करण थापर का लेखः अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जिन्ना की तस्वीर होने की वजहें
एएमयू में उपद्रव करने वालों के द्वारा न सिर्फ जिन्ना की शुरुआती राजनीति को ही अनदेखा किया जा रहा है, बल्कि उनके द्वारा व्यक्तिगत जीवन में अपनाए गए मूल्यों और सिद्धांतों को भी नजरअंदाज किया जा रहा है।
बहुत सारी ऐसी चीजें हैं, जिसमें मानवीय चालाकी और धूर्तता संशोधन कर सकती है या उसे बदल सकती है, लेकिन वो इतिहास को नहीं बदल सकती है। जो हो चुका है, उसे पलटा नहीं जा सकता है। निश्चित तौर पर आप ऐतिहासिक सच्चाई को नकार सकते हैं। लेकिन यह सिर्फ खुद को धोखा देना होगा। अंत में आप सिर्फ अपने आप को मूर्ख साबित करने में ही सफल हो पाते हैं। जानकार या जागरुक लोग कभी ऐसे झांसे में नहीं आते हैं।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में लगी जिन्ना की तस्वीर के खिलाफ अलीगढ़ से बीजेपी सांसद सतीश गौतम, हिंदू युवा वाहिनी और एबीवीपी द्वारा किया गया आंदोलन भी लगभग ऐसा ही मामला है। यह इतिहास को पलटने और मोहम्मद अली जिन्ना के बारे में कुछ निश्चित सच्चाईयों से इनकार करने का एक अदूरदर्शी प्रयास है।
सबसे पहली बात ये कि 20वीं शातब्दी के पहले तीन दशक वाले जिन्ना उस शख्स से बहुत अलग थे, जिसे पाकिस्तान के लोग कायद-ए-आजम बुलाते हैं। जिन्ना ने 1906 में कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ली थी और वह कांग्रेस पार्टी के सबसे अहम और सबसे अधिक सम्मानित कुछ लोगों में से एक थे। कहा जाता है कि उस समय वह दादाभाई नैरोजी के निजी सचिव के तौर पर काम किया करते थे। उन्होंने 1913 में मुस्लिम लीग की सदस्यता ली थी। हालांकि, लीग की स्थापना के समय उन्होंने उसमें शामिल होने से इंकार कर दिया था।
1916 में जब जिन्ना ने ‘लखनऊ पैक्ट’ को तैयार करने में मदद की थी तो सरोजिनी नायडू ने उन्हें हिंदू-मुस्लिम एकता का राजदूत बताया था। वास्तव में, यह उपाधि संभवतः इसके कुछ साल पहले गोपला कृष्ण गोखले द्वार दी गई थी, जो जिन्ना को किसी भी सांप्रदायिक पूर्वाग्रह से मुक्त मानते थे। वास्तव में, यह जिन्ना द्वारा गांधी के खिलाफत आंदोलन का विरोध था, जिसकी वह से उनके कांग्रेस से अलग होने की शुरुआत हुई। वह धर्म और राजनीति को एक साथ मिलाने को अस्वीकार्य मानते थे।
जिन्ना उस समय के सबसे बड़े वकील भी थे। उन्होंने 1908 में पहली बार देशद्रोह के आरोप से बाल गंगाधर तिलक को बचाया था। उन्होंने 1916 में एक बार फिर से उन्हें बचाया। पहली बार में उस केस में हार मिली थी, लेकिन दूसरी बार में उन्होंने इस केस को शानदार तरीके से जीता था। अगर जिन्ना हार गए होते तो तिलक की बाकी की जिंदगी अंडमान की जेल में गुजरती।
अस्थायी तौर पर राजनीति से मुंह मोड़ते हुए 1930 में उन्होंने जब भारत छोड़ा, तब उन्होंने खुद को लंदन के अग्रणी वकीलों में से एक के रूप में स्थापित कर लिया था। उस समय यह उपलब्धि हासिल करने वाले वह एकमात्र भारतीय थे। तब से आठ दशक बीत जाने के बाद आज भी सिर्फ मुट्ठी भर लोग ही ऐसा कर पाने में सफल हुए हैं।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसके आधार पर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्र संघ ने उन्हें 1938 में आजीवन सदस्यता दिया था। इसी वजह से उनका चित्र उनके कार्यालय में लटका हुआ है। या तो सतीश गौतम, हिंदू युवा वाहिनी और एबीवीपी के लोग इन तथ्यों से अनजान हैं या फिर वे जानबूझकर मूर्खतापूर्ण तरीके से इन्हें अनदेखा कर रहे हैं। लेकिन अगर आप इतिहास के प्रति सच्चे रहना चाहते हैं तो जिन्ना को भुलाया या अनदेखा नहीं किया जा सकता है। ये वे तथ्य हैं जिनको सहजता से स्वीकार कर पाना पाकिस्तान के लिए मुश्किल बात है।
