वह लाल डब्बा, जो ले जाए आपको यादों के झरोखों में...

डाक घरों और चिट्ठियां यहां से वहां पहुंचाने वाले उन लाल डब्बों की याद के बहाने समय के अंतराल की यह कहानी एक नॉस्टैल्जिया से गुजरने जैसा है, जिसका अहसास नई पीढ़ी को शायद ही कभी हो।

नई पीढ़ी शायद ही इस लाल डिब्बे को इस्तेमाल करती हो (फोटो - सोशल मीडिया)
नई पीढ़ी शायद ही इस लाल डिब्बे को इस्तेमाल करती हो (फोटो - सोशल मीडिया)
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ललिता अय्यर

मुझे उस दौर में भी चिट्ठी लिखना पसंद है, जब फेसबुक या इंस्टाग्राम पर होने वाली बातचीत को ‘लाइक’ करने में ही लोग ज्यादा रुचि लेते हैं। मुझे कोरियर की जगह इंडिया पोस्ट पसंद है। कारण? बस इतना पता है कि एक डाकघर को लेकर मैं कैसा महसूस करती हूं- यह तेजी से बदलते समय के बावजूद तमाम स्थानों पर समय के स्थिर रहने के अहसास जैसा है। 

हम बड़े हो रहे थे, हमारे आसपास अकसर लाल रंग के लेटर बॉक्स दिखते। घर से स्कूल तक पैदल रास्ते में कम-से-कम तीन तो थे ही। कुछ इलाकों में नीले (महानगरों के लिए) और हरे (स्थानीय पोस्ट को इंगित करने के लिए) रंग वाले अलग-अलग बॉक्स भी होते। मैं, एक बच्ची, अक्सर इन बक्सों के सामने ठहर जाती, बहुत देर तक सोचती रहती कि मेरी चिट्ठियां, नए साल या दिवाली के कार्ड किस बक्से में जाने चाहिए और यह भी कि अगर कोई चिट्ठी या कार्ड गलत बक्से में चला गया तो क्या होगा? यह अहसास ही खासा रोमांचक होता कि कोई ऐसी जगह भी है जहां गुम हुई चिट्ठियों की यात्रा समाप्त होती है। और मैं ऐसी गुमशुदा चिट्ठियों के संग्रहालय की कल्पना और उन अज्ञात संभावनाओं में खो जाती।

उत्तर की प्रत्याशा का उत्साह अद्भुत था लेकिन याद करना अब भी अच्छा लगता है कि मैंने अपनी चिट्ठी पोस्ट बॉक्स में डालने के बाद उसकी आगे की यात्रा की कैसी कल्पना की थी। अब वह चिट्ठी कहां होगी? कौन-सी नदी या महासागर पार कर रही होगी? मेरी दोस्त तक कब पहुंचेगी? जब पहुंचेगी, उस समय वह घर पर होगी या नहीं? वह उसे एक बार पढ़ेगी या कई बार? क्या वह इसे संभालकर रखेगी? क्या तुरंत वापस लिखेगी? कैसे कागज पर लिखेगी?

अब लगता है कि चिट्ठी की यात्रा के हर चरण की कल्पना करने में बच्चे जैसी खुशी ने ट्रैकिंग की प्रक्रिया के मेरे आनंद में अपने उस वयस्क समकक्ष को पा लिया है,और इसके लिए स्पीडपोस्ट सेवाओं का आभार! यह देखना कितना दिलचस्प है कि गुड़गांव या गुवाहाटी से मेरे पास आने वाला पार्सल कितने हजार किलोमीटर, इतने सारे राज्यों, कैसे-कैसे माहौल, परिवहन के इतने सारे साधनों से यात्रा करते चलता है और अंततः एक डाकिया इसे मेरे दरवाजे तक लेकर आता है।

पोस्ट ऑफिस से मेरा नाता लगभग दो दशकों तक निष्क्रिय रहा जब तक कि कोविड जैसी महामारी के दौरान, अजीब तरह से ही सही, इसकी वापसी नहीं हो गई। मैं उन लोगों का धन्यवाद जताने को ‘आभार पैकेज’ भेजना चाहती थी जिन्होंने मुझे उस वक्त ‘देखभाल पैकेज’ भेजे थे जब मैं लॉकडाउन के दौरान फ्रैक्चर के कारण बिस्तर पर पड़ी थी।

महामारी में बेटे के जन्मदिन की पार्टी भी एक ‘लेटर पार्टी’ में तब्दील हो गई थी जहां आभासी और असल- दोनों तरह के दोस्तों ने उसे प्यार भरी चिट्ठियां और कार्ड भेजे और जिन्हें हमने साथ मिलकर पढ़ा। लगा, मानो उन शब्दों के जरिये पूरी दुनिया हमारे लिए आकर खड़ी गई हो। इंडिया पोस्ट को ‘आवश्यक सेवाओं’ के रूप में वर्गीकृत किया गया था और मैं इसके लिए आभारी थी।


