वक्त-बेवक्त: कठुआ की हैवानियत को बेमतलब की बहसों में उलझाने की कोशिश

कठुआ के प्रसंग में लड़की का नाम न उजागर करने की राजनीति भी पारदर्शी है। वह इस क्रूरता को बलात्कार तक ला कर खत्म कर देना चाहती है, जबकि उसकी हत्या पर हमारा ध्यान टिका रहना चाहिए।

फोटो: सोशल मीडिया 
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अपूर्वानंद

जम्मू कश्मीर के कठुआ में जिस 8 साल की लड़की के साथ हिंसा हुई, जिसका मतलब अपहरण, बलात्कार और आखिरकार उसकी हत्या है, उसका नाम न उजागर करने के लिए कहा गया। जिन समाचार पत्रों और टेलीविजन चैनलों ने उसका नाम लिया था, उन्हें जुर्माना भी किया गया। दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस मामले में उन खबरों का स्वतः ही संज्ञान लिया। जिनमें उस लड़की का नाम दिया गया था। अदालत ने पोस्को कानून के उस प्रावधान का हवाला दिया। जिसमें यौन हिंसा की शिकार व्यक्ति की निजता की रक्षा के लिए उसका नाम प्रचारित करने पर पाबंदी है।

अदालत की यह मानवीय तत्परता हृदयस्पर्शी है। अगर एक मामले में अदालत स्वत: एक अन्याय देख लेती है तो उसके महत्त्व को इसलिए नहीं खारिज किया जा सकता कि दूसरे मामलों में उसका ध्यान क्यों कहीं और भटका रहता है। एक बड़े समाचार पत्र ने अपने मुखपृष्ठ पर इस खबर की सुर्खियां लगाई कि कठुआ की लड़की के साथ कोई बलात्कार नहीं हुआ है, ऐसा उसकी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट कहती है। यह सरासर झूठ था और इरादतन की गई दुष्टता थी। लेकिन इस अपराध को मीडिया की आजादी मानकर रफादफा कर दिया गया। यह दुष्प्रचार का अपराध था और वह भी ऐसे गंभीर अपराध के मामले में। लेकिन अदालतें क्या हर छोटे मोटे मामले में दखल देने के लिए बनी हैं?

अदालत के अलावा राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने भी हमें चेतावनी दी कि लड़की का नाम हम नहीं ले सकते। आयोग की इस चौकस मुद्रा के लिए उसे भी धन्यवाद देना चाहिए। लेकिन उसके पहले हम जरा यह पूछ लें कि उस लड़की का नाम बताने की ज़रूरत ही क्यों पड़ी और वह कारण क्या था? क्या उस प्रसंग में आयोग ने जम्मू कश्मीर या केंद्र सरकार को कोई नोटिस भेजा? क्या उसने यह पूछा कि आखिर 8 साल की एक बच्ची, जो घुमंतू, आदिवासी मानीजाने वाली मुसलमान बकरवाल समुदाय की लड़की थी, उसे गायब हो जाने एक हफ्ते के बाद तक क्यों नहीं खोजा जा सका? क्या उस दौरान तो वह जिंदा थी? क्यों उसकी जिंदगी बचाई न जा सकी? आयोग को लड़की की जिंदगी से ज्यादा उसकी मरने के बाद की इज्जत का खयाल है। कृष्ण कुमार ने हिन्दुस्तान टाइम्स में ठीक ही क्षोभ व्यक्त किया है कि ऐसे आयोग को बंद कर देना ही उचित है जिसकी मानवीयता अवसरवादी और छलपूर्ण है।

