नई शिक्षा नीति लाने का ख्याल अपने आप में अफलातूनी, पर क्या यह समय भी कहीं से उचित था?
पिछले एक दशक में स्कूलों में जिस तेजी के साथ निजी क्षेत्र की भमूिका बढ़ी है, उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि मातृभाषा में शिक्षा देने की कोई भी कोशिश सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले और ज्यादा खर्च करके निजी अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के बीच गहरी खाई पैदा करेगी।
इस बात का अंदाजा तो हो ही रहा था कि लगभग आधा कार्यकाल पूरा करते-करते इस सरकार को नई शिक्षा नीति लाने का अफलातूनी खयाल आएगा। इसलिए एनडीए शासन के छठे वर्ष में, जब देश अपनी स्मृति की सबसे बड़ी महामारी का सामना कर रहा है, ढोल-नगाड़ों की थाप के साथ अचानक एक और (तीसरी) नई शिक्षा नीति (एनईपी) पेश कर दी जाती है।
सार्वजनिक करने से पहले इसे संसद के सामने नहीं रखने के लिए सरकार बड़ी तत्परता के साथ अपना बचाव करती है। तर्क देती है कि उसने ‘विशेषज्ञों’ (निश्चित ही यहां बात दक्षिणपंथियों की हो रही है) के साथ लंबे समय से विचार-विमर्श किया है। जाहिर है, इसकी एकमात्र चिंता राष्ट्रवाद में डूबे युवा भारतीयों की एक ऐसी नई पीढ़ी का निर्माण करना है जो विज्ञान और तकनीक द्वारा वैश्विक स्तर पर पेश चुनौतियों का सामना करने के अभिनव तरीके खोज पाएं।
हिंदी की एक कहावत हैः अंधे की जोरू, सबकी भाभी। भारत के मामले में अंधे की वह ‘जोरू’ हमारी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की विशाल सरकारी व्यवस्था है। स्मार्ट इंडिया हैकाथॉन में अपने संबोधन के दौरान प्रधानमंत्री ने बड़े उद्भाषित स्वर में नई शिक्षा नीति के बारे में बात की। उन्होंने कहा कि पहले की शिक्षा नीतियों के विपरीत 2020 की नई शिक्षा नीति में बहुभाषावाद पर जोर दिया गया है।
साथ ही उन्होंने कहा कि इसमें प्राथमिक कक्षाओं में स्थानीय भाषा में पढ़ाई अनिवार्य की जाएगी, जिससे बच्चों को चीजें बेहतर तरीके से समझ में आ सकें और इससे तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने के चलन से छुटकारा मिलेगा और बच्चों को सीखने, सवाल करने और उनका समाधान खोजने में मदद मिलेगी। वह गरजते हैं- यह नीति नहीं, एक युद्ध नीति है। फिर उन्होंने टैगोर, आर्यभट्ट और दा विंची के उदाहरणों के माध्यम से बताया कि नई नीति ऐसा शैक्षिक माहौल तैयार करेगी, जिसमें छात्रों को अपने जुनून के पीछे भागने और यहां तक कि संगीत के साथ गणित का अध्ययन करने की स्वतंत्रता होगी।
एएसईआर की उत्कृष्ट सालाना रिपोर्ट और वास्तविक आंकड़ों से निकलने वाली सच्चाई बताती है कि हमारी सरकारी स्कूल प्रणाली में गंभीर खामियां हैं। इसलिए 2020 में भारत की जमीनी हकीकत से परिचित कोई भी व्यक्ति जब इस मसौदे को पढ़ता है, तो उसे यह एक ऐसा अति-महत्वाकांक्षी अभ्यास प्रतीत होता है जो बौद्धिक रूप से परिपक्व दिखने की भरसक कोशिश के बाद भी बेतुका ही साबित होता है।
इसके साथ एक और भी बात पर गौर करना चाहिए- यह दरअसल नया भी नहीं है। उदाहरण के लिए बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाने का विचार तो 60 के दशक से बार-बार सामने आ खड़ा होता रहा है। पिछले एक दशक में स्कूलों में जिस तेजी के साथ निजी क्षेत्र की भमूिका बढ़ी है, उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि मातृभाषा में शिक्षा देने की कोई भी कोशिश सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले और ज्यादा खर्च करके निजी अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के बीच एक गहरी खाई पैदा होगी।
