अल्पसंख्यकों पर जहर उगलने वाले बीजेपी का आधार स्तंभ, हिंसा फैला रही प्रधानमंत्री की भाषा?

पूरी दुनिया में हिंसक भाषा का प्रयोग किया जा रहा है, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारा देश ऐसी भाषा में विश्व गुरु है। हमारे यहाँ सत्ता का पूरा आधार ही ऐसी भाषा है, और सत्ता की इस भाषा को सोशल मीडिया के साथ मेनस्ट्रीम मीडिया दिनरात प्रसारित करता है।

फोटो : Getty Images
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महेन्द्र पांडे

प्रधानमंत्री मोदी के बार-बार सत्ता तक पहुँचने का मुख्य आधार अल्पसंख्यकों के विरुद्ध नफरती राजनीति है। यह नफरत भाषा से होते हुए सामान्य जनता के व्यवहार और हरकतों तक पहुँच चुकी है, और एक सामान्य नागरिक को भी हिंसक बना चुकी है। इस हिंसा का आलम यह है कि अब तो अल्पसंख्यकों के नाम पर बहुसंख्यक वर्ग के लोगों की हत्याएं की जा रही हैं। प्रधानमंत्री जिस अमृत काल, स्वर्णिम काल और विकसित भारत की बात करते हैं उसमें हत्याएं और दरिंदगी ही सबसे सामान्य हैं और इन्हें सत्ता और पुलिस का संरक्षण प्राप्त है। लगातार अल्पसंख्यकों पर जहर उगलने वाले की बीजेपी का आधार स्तंभ हैं। कंगना रानावत इसका एक जीवंत नमूना हैं। अमेरिका में और जी20 जैसे मंचों पर भारत को प्रजातंत्र की जननी बताने वाले हमारे प्रधानमंत्री खुले आम मुस्लिमों को घुसपैठिए और अधिक बच्चे पैदा करने वाले बताते हैं।

कुछ समय पहले ही ह्यूमन राइट्स वाच नामक संस्था ने लोकसभा चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों की गहन समीक्षा कर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। इसके अनुसार प्रधानमंत्री मोदी ने अपने 173 चुनावी भाषणों में से 110 में अल्पसंख्यकों, विशेष तौर पर मुस्लिमों, के लिए आपत्तिजनक, भड़काऊ और गरिमा-विहीन भाषा का प्रयोग किया। रिपोर्ट के अनुसार यह एक गंभीर स्थिति है जब देश का सर्वोच्च नेता और संविधान का तथाकथित रखवाला ही संविधान की गरिमा को तार तार करने के साथ ही समाज को बांटने वाले हिंसक भाषा का प्रयोग करने लगे। पूरी दुनिया में अल्पसंख्यकों पर भाषाई हमले किए जाते हैं, पर ऐसे हमलों में छोटे नेता शामिल रहते हैं, कहीं भी देश का सर्वोच्च नेता ऐसे हिंसक भाषा की अगुवाई नहीं करता। प्रधानमंत्री ने अल्पसंख्यकों के विरुद्ध झूठे दुष्प्रचार और हेट स्पीच को एक नया सामान्य बना डाला है। इन भाषणों के समाज पर सीधा असर भी दिख रहा है सत्ता और पुलिस के संरक्षण में अल्पसंख्यकों पर हमले हो रहे हैं, उनके घरों को ध्वस्त किया जा रहा है और उनकी हत्या भी की जा रही है।

नागरिकता संशोधन क़ानून के विरुद्ध आनदोलनों के समय और दिल्ली दंगों से ठीक पहले कपिल मिश्र, प्रवेश वर्मा और अनुराग ठाकुर जैसे तमाम बीजेपी नेता अपने भाषणों से समर्थकों को हिंसक बनाने के उपदेश दे रहे थे। हमारे प्रधानमंत्री जी भी “बदला लेंगे कि नहीं” जैसे वाक्यांश का प्रयोग करते हैं और गृह मंत्री तो हरेक विरोधी को देश के टकडे करने वाला गैंग घोषित करते हैं। बीजेपी से जुडी तमाम तथाकथित साध्वियां तो स्पष्ट तौर पर टीवी कैअरों के सामने मारने-काटने की बातें करती हैं। इन राजनैतिक हस्तियों से भी अधिक हिंसक भाषा का उपयोग तो प्रवचन वाले तमाम बाबा करते हैं, और पुलिस वालों की मौजूदगी में दूसरे समुदाय को मिटा देने की बात करते हैं। मेनस्ट्रीम मीडिया दिनभर ऐसे हिंसक वक्तव्यों को दिखा कर उसे हरेक घर में पहुंचा देता है।