हमने इस आयोग को उस समय सोते हुए पाया है जब सामूहिक हिंसा के चलते बच्चे अपने गांव-घर से बेदखल कर दिए गए या कई बार तो मार ही डाले गए। उनका अपने घरों में सुरक्षित रहने और वह सब करने का अधिकार जो दूसरे अधिक सौभाग्यशाली बच्चे इस्तेमाल कर पा रहे हैं, इतना बड़ा नहीं कि आयोग उस पर हिले डुले। फिर तो वह राजनीतिक हो जाएगा। इसलिए गुजरात हो या मुजफ्फरनगर या अटाली जैसी जगह, उसके बच्चे चूंकि ज़िंदा बच गए, इसलिए कैसे जीते हैं, यह आयोग के लिए विचारणीय भी नहीं। छत्तीसगढ़ की उन बच्चियों की कोई इज्जत भी नहीं, कोई कीमत भी नहीं जो राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर निरंतर राजकीय हिंसा की शिकार होने को अभिशप्त हैं।

ये दोनों निर्णय अपने इरादे में इतने पारदर्शी हैं कि अलग से इनकी व्याख्या की आवश्यकता नहीं। लेकिन कठुआ के प्रसंग में लड़की का नाम न उजागर करने की राजनीति भी उतनी ही पारदर्शी है। वह इस क्रूरता को  बलात्कार तक ला कर खत्म कर देना चाहती है जबकि उसकी हत्या पर हमारा ध्यान टिका रहना चाहिए। इसपर भी कि उस लड़की का अपहरण बलात्कार के लिए जितना नहीं, उतना उसकी बिरादरी को आतंकित करने के लिए किया गया था।

बलात्कार हुआ कि नहीं, इसपर जो बहस चल रही है, उसके पीछे भी वही निगाह है जिसने लड़की की इज्जत और निजता की रक्षा का जिम्मा उसके मार दिए जाने के बाद उठाया है।

ज्योति सिंह को निर्भया कहकर खुद को एक छलावा देने की कोशिश इस समाज ने की। उस लड़की की निर्भयता का तथ्य, यह कि वह अंतिम दम तक लड़ती रही बार-बार उछाला गया। जिससे पूरे प्रसंग में एक रोमांचक नाटकीयता बनी रहे। यह कि उसने मर जाने तक संघर्ष किया सबको याद रहना चाहिए। लेकिन हमारी नारीवादी मित्र हमें जाने कब से याद दिला रही हैं कि स्त्री का ज़िंदा रहना कहीं अधिक ज़रूरी है। अगर वह इस हिंसा के बीच जान बचा सकेगी, तो ऐसा करना चाहेगी। लेकिन पुरुष के लिए स्त्री की इज्जत ज्यादा ज़रूरी है जिसकी रक्षा के लिए वह बना हुआ है और जो स्त्री की कही जाती है लेकिन है पुरुष की दरअसल। इसलिए उसके मन में बलात्कार के बाद बच गई स्त्री के लिए वह सम्मान नहीं जो उस दौरान जान गंवा देने वाली स्त्री के लिए होता है। अगर कोई ऐसी विधि होती कि हम ऐसी सारी मार डाली गई औरतों से बात कर पाते तो वे शायद यह कहतीं कि वे उस घृणित अनुभव से गुजरने के बाद भी जिदा रहना चाहती थीं।

कठुआ के प्रसंग में याद करें कि अपनी लड़की का नाम छिपाने का कोई आग्रह उसके माता-पिता, समुदाय ने नहीं किया। उसकी तस्वीर भी उन्होंने मीडिया को दी। वे चाहते थे और हैं कि उनकी लड़की के क़त्ल का इन्साफ हो। लेकिन यह कत्ल कोई मामूली कत्ल नहीं है। इसके पीछे उस लड़की को जन्म देने वाले पूरे समुदाय के उस इलाके से सफाए का इरादा है। इसकी हिंसा कहीं बड़ी है। अभी तक हमारे पास कोई कानून नहीं जो इसके लिए इन्साफ का तरीका सुझा सके। यह एक अकेली लड़की की इज्जत का मसला नहीं है, उसके समुदाय के इस मुल्क में इज्जत और हक से जीने का मसला है। उनके इस संवैधानिक अधिकार पर जो हमला हो रहा है, उसे हम बलात्कार पर तकनीकी-कानूनी और मनोवैज्ञानिक बहस के घटाटोप से ढंक न दें।

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Published: 11 May 2018, 4:00 PM