पर हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान पर युद्ध की तैयारी कर ली थी और पाकिस्तान पर आतंकवादियों को पनाह देने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने का दबाव बनाया। 13 जनवरी 2002 को, पाकिस्तान ने कहा कि उसने लश्कर-ए-तैयबा (LeT) और जैश-ए-मुहम्मद (JeM) पर प्रतिबंध लगा दिया है। ये दोनों ही आतंकी गुट पाकिस्तान में दो सबसे सक्रिय और घातक समूह हैं। प्रतिबंध के बाद प्रधानमंत्री वाजपेयी ने पाक सीमा से अपनी सेनाओं को पीछे बुला लिया था।

भारत ने लंबे समय से कहता आ रहा है कि लश्करे-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद पर प्रतिबंध एक धोखा था और पाकिस्तान आतंकवाद पर लगाम लगाने के लिए गंभीर नहीं है। यह निश्चित रूप से सच है कि पाकिस्तानी सेना और उससे जुड़े अन्य अंगों ने इन समूहों को पाला-पोसा है और समय के साथ उनका इस्तेमाल किया है। यह कहना मुश्किल है कि पाकिस्तान का सैन्य प्रतिष्ठान जिस पर्दादारी के साथ काम करता है, उसे देखते हुए क्या इसमें कोई बदलाव आया है।

लेकिन इसके लिए हमारे सामने कुछ आंकड़े हैं।

कश्मीर में 2001 में 4,000 से ज़्यादा मौतें हुई थीं, जो 2002 में 3,000 और 2003 में 2,000 हो गई। 2004 में यह संख्या फिर से गिरकर 1,788 और अगले साल 1,125 हो गई। 2007 में यह संख्या 1990 के बाद पहली बार 1,000 से कम (744) हो गई। 2008 में यह और गिरकर 548, फिर 2009 में 373 और फिर 2011 में 181 हो गई। 2014 में मनमोहन सिंह के पद छोड़ने तक यह किसी भी साल 200 से ऊपर नहीं गई।

ऐसा लगता है कि इसमें काफी हद तक बदलाव हुआ है। चार साल में मृत्यु दर 200 से ऊपर, दो साल में 300 से ऊपर और एक साल में 400 से ऊपर पहुंच गई है। पिछले साल यानी 2023 में, 2015 के बाद पहली बार मौतों की संख्या फिर से 200 से नीचे आ गई। लेकिन, सिर्फ इस एक आंकड़ें को ही आधार मान लेना समझदारी नहीं होगी।

ध्यान दीजिए कि इसी दौरान पाकिस्तान में क्या हुआ। हालांकि पाकिस्तान बेहद चरम स्तर की हिंसा हुई , खासौतर से 1980 के दशक में कराची में और फिर नब्बे के दशक में। यह हिंसा सामुदायिक नहीं थी, बल्कि राजनीतिक थी (मुहाजिरों (भारत से आए शरणार्थियों और पख्तूनों के बीच)। सन् 2000, 2001 और 2002 में जहां कश्मीर जल रहा था, वहीं पाकिस्तान में आतंकवाद से होने वाली मौतों की संख्या 166, 295 और 257 थी।


2003 में जब तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ ने जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा पर पांदी लगाई तो उनके ऊपर दो बार जानलेवा हमला हुआ। पहले हमले में एक पुल पर उस समय बम विस्फोट हुआ जब मुशर्रफ का काफिला वहां से गुजर रहा था और दूसरी बार क्रिसमस  दिन 2003 में आत्मघाती हमलावर ने अपनी कार को उनके काफिले में टकरा दिया था। इस हमले में 16 लोगों की मौत हुई, लेकिन मुशर्रफ बच गए थे।

इसके अगले साल वहां मौतों में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुई और संख्या 925 तक पहुंची, इनमें सुरक्षा बलों के 208 जवान और 302 आतंकी शामिल थे। 2006 में संख्या 1466 पहुंची। 2007 में मुशर्रफ पर एक और जानवेवा हमला हुआ जब उनके विमान पर टेकऑफ के समय हमला किया गया। उस साल कुल 3.594 लोगों की मौत हुई। यह संख्या 2008 में दोगुनी होकर 6.683 तक पहुंच गई। इसी तरह 2009 पाकिस्तान का सबसे हिंसक साल साबित हुआ जिसमें 11.317 लोगों की जान गई। इनमें सुरक्षा बलों को 1,012 जवान और 7,884 आतंकवादी शामिल थे। भारत में इसी दौरान 373 लोगों की मौत कश्मीर में हुई।

पाकिस्तानी सेना ने 2010 में हिंसा को काबू करना शुरु किया और मौतों की संख्या गिरकर 7,342 पहुंची और फिर अगले साल 6,050 तक गई। 2013 और 2014 में 5,000 मौतें हुईं जोकि 2015 में गिरकर 3,685 तक पहुंची। इनमें 2016 और 2017 में भी गिरावट दर्ज की गई।  2019 में मौतों की संख्या 400 से नीचे रही। लेकिन इसके बाद से वहां इस संख्या में लगातार इजाफा हुआ और हर साल लगभग 1500 लोगों की मौत हुई।

इसके बरअक्स कश्मीर में हिंसा में गिरावट आना ए अच्छा रुझान है और भारत सरकार को इसका लाभ उठाना चाहिए। जाहिर है लोकतंत्र के लिए सबसे अच्छी प्रतिक्रिया स्वतंत्र चुनाव ही हैं।

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