दरअसल हिंसक भाषा आज की वैश्विक राजनीति का अभिन्न अंग बन गयी है और सोशल मीडिया प्लेटफोर्म इसी भाषा का हरेक स्मार्टफ़ोन में प्रसार कर मालामाल होते जा रहे हैं। डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने राष्ट्रपति-काल के दौरान ऐसी भाषा का उपयोग किया जिसका भयानक परिणाम 6 जनवरी 2021 को नजर आया जब उनके हिंसक समर्थकों के हुजूम ने संसद पर हमला कर दिया। ब्राज़ील के पूर्व राष्ट्रपति जेर बोल्सेनारो ने ऐसी ही भाषा का प्रयोग कर अपने समर्थकों को इतना हिंसक बनाया कि ब्राज़ील में संसद से लेकर हरेक संवैधानिक कार्यालय पर हमला किया गया।

हिंसक भाषा वह होती है जब एक समूह, समुदाय या फिर राजनैतिक दल अपने आप को महान साबित करते हुए किसी समुदाय या राजनैतिक दल को ही देश के लिए खतरनाक, राष्ट्रद्रोही या फिर निकम्मा बताता है। भाषा से हिंसा का प्रसार पिछले कुछ वर्षों से इतना व्यापक और खतरनाक हो गया है कि अब तो अमेरिका में कांग्रेस के चुने सदस्यों ने भाषा से फैलाने वाली हिंसा और इसे रोकने के उपायों पर व्यापक बहस शुरू कर दी है।

अमेरिका के लुसिआना स्टेट यूनिवर्सिटी में सोशल साइकोलॉजी की प्रोफ़ेसर कोलीन सिनक्लैर ने हिंसक भाषा पर व्यापक अध्ययन और अनुसंधान किया है। उनके अनुसार जनता, सत्ता और क़ानून की देखभाल करने वालों को यह समझना आवश्यक है कि भाषा से दो वर्गों के बीच आसानी से हिंसा भड़काई जा सकती है। इसके उदाहरण भी बार-बार हमारे सामने आते हैं। हिंसक भाषा हमेशा समाज को दो समुदायों में बांटती है एक समुदाय “हम” होता है, जिसके बारे में मूल नागरिक, देश का रक्षक, हजारों वर्षों की गौरवशाली परम्परा इत्यादि बताया जाता है; तो दूसरी तरफ दूसरा समुदाय, यानि वो, होते हैं जो देश का नाश कर देते हैं, हिंसक होते हैं, लुटेरे होते हैं, हम से घृणा करने वाले होते हैं। बार-बार ऐसी भाषा का प्रयोग कर समाज को दो वर्गों में बांटकर “हम” को “वो” के खिलाफ खड़ा किया जाता है और फिर एक समुदाय को दूसरे समुदाय के विरुद्ध हिंसा ही जायज लगने लगती है, यही राष्ट्रवाद लगता है और एक कर्तव्य भी। समस्या तब और गंभीर हो जाती है, जब पुलिस,

प्रशासन और न्यायालय सभी बड़े समूह द्वारा की गयी हिंसा को ही सही और क़ानून-सम्मत मानने लगते हैं। अमेरिका में केवल कट्टर दक्षिणपंथी मीडिया की खबरें पढ़ने वाले या देखने वाले 40 प्रतिशत से अधिक नागरिक यह मानते हैं कि देश बचाने के लिए हिंसा का सहारा लेने वाला ही सही मायने में देशभक्त है। हमारे देश में तो यह प्रतिशत बहुत अधिक होगा क्योंकि हमारे देश का पूरा मेनस्ट्रीम मीडिया की कट्टर दक्षिणपंथी है और हिंसक वक्तव्य और सामाजिक हिंसा का पुजारी भी।


