जातीय जनगणना का मुद्दा बना बीजेपी के गले का कांटा, जाति का कार्ड खेलने वाली पार्टी मुंह चुराने पर मजबूर
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी जाति का कार्ड खेलती तो रहती है लेकिन जातीय जनगणना कराने से मुंह चुरा रही है, जबकि कई प्रमुख विपक्षी दल इसकी मांग कर रहे हैं। असल में, इस तरह की जनगणना से कोटे को ठीक ढंग से निर्धारित करने में भी सुविधा रहेगी।
कारवां को दिए इंटरव्यू में ओम प्रकाश राजभर ने 2017 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले और बाद में अमित शाह के साथ हुई कई बातचीत के बारे में जानकारी साझा की है। अमित शाह तब बीजेपी के अध्यक्ष थे और उनके इस आश्वासन के बाद सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष राजभर बीजेपी के सहयोगी बने थे कि वह राज्य में किसी ओबीसी को मुख्यमंत्री बनाने में मदद करेंगे। शाह ने यह भी भरोसा दिलाया था कि सरकार गठन के छह माह के भीतर वह ओबीसी आरक्षण में कोटे की राजभर की मांग को पूरा कर देंगे। लेकिन हकीकत कुछ और ही रही, मानो ये सब तो वादे थे और वादों का क्या!
अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण का प्रावधान है और राजभर तर्क देते रहे हैं कि ओबीसी का भी वर्गीकरण तीन खंडों- पिछड़ा, ज्यादा पिछड़ा और अति पिछड़ा- में किया जाना चाहिए। उनका कहना है कि ओबीसी आरक्षण में अति पिछड़ों का 11 फीसदी, ज्यादा पिछड़ा वर्ग को 9 फीसदी और ओबीसी में अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति वालों का 7 फीसदी कोटा होना चाहिए। लेकिन सेवानिवृत्त न्यायाधीश राघवेंद्र कुमार की अध्यक्षता में उपजातियों और कोटा के मानक तय करने के लिए समिति बनाने के बाद भी वादा पूरा नहीं किया गया।
समिति द्वारा रिपोर्ट सौंपे जाने के बाद भी जब कुछ नहीं हुआ तो राजभर ने दावा किया कि उन्होंने अमित शाह से दोबारा मुलाकात की है। इस बार शाह ने उनसे कहा कि योजना को लाग नहीं किया जाएगा क्योंकि तब यादव, पटेल और जाट परेशान हो जाएंगे। इस पर राजभर ने पूछा कि अगर बिंद, निषाद, प्रजापति, सैनी या राजभर जैसी पिछड़ी जातियां नाराज हो गईं तो? उनका दावा है कि शाह ने उनसे कहा कि वे उनकी चिंता न करें। राजभर ने शाह के हवाले से कहा, ‘हमारे पास शराब और चिकन है... उन्हें खरीदा जा सकता है।’
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में तब बमुश्किल छह महीने दूर थे और राजभर ने फिर से ओबीसी मुख्यमंत्री की अपनी मांग दोहराई। बीजेपी के साथ फिर गठबंधन के लिए राजभर ने जो पांच शर्तें रखी थीं, उनमें यह भी एक थी। उन्होंने दो साल पहले बीजेपी से नाता तोड़ लिया। अलग होने के बाद राजभर ने बीजेपी पर पाखंड का आरोप लगाते हुए कहा था कि हर चुनाव से पहले ओबीसी और दलितों को याद दिलाया जाता है कि वे हिंदू हैं जबकि चुनाव खत्म होने के बाद ये नौनिया और निषाद हो जाते हैं।
पिछले महीने केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार से साफ हो गया कि बीजेपी जातिगत गणित को ठीक करने की जुगत में है। सरकार ने जमकर प्रचारित किया कि केंद्र में अब 27 ओबीसी मंत्री हैं, जबकि 2019 में केवल 13 थे। लेकिन लगता तो नहीं कि इसने कार्यकर्ताओं और विद्वानों को प्रभावित किया। वे सवाल करते हैं कि अगर केंद्रीय मंत्रियों की जातिगत पहचान को सार्वजनिक तौर पर उपलब्धि के रूप में दिखाया जा सकता है तो न्यायाधीशों, कुलपतियों और अन्य सरकारी अधिकारियों का क्यों नहीं? निजी क्षेत्र, न्यायपालिका, मीडिया, निजी विश्वविद्यालयों, बॉलीवुड या खेल में तो कोई आरक्षण नहीं है। अगर जातीय पहचान की इतनी अहमियत है तो इन क्षेत्रों में जातीय जनगणना क्यों नहीं कराई जाती?