लगभग 1.55 लाख से अधिक डाकघरों के साथ जिनमें से अधिकांश ग्रामीण इलाकों में हैं, भारत दुनिया का सबसे बड़ा डाक नेटवर्क वाला देश है। आजादी के बाद से यह नेटवर्क सात गुना बढ़ गया है और इसका ज्यादातर विस्तार ग्रामीण इलाकों में हुआ। फिर भी, संख्या और पहुंच के मामले में रफ्तार धीमी पड़ रही है और डाकघर प्रासंगिक और लाभदायक बने रहने के लिए खासी जद्दोजहद कर रहे हैं।

जब मैं सालिगाओ से गोवा के दूसरे गांव में गई, तो ​​डाकघर कहीं नहीं दिखा। बिजली विभाग के अनुसार, मेरा आधिकारिक पता अल्टो-पोरवोरिम था लेकिन डाकघर महीनों यह कहते हुए मेरी डाक देने से इनकार करता रहा कि यह क्षेत्र साल्वाडोर डो मुंडो पंचायत के अधिकार क्षेत्र में आता है। अमेजन/जोमैटो की अभ्यस्त ज्यादातर आबादी को इससे कोई असर नहीं पड़ता था लेकिन हमारे जैसे कुछ लोग घर पर डाक न आने से परेशान थे। दोस्त जगह-जगह से मुझे पार्सल भेजना चाहते और मुझ जैसी इंसान जिसका डाकघर से गहरा रिश्ता बना हुआ था, को लग रहा था कि कहीं कुछ गड़बड़ है। कई जगह चिट्ठियां लिखने के बाद आखिर एक दिन डाकिया हमारे दरवाजे आया और जाहिर है, उसे लगभग ‘रेड कार्पेट’ जैसा स्वागत मिला।

मैंने देखा है कि वरिष्ठ नागरिकों को डाकघर में घर जैसा महसूस होता है- वहां हमेशा उनकी संख्या ठीक-ठाक रहती है। शायद यह दुनिया की एकमात्र जगह है जहां उन्हें अपना बैलेंस चेक करने के लिए किसी ऐप या फोन पर किसी रोबोट से बात करने की जरूरत नहीं है, पार्सल स्वीकार करने या पता अपडेट करने के लिए ओटीपी का इंतजार भी नहीं करना पड़ता।

डाकघर की बचत योजनाएं शहरी और ग्रामीण- भारत दोनों में बेहद लोकप्रिय हैं और यह आश्वस्त करने वाला है कि इतने सारे लोग सर्वर संबंधी दिक्कतों के बावजूद अपनी पासबुक अपडेट कराने के लिए इंतजार कर रहे हैं। और चूंकि डाकघर डाक जीवन बीमा (पीएलआई) और ग्रामीण डाक जीवन बीमा (आरपीएलआई) के तहत जीवन बीमा कवर के साथ-साथ बिल संग्रह, फॉर्म की बिक्री जैसी सेवाएं भी देते हैं, यह ‘बुजुर्गों’ के लिए वास्तव में वन-स्टॉप शॉप है।’

बैंकों और वित्तीय संस्थानों के विपरीत, डाकघर आज भी इतना कम ‘तकनीक जटिल’ है कि वह इन लोगों के लिए भरोसेमंद बन जाता है जिनके अपने जीवन, खासकर बीते दशक में प्रौद्योगिकी का हमला हुआ है। गोवा के सालिगाओ डाकघर वाले मेरे पोस्टमास्टर मित्र फ्रांसिस हमेशा अपने बॉक्स कंप्यूटर के अवशेष की ओर इशारा करते हुए अफसोस जताते कि सरकार ने उनके सर्वर को अपग्रेड करने के लिए कुछ नहीं किया।


अब तो डाकघर के अलावा किसी अन्य स्थान पर लेटर बॉक्स ढूंढना खासा मुश्किल है। बंबई की पुरानी एम.एच.बी कॉलोनी में जहां मैंने अपना अधिकांश जीवन बिताया, पड़ोस के डाकघर के बाहर खड़ी लाल वैन और लाल डिब्बे को देखकर मुझे कुछ ऐसा सुकून मिलता, मानो कितना कुछ बेहतर है यहां। मुझे एहसास है कि जिन डाकघरों ने मुझ पर छाप छोड़ी, वे बॉम्बे, बैंगलोर और कलकत्ता में जीपीओ जैसी भव्य सफेद गुंबददार, कोरिंथियन-स्तंभ वाली संरचनाएं नहीं; बल्कि कोटागिरी में निहंग, गोवा में सालिगाओ और नेपाल में जोमसोम जैसे छोटे लेकिन ऐसे हैं जिनकी जितनी तारीफ की जाय, कम है।

