अमेरिका से नजदीकियों की कीमत का हिसाब लगाया भी है हमने?

क्या हमने अमेरिका से नजदीकियां बढ़ाने की कीमत का हिसाब लगाया है जो घोषित तौर पर अमेरिका फर्स्ट की बात करता है? पिछले कुछ वर्षों में हमने अमेरिका के साथ जो संबंध बनाए हैं, क्या अमेरिकी राष्ट्रपति से यह सुनने के लिए कि ‘भारत कोविड के आंकड़े छिपा रहा है’?

फोटो : सोशल मीडिया
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सलमान खुर्शीद

पिछले कुछ वर्षों के दौरान अमेरिका को लेकर हमारी नीतियों में कुछ विरोधाभास रहा है। गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नाम) की बढ़ती अप्रासंगिकता, सोवियत संघ के विखंडन, चीन के एक ताकत के तौर पर उभरने और अंततः अमेरिका की समझ में यह बात आ जाने के बाद कि पाकिस्तान की धरती पर फलता-फूलता आतंकवाद अकेले भारत के लिए खतरा नहीं, वाशिंगटन में इस्लामाबाद के दबदबे में आई कमी ने विदेश नीति में काफी कुछ बदल दिया है। पहले हमारी विदेश नीति ने हमें मजबूत स्थिति में रखा लेकिन बदलते हालात में आज जब हम अपनी नीतियों को नया रूप दे रहे हैं और इस संदर्भ में रबड़-पेंसिल लेकर अपनी आकांक्षाओं को आकार देने की कोशिश कर रहे हैं तो जाहिर है, उभर रही तस्वीर को लेकर तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं।

आज हमारी नई विदेश नीति के केंद्र में यह जरूरी सवाल होना चाहिए कि अमेरिका-भारत रिश्तों की उभरती नई शक्ल क्या भारत की वैश्विक आकांक्षाओं और चिंताओं के अनुकूल है? अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान हुए परमाणु परीक्षण के बाद मनमोहन सिंह सरकार के दौरान भारत और अमेरिका के बीच हुए असैनिक परमाणु समझौते ने दोनों देशों के आर्थिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और बौद्धिक रिश्तों को एक नया रणनीतिक आयाम दिया।

पहले चाहे एनडीए की सरकार हो या फिर यूपीए की, जान- बूझकर अमेरिका के साथ रणनीतिक और सैन्य भागीदारी की दिशा में कदमताल करने से परहेज किया गया। लेकिन हाल के समय में भारत सरकार ने अमेरिका के साथ कई समझौते किए हैं- लॉजिस्टिक्स सपोर्ट एग्रीमेंट (एलएसए), कम्युनिकेशंस एंड इनफॉर्मेशन सिक्योरिटी मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (सिसमोआ) और अब बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट (बेका)। अमेरिका को लेकर भारत में जो आम राय रही है, ये समझौते उसके एकदम उलट हैं। यह दलील दी जा सकती है कि ये समझौते यूपीए सरकार के समय की नीतियों की ही स्वाभाविक परिणति हैं लेकिन हालिया घटनाक्रम को देखते हुए यह मान लेना बेवकूफी ही होगी कि ये समझौते भारत के लिए यह हर दृष्टि से अच्छे ही होंगे और इनका कोई प्रतिकूल असर नहीं होगा।


इन समझौतों पर एक नजर डालना जरूरी होगा। एलएसए एक दूसरे की सुविधाओं के नियमित उपयोग की सुविधा देता है। यह विशेष रूप से भारत को रसद की मदद देने के लिए बाध्य तो नहीं करता लेकिन अमेरिका इस दिशा में इसके इस्तेमाल के एक कदम के रूप में जरूर देख सकता है। साझा लोकतांत्रिक मूल्यों के बावजूद अमेरिका जिस तरह की भूमिका दुनिया के विभिन्न हिस्सों में निभाता रहा है, उस पर भारत को हमेशा से आपत्ति रही है लेकिन इन समझौतों से भारत- अमेरिका में भू-राजनीतिक समीकरण बनते दिख रहे हैं और यह पहले के भारत-सोवियत साझेदारी से बिल्कुल अलग है। अपनी रक्षा जरूरतों के लिए अमेरिका के सैन्य-उद्योगों पर बढ़ती निर्भरता हमारी नीतियों में बड़ा बदलाव है।

लेकिन क्या अमेरिका से इन समझौतों का मतलब यह है कि पहले हम जिस तरह इराक और अफगानिस्तान में ऑपरेशन से सायास अलग रहे, उसके अब बदलने की संभावना है? क्या ये समझौते भारत को अमेरिकी संघर्षों में करीबी भागीदारी और सत्ता परिवर्तन जैसे अभियानों में शामिल होने के लिए बाध्य करेंगे? यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत के लोग कभी नहीं चाहेंगे कि विदेश के किसी युद्ध में शामिल होकर हमारे लोग बॉडी बैग में वापस आएं।