बीजेपी चुनाव जीतने के लिए धर्म और जाति- दोनों के कार्ड खेलती है, यह छिपी बात नहीं। यह भी है कि जातीय जनगणना और आरक्षण के मुद्दों पर यह कभी इस नाव, तो कभी उस नाव पर पैर रखती रही है। सामाजिक-आर्थिक आंकड़े 2011 की जनगणना के हिस्से के रूप में जातीय आंकड़े एकत्र किए गए थे। लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार ने इसका खुलासा नहीं किया।
मौजूदा रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने 2018 में कहा था कि 2021 की जनगणना में जातीय जनगणना भी शामिल होगी। लेकिन संसद के वर्तमान मानसून सत्र में सरकार की ओर से सूचित किया गया है कि जातीय जनगणना कराने की उसकी कोई योजना नहीं है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जातीय जनगणना कराने की मांग कर रहे हैं, लेकिन बीजेपी ने आधिकारिक रूप से अभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। लेकिन वह स्पष्ट ही असहज है क्योंकि उसे डर है कि इससे भानुमती का पिटारा खुल सकता है।
विभिन्न समूहों द्वारा श्रमसाध्य रूप से संकलित आंकड़े बताते हैं कि ऊंची जातियों के लोगों को सरकारी नौकरियों का बड़ा हिस्सा मिलता रहा है। नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल (2014-19) के दौरान ऐसी ही एक सूची में दावा किया गया था कि सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय के 700 कर्मचारियों में से 254 यानी 36% ब्राह्मण थे।
1931 के बाद से ही जाति के आंकड़े जनगणना का हिस्सा नहीं रहे हैं। 1941 में ये आंकड़े एकत्र जरूर किए गए लेकिन जारी नहीं किए गए। लेकिन 1931 के आंकड़ों के आधार पर जनसंख्या में अनुसूचित जातियों का प्रतिशत 15 और अनुसूचित जनजातियों का 8 से कुछ कम माना जाता है। मंडल आयोग के अनुमान के मुताबिक, जनसंख्या में ओबीसी का प्रतिशत 52 है। इन आंकड़ों को देखते हुए 74% भारतीय या तो ओबीसी या एससी और एसटी में आते हैं। यदि इस आंकड़े में अल्पसंख्यकों का प्रतिशत जोड़ दिया जाए, तो उच्च जातियों का प्रतिशत 10% से भी कम हो जाएगा। क्या यही कारण है कि सरकार जातिगत जनगणना से पीछे हट रही है?
