मृणाल पाण्डे का लेखः लगातार खोखला होता संघीय लोकतंत्र का हिमालय, वर्तमान शासन ने जनता को काफी निराश किया
यह सरकार जनता को साफ-सुथरे शासन, युवाओं को रोजगार, हुनर प्रशिक्षण, भरपूर विकास और सबको साथ ले कर चलने के सुखद आश्वासनों के साथ आई थी। लेकिन जो भव्य बहुमत उसको मिला था, उसकी तुलना में उसने जनता को काफी निराश किया है।
चार फरवरी, 2022 को भारत के सबसे बड़े स्टॉक नियामक संस्थान- सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड (सेबी) ने 2013-17 के बीच एनएसई (नेशनल स्टॉक एक्सचेंज) में चले एक बड़े भीतरी घोटाले (‘एल्गो स्कैम’) के संदर्भ में पांच पूर्व कर्मचारियों को दोषी करार दिया है। जो तथ्य सेबी के 190 पन्ने के आदेश से इस मसले की बाबत निकल कर आ रहे हैं, वे किसी तिलिस्मी कथा से कम विस्मयकारी नहीं। इससे पहले भी 2015 में किसी अनाम व्हिसिल ब्लोअर ने भीतरी धांधलियों की तरफ संस्था का ध्यान खींचा था। उसके बाद 2017 के पास संस्था का प्रस्तावित आईपीओ लाने की योजना को स्थगित करना पड़ा।
जब दोबारा मसला खुला, तो सेबी को कुछ गोपनीय दस्तावेज किसी अनधिकृत शख्स से साझा किए जाने के साक्ष्य मिले। जब जानी-मानी ऑडिट कंपनी अर्न्स्ट एंड यंग को मामले की सघन पड़ताल का जिम्मा दिया गया तो पाया गया कि एनएसई की तत्कालीन मुख्य निदेशिका चित्रा रामकृष्णन ने एनएसई के महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियों तथा फैसलों में बाजार की दशा की बाबत गोपनीय अनुमानों, व्यावसायिक योजनाओं और बोर्ड के एजेंडे सरीखे महत्वपूर्ण ब्योरों को अकल्पनीय ढंग से किसी अदृष्य अगोचर गुरु (जिनसे उनका नवनियुक्त निजी सलाहकार आनंद सुब्रह्मनयम की मार्फत सिर्फ ई-मेल पर ही संपर्क था) से साझा किया था।
यही नहीं, वह गुरु के आदेशानुसार ही तमाम फैसले लेती रहीं। जितना अजीब यह है, उतना ही अजीब यह भी कि एनएसई के बोर्ड ने उनकी कार्यशैली पर कोई लाल झंडी नहीं दी। ऑडिट कंपनी ने एनएसई बोर्ड द्वारा इस तरह की अफरातफरी की अनदेखी करने और सरकार को समय रहते मुख्य निदेशक की हरकतों को लेकर आगाह न करने के लिए बोर्ड की भी कड़ी निंदा की है।
एनएसई की मुख्य निदेशक ने कहा कि उन्होंने अपने अगोचर गुरु के निर्देश तले ही पहले ग्रुप ऑपरेटिंग अफसर और अपने निजी प्रमुख सलाहकार की बतौर आनंद सब्रह्मन्यम नामक अधिकारी को (अन्य समतुल्य अफसरों से कहीं अधिक भारी भरकम तनख्वाह पर) नियुक्त किया था। यह नियुक्ति गुरु के आदेश से बिना आवश्यक औपचारिकताएं निभाए की गई। शीघ्र ही उन्होंने गुरु जी के निर्देश से सुब्रह्मन्यम को सप्ताह में चार दिन काम करने को अधिकृत किया, फिर बतौर पार्टटाइम कर्मचारी उनको एनएसई के नियमित कर्मचारियों की फेहरिस्त से हटवा दिया गया।