प्रोफ़ेसर कोलीन सिनक्लैर ने हिंसक भाषा को पांच वर्गों में विभाजित किया है। पहला वर्ग शारीरिक हिंसा का है, इसके तहत बताया जाता है कि दूसरा समुदाय हमें शारीरिक चोट कर सकता है या फिर हमें समाप्त करने के लिए कोई घातक रोग फैला सकता है। वर्ष 2020 में कोविड के दौर में वक्तव्यों, संबोधनों और सोशल मीडिया पर अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प इसे चाइनीज फ्लू कहा करते थे। इसका नतीजा यह हुआ कि अमेरिका में चीन के साथ ही तमाम एशियाई मूल के नागरिकों पर खुले आम हमले होने लगे। हमारे देश में भी दिल्ली में तबलीगी जमात को इसी तरह कोविड के विस्तार के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था। ऐसी हिंसक भाषा में यह भी बताया जा सकता है कि दूसरा समुदाय हमारे ऊपर हमले करने वाला है, जैसा दिल्ली दंगों के समय किया गया था। दिल्ली दंगों से ठीक पहले प्रवेश वर्मा ने कहा था कि दूसरा समुदाय हमारे घरों में घुसेगा और हमारे बहु-बेटियों की आबरू लूट लेगा। यही सब कुछ प्रधानमंत्री मोदी ने भी लोकसभा चुनावों के दौरान लगातार कहा।

दूसरा वर्ग है नैतिक खतरे का, यानि दूसरा समुदाय हमारे समाज का सांस्कृतिक, राजनैतिक या धार्मिक पतन करेगा। गाय के मांस या फिर गौ-तस्करी के नाम पर भीड़ द्वारा हत्या यही मानसिकता बताता है। दूसरी तरफ जब तमाम धर्म के ठेकेदार तमाम समस्याओं या आपदाओं की जड़ महिलाओं के कपडे, मदिरा या उन्मुक्त समाज को बताते हैं तब भी यही नैतिक हिंसक भाषा रहती है।

तीसरा वर्ग है संसाधन के खतरे। इसके तहत बताया जाता है कि दूसरे समुदाय की जनसंख्या बढ़ती जा रही है, वह भविष्य में हमसे ज्यादा हो जाएंगे। उनकी जनसंख्या बढ़ती जायेगी और फिर सभी नौकरी और संसाधनों पर उनका कब्जा हो जाएगा। चौथा वर्ग है सामाजिक खतरे का। इसके अंतर्गत ऐसी हिंसक भाषा आती है, जिसके द्वारा दूसरे समुदाय द्वारा समाज पर खतरे बताये जाते हैं। हमारे देश में जिस लव-जिहाद की लगातार चर्चा की जाती है, या फिर वैलेंटाइन डे पर जिस तरीके से सरेआम मार-पीट की जाती है, यह सब इसका उदाहरण है। पांचवां वर्ग है अपने आप पर ख़तरा। इसके अंतर्गत भाषा द्वारा बताया जाता है कि दूसरा समुदाय हमेशा से ही हमसे घृणा करता रहा है, हमें कमतर आंकता है, हमें लूटता रहा है इसलिए हम भी वैसा ही करेंगे और उनसे बदला लेंगे। ऐसी हिंसा के लिए अधिकतर मामलों में ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है।


पूरी दुनिया में हिंसक भाषा का प्रयोग किया जा रहा है, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारा देश ऐसी भाषा में विश्व गुरु है। हमारे यहाँ सत्ता का पूरा आधार ही ऐसी भाषा है, और सत्ता की इस भाषा को सोशल मीडिया के साथ मेनस्ट्रीम मीडिया दिनरात प्रसारित करता है। अब तो यही हमारी राष्ट्रीय भाषा है।

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Published: 08 Sep 2024, 8:00 AM