इस बात के ठोस संकेत मिल रहे हैं कि अमेरिका चाहता है कि चीन को काबू करने में भारत अहम भूमिका निभाए। भारत को कथित तौर पर ‘मोतियों की माला’ से घेरने से लेकर चीन का जवाब देने की जवाबी रणनीति अब भी काफी हद तक दूर की कौड़ी ही लगती है। एलएसी पर अभी हम उलझे हुए हैं। क्या हमें एक परमाणु पड़ोसी के साथ युद्ध में पड़ना चाहिए? बेशक, भारत अपनी गरिमा और संप्रभुता की रक्षा के लिए युद्ध से पीछे नहीं हटेगा लेकिन यह बात भारत के लोगों के गले नहीं उतरती कि अपना बदला लेने के लिए हम सुदूर के किसी देश की मदद लें।


इसमें शक नहीं कि 2020 का भारत 1962 का भारत नहीं है लेकिन हमें अपनी आर्थिक वृद्धि और सैन्य तैयारियों के बारे में व्यावहारिक होने की आवश्यकता है, खास तौर पर एक साथ दो-मोर्चे पर लड़ाई को लेकर। अमेरिका की महत्वाकांक्षी योजना भारत-प्रशांत समुद्री क्षेत्र में भारत की सक्रिय भागीदारी के बूते अपनी पकड़ मजबूत करने की है। क्वाड समुद्री अभ्यास इसी कड़ी में है जिसमें हम शामिल हो चुके हैं। इससे चीन खुश तो नहीं होगा।

भारत के तत्काल हित अमेरिकी हितों से मेल नहीं खाते। और निश्चित रूप से जो हम अब तक उत्तर में जमीन पर करने की स्थिति में नहीं, उसे समुद्र में आजमाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। इसके अलावा, हमें यह भी समझना होगा कि अमेरिकी बेस के इस्तेमाल की स्थिति में आने के लिए हमें नौसेना पर मोटा पैसा खर्च करना पड़ेगा। संयुक्त अभ्यास अलग बात है और अमेरिकी सेना के साथ मिलकर लड़ना और, जैसा कि ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया ने कई बार किया है।

हमें अमेरिका से सीखना चाहिए कि जब तक सफलता की गारंटी न हो, उलझने से बचना चाहिए। हो सकता है कि अमेरिका आगे अपने दुस्साहस से पीछे हट जाए लेकिन भारत ऐसे अभियान का हिस्सा बनकर अपने लिए उल्टी स्थिति पैदा नहीं कर सकता। उधर एलएसी पर सैन्य स्तर पर थकाऊ बातचीत अब भी चल रही है और अमेरिका से हमारी भागीदारी जिसमें उच्च प्रौद्योगिकी तक पहुंच मिलती है, उसकी भी हमें बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है।

देखने वाली बात है कि हम काफी सस्ते में निर्णय लेने की अपनी स्वतंत्रता का त्याग कर रहे हैं। और फिर तेजी से आक्रामक हो रहे चीन या फिर रूस-चीन-पाकिस्तान गठजोड़ से निपटने के लिए अमेरिका पर हमारी निर्भरता की कीमत क्या है,यह भी देखने की जरूरत है।


अमेरिका के साथ व्यापक जुड़ाव अपरिहार्य है और कई मायनों में यह स्वागत योग्य भी है लेकिन जैसा कि राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने एक बार कहा था, क्या पूंछ कुत्ते को हिलाती है? हमें निश्चित रूप से यह ध्यान रखना होगा कि हम वैसी महत्वाकांक्षा नहीं पालें। हाल के वर्षों में ‘हाउडी मोदी’ और ‘नमस्ते ट्रंप’ के बावजूद इस मुद्दे पर आश्वास्ति नहीं मिलती।

कुल मिलाकर यही कह सकते हैं कि क्या हमने ऐसे प्रशासन के साथ नजदीकियां बढ़ाने की कीमत का हिसाब लगाया है जो घोषित तौर पर अमेरिका फर्स्ट की बात करता है? जाहिर है, ऐसे में भारत का स्थान तो हर हाल में दूसरा ही रहेगा। क्या पिछले कुछ वर्षों में हमने अमेरिका के साथ जो संबंध विकसित किए हैं, अमेरिकी राष्ट्रपति की ओर से यह सुनने के लिए कि ‘भारत कोविड के आंकड़े छिपा रहा है’?

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