हालांकि, यह सिर्फ 20 वीं शताब्दी के शुरुआती दशकों की जिन्ना की राजनीति नहीं है जिसे अलीगढ़ में उपद्र करने वालों द्वारा अनदेखा किया जा रहा है, बल्कि व्यक्तिगत जीवन में उनके द्वारा अपनाए गए मूल्यों और सिद्धांतों को भी नजरअंदाज किया जा रहा है। मुसलमान होने के बावजूद ऐसे समय में उन्होंने अपने धर्म से बाहर शादी की थी, जब ऐसी शादियां न सिर्फ असामान्य बात थी बल्कि अस्वीकार्य भी थीं। असल में, जिन्ना और उनकी पत्नी रती ने भागकर शादी की थी। वह मुल्लाओं और उनके रूढ़िवादी विचारों से बेपरवाह खुले तौर पर सूअर का मांस खाते थे और व्हिस्की पीते थे। और वह अपने समय के सबसे सुसज्जित ढंग से कपड़े पहनने वाले लोगों में से थे। वह विशेष रूप से कपड़ों से मेल खाते जूतों के लिए प्रसिद्ध थे। गांधी के बकरी का दूध पीने वाले शाकाहारी तपस्वी वाली छवि की तुलना में जिन्ना की यह छवि संभवतः आधुनिक शहरी भारतीयों के अधिक करीब थी।
यहां तक कि ये भी तथ्य है कि विभाजन और पाकिस्तान की नींव रखे जाने के समय भी जिन्ना धर्मनिरपेक्षता और धार्मिक समानता के मूल्यों के प्रति सच्चे रहे। 11 अगस्त 1947 के अपने प्रसिद्ध भाषण में उन्होंने कहा थाः “आप पाकिस्तान में स्वतंत्र हैं, आप अपनी मस्जिदों या पूजा के किसी अन्य स्थान पर जाने के लिए स्वतंत्र हैं। आप किसी भी धर्म या जाति या पंथ से संबंधित हो सकते हैं, जिसका राज्य के काम से कोई लेना-देना नहीं है... यहां कोई भेदभाव नहीं है, एक समुदाय और दूसरे समुदाय के बीच कोई भेद नहीं है, एक जाति या पंथ और दूसरे के बीच कोई भेदभाव नहीं है। हम इस मौलिक सिद्धांत के साथ शुरुआत कर रहे हैं कि हम सभी नागरिक हैं और एक राज्य के बराबर के नागरिक हैं।"
निस्संदेह यही वजह है कि 2005 में जब लाल कृष्ण आडवाणी ने कराची में जिन्ना के मकबरे का दौरा किया, तो उन्होंने आगंतुक पुस्तिका में निम्नलिखित प्रशंसा भाषण लिखा: "ऐसे कई लोग हैं जो इतिहास पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं, लेकिन वास्तव में ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो इतिहास बनाते हैं। कायद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना एक ऐसे ही दुर्लभ व्यक्ति थे। जिन्ना के प्रारंभिक वर्षों में, भारत के स्वतंत्रता संग्राम की अग्रणी चमकता सितारा रहीं सरोजिनी नायडू ने उन्हें हिंदू-मुस्लिम एकता के राजदूत के तौर पर वर्णित किया था। 11 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान की संविधान सभा में उनका संबोधन वास्तव में एक उत्कृष्ट भाषण और एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की जोरदार स्वीकार्यता थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि हर नागरिक को अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्र होगी और राज्य विश्वास और आस्था के आधार पर नागरिकों के बीच कोई भेद नहीं करेगा। इस महान आदमी को मेरी सम्मानजनक श्रद्धांजलि।"
दिलचस्प बात यह है कि जिन्ना के प्रति इतने अच्छे विचार रखने वाले सिर्फ आडवाणी ही नहीं हैं, जिन्हें बीजेपी ने अपने मार्गदर्शक मंडल में निर्वासित कर दिया है। ऐसा विचार उत्तर प्रदेश कैबिनेट के सदस्यों के भी हैं। जैसा कि कहा जा रहा है, हाल ही में प्रदेश के श्रम मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने उन्हें "महापुरुष" बताया था। मौर्य ने कहा, "जिन भी महापुरुषों का योगदान इस राष्ट्र के निर्माण में रहा है, यदि अन पर कोई उंगली उठाता है, तो ये बहुत घटिया बात है।"
असल में, सच्चाई यह है कि जिन्ना दो राष्ट्र सिद्धांत के मूल वास्तुकार भी नहीं थे। वी डी सावरकर ने तीन साल पहले दिसंबर 1937 में हिंदू महासभा में अपने अध्यक्षीय संबोधन में इसका प्रस्ताव दिया था।
इसलिए अब, जब जावेद अख्तर जिन्ना की तस्वीर के खिलाफ विवाद में शामिल हो गए हैं और ट्वीट करते हैं, "यह शर्म की बात है कि उनका चित्र वहां है," तो ऐसा लगता है कि उन्होंने भी इतिहास की सच्चाइयों से अपनी आंखें फेर लेने का फैसला किया है। हिंदू युवा वाहिनी और एबीवीपी अज्ञानता या जानबूझकर भूलने की दलील दे सकते हैं, लेकिन जावेद अख्तर ऐसा नहीं कर सकते हैं।
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