इस तरह के विशेष चयन तथा अधिकारों से लैस हए आनंद सब्रह्मन्यम को सीधे मुख्य निदेशिका तक जाने, उनसे तमाम तरह की गोपनीय योजनाओं और कंपनी के बनियादी ढांचे में फेरबदल संबंधी जानकारियां पाकर गुरु जी से साझा करने और गुरु के आदेश से कई विवादित फैसले लिवाने की सहज छूट मिल गई। अपने बचाव में बड़ी मासूमियत से मोहतरमा ने कहा कि वह सुदूर हिमालय की गुफा में तप करने वाले अपने आध्यात्मिक गरु के आदेशों का बीस बरस से पालन करती रही हैं। इन्हीं अगम अगोचर बाबा जी ने जब उनको सब्रह्मन्यम की नियुक्ति का आदेश दिया, तो उसे टालना ममुकिन न था।
किसी बड़े दफ्तर के विवादास्पद मसलों पर एक प्रोफेशनल फोरेंसिक ऑडिट की भयावह बिजली जब इस तरह चमकती है, तो अचानक उसकी कौंध में संस्था, सरकार तथा जनता- दोनों को अपनी ठोस और भरोसेमंद समझी जानेवाली इकाइयों के भीतरी खोखलेपन और शीर्षस्थ लोगों के बीच एक नापाक गठजोड़ से साक्षात्कार होता है। जो खाइयां-खंदकें और कीमियागिरी इस पड़ताल से अब जाकर बाहर आई हैं, उससे जाहिर है कि एनएसई का यह मसला अनेक स्तरों वाला है।
वित्तीय अनियमितताओं की जांचकर्ताओं के लिए ई-मेल की चेन से इन दिनों यह जानना सुगम हो गया है कि किसने कब, किससे, किस तरह की जानकारियां साझा कीं और लाभ किस तरह उठाए गए। एनएसई की ई-मेल जिसका रिश्ता हिमालयीन गुरु से जुड़ा बताया जा रहा है, अपनी तरह की दुनिया की सबसे बड़ी संस्थाओं में से एक- तीन ट्रिलियन की मिल्कियतवाली संस्था की भीतरी दशा की गाथा है। उसकी शीर्ष अधिकारी का आध्यात्मिक गुरु के आदेश का हवाला देना उस संस्था ही नहीं, एक अजीब राजकाज शैली पर भी एक संगीन टिप्पणी है जो पिछले कुछ सालों में तमाम संवैधानिक व्यवस्थाओं और अनुशासित संस्थानों की नींव में जब चाहे धर्म, अध्यात्म अथवा परंपरा के नाम पर कुल्हाड़ी चला देती है।
मसलन, अभी हमने किसी राज्य के मुख्यमंत्री को संविधान की व्यवस्था और अपने विधानसभा चुनावी मैनीफेस्टो को शीर्षासन कराते हुए जनता से वादा करते सुना कि बस उनका दल चुनाव जीत जाए, तो वह राज्य में कॉमन सिविल कोड लागू करा देंगे। अन्य मुख्यमंत्री राज्य के स्कूलों को हिजाब बंद कराने को ले कर बीच-बचाव करने की बजाय स्कूल-कालेज बंद करा देते हैं। लो कल्लो बात। दूसरी तरफ, तरह-तरह के बाबा और साधु-संत सार्वजनिक गोष्ठियों में खास समूहों का खून बहाने का नारा बुलंद कर देते हैं और राज्य की या केन्द्र की पेशानी पर खास बल नहीं पड़ते। वंशवाद का मंच पर धुर विरोध करनेवालों की सरकार में तमाम शाही या राजनीतिक वंशों के सदस्य मजे से माला और शॉल पहन कर सम्मानित सदस्य बनाए जा रहे हैं और बड़े पैमाने पर देश के राजकाज ही नहीं, खेल के मैदान तक गोदी मीडिया के सदस्य, वीआईपी संतति या उनके परिवार तमाम तरह की महत्वपूर्ण जगहों पर बिठाए जाकर बिना खास अर्हता के भी हस्तक्षेप करते देखे जा सकते हैं।