केंद्र सरकार ने 29 जुलाई, 2021 को मेडिकल सीटों के अखिल भारतीय कोटे (एआईक्यू) में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत और उच्च जातियों के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की। प्रधानमंत्री ने ‘खबर’ ट्वीट करते हुए दावा किया कि इससे पांच हजार से ज्यादा यवुाओं को फायदा होगा। लेकिन सरकार और मुख्यधारा की मीडिया ने यह बात छिपा ली कि केंद्र सरकार ने 2017 से एआईक्यू में आरक्षण की अनुमति से इनकार कर दिया था क्योंकि डीएमके, आरजेडी और कांग्रेस सहित कई राजनीतिक दलों ने आरक्षण की मांग कर दी थी।
सरकार ने यह जानकारी भी छिपाई कि जुलाई, 2020 में मद्रास हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार को एआईक्यू सीटों में ओबीसी के लिए 50% आरक्षण सुनिश्चित करने का निर्देश दिया था और इसे अक्टूबर में सुप्रीम कोर्ट ने भी बरकरार रखा। बहरहाल, इस फैसले के कारण ट्विटर पर प्रधानमंत्री को तीखी प्रतिक्रिया झेलनी पड़ी और लोगों ने ओबीसी आरक्षण वापस लेने की मांग की।
उधर, तमिलनाडु सरकार ने मद्रास हाईकोर्ट को बताया कि केंद्र सरकार का एकतरफा फैसला उसे मंजूर नहीं। वहीं, अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल आर. शंकरनारायणन ने हाल ही में अदालत से कहा है कि कुल आरक्षण 50 प्रतिशत से ज्यादा नहीं हो सकता इसलिए अकेले ओबीसी को 50 प्रतिशत देना मराठा आरक्षण मामले में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ होगा।
मद्रास हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश संजीव बनर्जी और न्यायमूर्ति पी. आदिकेसावुलु की पीठ ने तब बताया कि केंद्र के 29 जुलाई, 2021 के आदेश के अनुसार ओबीसी के लिए 27, एससी के लिए 15, एसटी के लिए 7.5 और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 10 फीसदी आरक्षण कुल मिलाकर 59.5 फीसदी हो जाता है। पीठ ने पूछा कि क्या 50 प्रतिशत में ईडब्ल्यूएस को किया गया आवंटन शामिल है? पीठ ने केंद्र सरकार से कहा कि वह 69 प्रतिशत आरक्षण के अदालती आदेश का पालन करे क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने भी इसकी पुष्टि की थी।
देश में पहचान की राजनीति दोराहे पर है। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि जाति और जाति आधारित राजनीति का बदशक्ल चेहरा बना रहने वाला है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने हाल ही में रिपोर्ट दी है कि टोक्यो ओलंपिक खेलों में भारतीय महिला हॉकी टीम की हार के बाद ऊंची जाति के पुरुषों ने पटाखे फोड़े और हरिद्वार में एक खिलाड़ी वदंना कटियार के परिवार के सदस्यों पर जातिगत टिप्पणियां कीं। राजस्थान के दैनिक भास्कर की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पुलिस ने जाति प्रमाण पत्र बनाने के आरोप में बीजेपी पार्षद सहित दो लोगों को गिरफ्तार किया है। मजे की बात यह है कि उन्होंने ओबीसी जाति मेहरत के यवुकों को राजपूत होने का प्रमाण देने के लिए 12-12 हजार रुपये लिए थे।
आम तौर पर, उच्च जाति के पुरुषों को ओबीसी घोषित करने के लिए पैसे देकर प्रमाणपत्र बनवाने की बात सामने आती रही है, लेकिन यहां उल्टा ट्रेंड दिखता है। ये प्रमाणपत्र सेना में नौकरी के लिए बनवाए गए थे। राष्ट्रपति अंगरक्षक दल समेत सेना में ऐसे कई रेजिमेंट हैं, जिनमें ऊंची जाति के लोगों की ही भर्ती होती है। इस उच्च जाति आरक्षण को चुनौती भी दी गई लेकिन प्रथा जारी है।
राजभर और अन्य ओबीसी नेता कहते हैं कि कोई नहीं जानता कि सरकार ने किस आधार पर सवर्ण जातियों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10% आरक्षण तय किया। इसके अलावा, उच्च जाति में प्रति वर्ष 8 लाख रुपये तक की कमाई और पांच एकड़ तक जमीन रखने वाले परिवारों को आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग का माना जाता है। लेकिन इतना ही पैसा कमाने या जमीन रखने वाले एक ओबीसी या दलित को समृद्ध माना जाता है! सरकार पहचान के इस जटिल और विवादास्पद मुद्दे को लटकाते हुए निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन पर ध्यान केंद्रित करना चाहती है। लेकिन क्या वह इस गुत्थी को सुलझाए बिना ऐसा कर सकती है?
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