दलित-विरोधी है बीजेपी का राजनीतिक और सामाजिक आधार
सामाजिक स्तर पर कमजोर तबकों के खिलाफ हमले की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। वहीं दूसरी तरफ सत्ता तंत्र में राजनीतिक और आर्थिक तौर पर हासिल उनकी ताकत को कमजोर करने की कोशिश की गई है।
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी की सरकार के कार्यकाल के कामकाज की यह आखिरी समीक्षा है। इसके बाद चुनाव होने हैं और उस वक्त आम मतदाता सरकार के कामकाज के आधार पर मत का प्रयोग करेगा।
इन वर्षों में समाज के कमजोर तबकों में असंतोष बढ़ने के बेहद स्वभाविक राजनीतिक कारण हैं। देश के चुनावी इतिहास में यह पहली बार हुआ कि सामाजिक रूप से वर्चस्व रखने वाली जातियों ने एकजुट होकर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार को बनाने के लिए मतदान किया। विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के कार्यकाल में जब पिछड़ी जातियों के लिए केन्द्र सरकार की सेवाओं में विशेष अवसर देने का प्रावधान किया गया था, तब बीजेपी ने एक सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला तैयार किया था। यह फॉर्मूला गैर सवर्ण जातियों के नेतृत्व में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को अंजाम देने का था। यह अजीबो-गरीब स्थिति थी जब आरक्षण का विरोध करने वाली राजनीतिक प्रवृति ने दलित नेतृत्व को स्वीकार किया। नरेन्द्र मोदी उसी फॉर्मूले की उपज के तौर पर प्रस्तुत किए गए। इस तरह पिछड़े के नेतृत्व में सामाजिक रूप से वर्चस्व रखने वाली सामाजिक शक्तियों का सत्ता मुकुट तैयार हुआ।
भारत में सत्ता का नेतृत्व जब बदलता है तो वह अपने सामाजिक-राजनीतिक आधार के लिए एक संदेश भी होता है। इस सरकार के नेतृत्व को पिछड़े के रूप में प्रचारित किया गया, लेकिन उसके आधार में वर्चस्ववादी सामाजिक और राजनीतिक शक्तियां थीं। लिहाजा, दो तरह की परिस्थितियां तैयार हुईं। पहला तो सामाजिक स्तर पर पिछड़े-दलितों और आदिवासियों के खिलाफ वैसे हमले की घटनाएं सामने आई, जिन्हें उत्पीड़न के क्रुरतम तरीके के उदाहरण के रूप में रखा जाता है। भारत के संविधान के उद्देश्यों के अनुसार सत्ता की जिम्मेदारी समाज के कमजोर तबकों को अपेक्षाकृत मजबूत तबकों के बराबर लाने का प्रयास करना है। इसके लिए सत्ता को एक तरफ सामाजिक स्तर पर उन्हें संरक्षण और सुरक्षा देने की होती है तो दूसरी तरफ उन्हें आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर क्रमश: ताकतवर बनने की कोशिश करना है।
यह देखा गया कि जिस तरह से सामाजिक स्तर पर कमजोर तबकों के खिलाफ हमले की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। वहीं दूसरी तरफ सत्ता तंत्र में उन्हें राजनीतिक और आर्थिक तौर पर हासिल ताकत को कमजोर करने की कोशिश की गई। अनुसूचित जाति एवं जन जाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 में सुप्रीम कोर्ट के जरिये बुनियादी बदलाव इसके सबसे क्रुरतम रूप में सामने आया और उसकी प्रतिक्रिया में पहली बार भारतीय राजनीति के इतिहास में दलित संगठनों ने 2 अप्रैल को भारत बंद के कार्यक्रम को अंजाम दिया।
आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर हासिल अधिकारों और संरक्षण के खोने के कई उदाहरण यहां दिए जा सकते हैं, लेकिन पूरी स्थिति को समझने के लिए दो उदाहरण पर्याप्त हैं। पहला तो अधिनियम के उदाहरण का उल्लेख किया गया है। इस अधिनियम के प्रावधानों से न केवल सामाजिक स्तर पर असुरक्षा का बोध दूर होता था बल्कि राजनीतिक हिस्सेदारी और आर्थिक हितों के संरक्षण की स्थिति भी महसूस होती थी। दूसरा सत्ता में हिस्सेदारी को सुनिश्चित करने के लिए विशेष अवसर के सिद्धांत का कायम होना। सत्ता का अर्थ जनप्रतिनिधि और उनके द्वारा बनाई गई सरकार ही नहीं होती है। सत्ता एक पूरा तंत्र है। आरक्षण के प्रावधान तो हैं और सरकार का दावा भी सही है कि वह प्रावधान फिलहाल बने रहेंगे, लेकिन व्यवहार में धीरे-धीरे सत्ता में विशेष अवसर के सिद्धांत के जरिये हिस्सेदारी की स्थिति खत्म होती चली गई है।
चूंकि नरेन्द्र मोदी की सत्ता के नेतृत्व का सामाजिक और राजनीतिक आधार विशेष अवसर के सिद्धांतों के विपरीत रहा है। ठीक उसी तरह जैसे वह अनुसूचित जाति एवं जन जाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 के प्रावधानों के खिलाफ रहा है, और बीजेपी के शीर्षस्थ नेताओं ने इस अधिनियम में बदलाव का भरोसा भी दिलाया था। जाहिर है कि सत्ता के इस मुखौटे के साथ पूरा सामाजिक और राजनीतिक आधार इन वर्षों में संवैधानिक तंत्रों का इस्तेमाल अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए करता रहा है। मुखौटा बीजेपी की राजनीतिक रणनीति का हिस्सा हैं, जिसे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रचारक गोविंदाचार्य ने अटल बिहारी वाजपेयी के संदर्भ में बेबाकी से प्रकट किया था।
समाज के कमजोर हिस्सों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों में परिवर्तन के लिए प्रतीक के महत्व की सीमित भूमिका होती है। लेकिन बीजेपी अपने राजनीतिक और सामाजिक वर्चस्व के लिए जिस तरह से प्रतीकों का रणनीतिक इस्तेमाल करती है उस रणनीति को वह कमजोर तबकों के बीच इस्तेमाल करने की कोशिश कर रही है। इससे कमजोर तबकों के भीतर वह अपने प्रतीकों की घुसपैठ तो करा सकती है, लेकिन उनकी दशा-दिशा में बुनियादी परिवर्तन नहीं स्थापित कर सकती है। एक उदाहरण के जरिये इस स्थिति को समझा जा सकता है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने नोटबंदी की त्रासदी के बाद एक एप जारी किया। जिसे भीम का नाम दिया गया। लेकिन यह भीम डॉ भीम राव अम्बेडकर के नाम से निकाला गया शब्द नहीं था, बल्कि वह भारत इंटरफेस ऑफ मनी से बनाया गया भीम है। अंग्रेजी के बीएच से हिन्दी का भा, इ से आई और एम से म बनता है। यानी एफ में भीम का मुखौटा लगाया गया है। जबकि उसकी आत्मा में भारत इंटरफेस ऑफ मनी है। लेकिन समाज एप की तकनीक नहीं है।
यह दरअसल नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार का कमजोर तबकों के साथ व्यवहार करने का तरीका है और यह तरीका उसके सामाजिक-राजनीतिक आधार में मौजूद रहा है। डॉ भीम राव अम्बेडकर का प्रतीक कमजोर तबकों के भीतर राजनीतिक स्तर पर मजबूत करने के संदेश के साथ ही अपना महत्व रखता है। लेकिन इस सत्ता ने उस प्रतीक को अपने मंदिर की तरफ ले जाने का प्रयास किया है। दलितों से इस सत्ता ने क्या-क्या लिया है, दरअसल इसकी समीक्षा की जानी चाहिए। दलितों के बीच असंतोष के संकेत को समझने के लिए बीजेपी के दलित सांसदों के सरकार के रवैये के खिलाफ स्वर को पर्याप्त माना जा सकता है।
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