हम सभी जानते हैं कि 2020 में कॉलेज स्तर की ज्यादातर पढ़ाई, विशेष रूप से विज्ञान और व्यावसायिक विषयों की, अंग्रेजी में ही होती है। इसलिए स्थानीय भाषा में पढ़ने वाले छात्र भले आईआईटी और आईआईएम में दाखिले के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षाओं में पास भी हो जाएं, लेकिन अंग्रेजी में हाथ तंग होने की वजह से वे खुद को कमतर ही पाएंगे। इसके अलावा डिजिटल पढ़ाई की आज की दुनिया में अंग्रेजी निर्विवाद रूप से भारत और विदेशों में किसी अच्छे कॉलेज में दाखिले से लेकर सम्मानजनक रोजगार पाने की एक सशक्त गारंटी है।
पीएम चाहते हैं कि कॉलेज के छात्र नौकरी खोजने वाले न बनकर नौकरी देने वाले बनें। इस तरह की बात करना बहुत आसान है। ऐसे समय जब दुनिया भर में नौकरियां खत्म हो रही हैं, बैंक पैसे उधार देने में डरने लगे हैं और तमाम मां-बाप अपने बच्चों को निजी स्कूलों से हटाने को मजबूर हैं, एनईपी विदेशी विश्वविद्यालयों को नए भारत में अपने परिसर खोलने की अनुमति देती है। अब उनसे यह पूछने की हिम्मत भला कौन कर सकता है कि इस तरह की शिक्षा का लाभ लेने के लिए कितनी फीस देनी पड़ेगी?
कड़वी सच्चाई तो यह है कि अच्छा वेतन देने के बाद भी छोटे शहरों और गांवों में बहुत कम अच्छे शिक्षक हैं और इसके अलावा पढ़ाई-लिखाई के जरूरी सामान जिसमें आज स्मार्टफोन और लैपटॉप भी शामिल हो गए हैं, की उपलब्धता भी नहीं हो पा रही है। नोटबंदी और तालाबंदी के कारण परिवार की आय बुरी तरह प्रभावित हुई है और इसका सबसे ज्यादा खामियाजा लड़कियों को उठाना पड़ रहा है।
सरकारी स्कूलों में पढ़ाई बीच में हो छोड़ देने वाली लड़कियों की बढ़ती संख्या ने शिक्षाविदों को चिंतित कर दिया है। हमारे आसपास ऐसी तमाम डरावनी कहानियां बिखरी पड़ी हैं, जिसमें कोई पिता इसलिए अपनी गाय बेच देता है कि बच्चे की ऑनलाइन पढ़ाई के लिए स्मार्ट फोन खरीद सके तो कोई बच्चा इसलिए खुदकुशी कर लेता है कि उसका परिवार उसके पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन खरीद नहीं सकता।
विरोधाभासों से भरी और दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली में आमूल-चूल बदलाव के लिए महामारी का समय निश्चित ही उपयुक्त नहीं होता। प्राथमिक कक्षाओं में मातृभाषा में पढ़ाई की बात सुनने में बड़ी अच्छी लगती है, लेकिन नई शिक्षा नीति में कभी यहां-कभी वहां तैनात रहने वाले सैनिकों, घुमंतू जातियों और ट्रांसफर वाली नौकरी करने वाले मां-बाप के लाखों-लाख बच्चों की मातृभाषा आखिर कैसे परिभाषित होगी?
ऐसे में भाषाई प्रयोग की शिकार एलाइजा डुलिटल (बर्नार्ड शॉ के नाटक “पिगमेलियन” पर बनी फिल्म “माई फेयर लेडी” की पात्र) के गुस्से की ओर बरबस ध्यान जाता है। अपनी बात मनवाने की कोशिश कर रहे प्रोफेसर से वह कहती है- “मैं तो अब आपके ही देश में रहने वाली एक बच्ची हूं। मैं अपनी भाषा भूल चुकी हूं और केवल आपकी भाषा में ही बात कर सकती हूं।”
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