मुझे तो उन तमाम मौकों की याद भी नहीं, जब सर्वर डाउन होने के बावजूद फ्रांसिस मेरा पार्सल ले लेते और रसीद लेकर भुगतान बाद में कर देने के विकल्प के साथ यह आश्वासन भी देते कि उसे उसके गंतव्य तक पहुंचा दिया जाएगा। मैं बंबई के डाकघरों में वह गर्मजोशी और सौहार्द तलाश ही करती रही।

डाकघर के बारे में सोचकर भी अच्छा लगता है कि यह अंतिम समतावादी संस्थानों में से एक है। कोई फास्ट-ट्रैक पहुंच नहीं, कोई वीआईपी लाउंज या बिजनेस क्लास नहीं, हर किसी को लाइन में लगना और अपनी बारी का इंतजार करना है और ईश्वर न करे, इसी बीच दोपहर के भोजन का समय आ जाए तो आप लंबा इंतजार भी करते हैं।

कभी-कभी इंतजार लंबा होता है, कई बार दूसरे छोर पर मौजूद व्यक्ति कुछ ज्यादा ही सख्त होता है और आपसे उस बॉक्स के हर खुले हिस्सों को टेप करने के लिए कहेगा जिसे आप बड़े जतन से पैक करके लाए हैं या कागज की एक सफेद शीट पर अपना पता टाइप कर उसे चिपकाने को कह देगा (गौर करना दिलचस्प है कि डाकघर के आसपास आमतौर पर कभी भी स्टेशनरी की दुकानें नहीं मिलतीं, यानी एक और मुसीबत)। हां, कभी-कभी काउंटर पर बैठा व्यक्ति समय रहते बता देता कि आपने पिन कोड गलत लिखा है, और तब अलग ही अहसास होता है।

आखिरकार- और शायद यही बात मुझे सबसे ज्यादा रोमांचित करती है- कि यह एक ऐसी जगह है जहां चीजों को अब भी लिखना पड़ता है, धीरे-धीरे और संभलकर। जीवन की तमाम अन्य चीजों की तरह यहां सबकुछ स्वचालित नहीं है। डाकघरों के साथ साबका पड़ते-पड़ते ही यह अहसास हुआ कि बीते कुछ सालों में मेरी लेखनी किस तरह बदल गई और प्रिंटआउट से लेकर बीच-बीच में कुछ कुछ लिखते रहने का अहसास क्या होता है। 


डाकघर से मेरा रिश्ता आज भी कायम है। समुद्र तल से 7,000 फीट ऊपर स्थित मेरे इस पहाड़ी शहर में ढहता हुआ लेकिन एक सक्रिय डाकघर है जिसमें एक बेंच है जहां बैठकर कोई बादलों को निहार सकता है, निकटतम बड़े शहर से आने और जाने वाली ट्रेनों की एक समय सारिणी और एक नोटिस भी है जिस पर लिखा है- ‘सचित्र रद्दीकरण उपलब्ध’।

मैंने (इंडियन फिलेटली डाइजेस्ट से, जैसा कि होता है) जाना कि एक सचित्र रद्दीकरण (पिक्टोरियल कैन्सलेशन) ऐतिहासिक, धार्मिक या पर्यटक रुचि के स्थानों और चीजों को उजागर करने वाले ग्राफिक डिजाइन के साथ एक विशेष तरह का पोस्टमार्क है। यह पहली बार 1951 में जारी हुआ और इसकी विरासत के कुछ उदाहरणों में ‘सांची, बिहार’ (नवंबर, 1952), ‘कुतुब मीनार’ (नवंबर, 1954) और ‘अजंता’ (जून, 1965) शामिल हैं।

मैं सोचती हूं कि जब किसी डाकघर के आसपास होती हूं तो समय कैसे अचानक धीमा हो जाता है। यह जीवन का एक अलग ही लम्हा होता है। मैं यह सोचकर मुस्कुरा उठती हूं कि जिन लोगों ने कभी ‘डाउन-मार्केट’ जैसी किसी चीज के अंदर और ‘उससे बाहर’ पोस्ट ऑफिस में  कदम नहीं रखा है, उन्हें कभी शायद ही यह अहसास हो कि यह इंडिया पोस्ट ही एकमात्र चीज है, जिसके जरिये वे अपना आधार कार्ड या ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त कर सकते हैं। और शायद यही  मुझे सुरक्षा की भावना भी प्रदान करता है। कई बार सोचती हूं कि, क्या होगा अगर कोई बड़ी तकनीकी मंदी आ जाए और हस्तलिखित चिट्ठियों के उस दौर की वापसी हो जाए? बस यही एक ख्याल जो मुझे और ज्यादा मानवीय अहसास कराता है।

(ललिता अय्यर लेखिका और स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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