मोटा कारण यह है कि संघीय लोकतंत्र का हिमालय जो संविधान की धरती पर एक मानदंड बनकर तीन चौथाई सदी से खड़ा था, तेजी से खोखला हो चला है। जो आस्थाएं और विश्वास हमारे संविधान की, राज्यों के परिसंघ के सहअस्तित्व की गारंटी थे, वे लगातार हमारी राजनीति से गायब होती जा रही हैं। ऐसे में भारत एक राष्ट्र है जो हमसे-तुमसे, देश की जनता से बड़ा है, इसका निरंतर जाप देश की एकता बचाए रखने में कारगर कैसे होगा? एकता के लिए नेताओं को कई ऐसे ठोस काम करने होते हैं जिनका एकता से प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। मसलन, सारे देश में बेहतरीन फैकल्टी का निर्माण करते हुए शिक्षा के सभी परिसरों में समान शैक्षिक गुणवत्ता कायम कराना। इतिहास का पुनर्लेखन कराते हुए भी ऐतिहासिक तथ्यों के साक्ष्य और इतिहासकार की ईमानदारी की कड़ाई से जांच ताकि अपात्र लेखक राजनैतिक विचारधारा विशेष धुकाने के लिए बहुमूल्य ऐतिहासिक विरासत से खिलवाड़ न करें।
इन दिनों कई नई किताबें छपते ही लेखक पर बौद्धिक चोरी का संगीन आक्षेप लग जाते हैं जो बहुत संगीन तथा शर्मनाक दोनों है। विश्वविद्यालय के कुलपतियों या सेबी जैसी संस्थाओं के प्रमुख के चयन का पैमाना एक और नया सरदर्द बन रहा है। चयन का सर्वमान्य आधार यह रहा है कि व्यक्ति विशेष के प्रोफेशनल काम का भारत तथा विश्व की शिक्षाविद बिरादरी में कितना मोल और आदर है। यह नहीं कि वे कितने भक्तिभाव से किसी निजी या सरकारी आध्यात्मिक गुरु के कह ने से गोपनीयता की मर्यादा तोड़ सकते हैं अथवा गाय या गोबर पर शोध के लिए नया विभाग बनाने को तत्परता से हामी भर देते हैं।
मौजूदा सरकार जनता को साफ-सुथरे शासन, युवाओं को नए रोजगार, हुनर प्रशिक्षण, भरपूर विकास और सबको साथ ले कर चलने के सुखद आश्वासनों के साथ आई थी। लेकिन जो भव्य बहुमत उसको मिला था, उसकी तुलना में उसने जनता को काफी निराश किया है। अनेक बदजुबान बहुजुबान बाबाओं और अपरिपक्व और संविधान के मामले में लगभग निरक्षर सदस्यों ने उस क्रांति को कहीं दूर ठेल दिया जिसके लिए देश की बहुसंख्य जनता राजी थी। यही व्यापक और गहरी देशव्यापी निराशा दक्षिण में हिजाब प्रतिबंध पर और उत्तर में किसानों, बेरोजगार छात्रों के आंदोलन के रूप में बार-बार भड़क उठती है। संक्षेप में यह उपद्रव, चुनावी भाषणों में भीषण गाली-गलौज और समर्थकों के बीच मारपीट, एनएसई या गुजरात की जहाज निर्माता कंपनी एबीजी शिपयार्ड लिमिटेड के बीच से निकलते गंभीर वित्तीय तथा प्रशासनिक घोटालों के ब्योरे, यह केन्द्र की वित्तीय, शिक्षा या रोजगार नीतियों की विफलता नहीं व्यक्त करते। वे यह बता रहे हैं कि भारत में मौजूदा राजनीति असफल हो रही है और बैंकिंग से बाजार नियामक संस्था तक और शैक्षिक से ले कर सरकारी उपक्रमों तक देश की लगभग सब बड़ी-बड़ी संस्थाएं किस कदर खोखली हो चुकी हैं।
राजनीति का भारतीय जनता के जीवन-मरण के सवालों से लगता है कोई ताल्लुक ही नहीं बचा। और उसी तरह देश के दस फीसदी अमीर हैं। वे लगातार इस चारों तरफ फैली गरीबी और अफरातफरी के बीच और भी अमीर, और भी ग्लानिरहित होते जा रहे हैं। जिस तरह की शानोशौकत का प्रदर्शन वे दिन रात सोशल मीडिया पर कर रहे हैं, उससे जाहिर है कि वे खुद को भारत की 90 फीसदी जनता की दुनिया का सहभागी या सारे देश का जिम्मेदार नागरिक नहीं समझते। अभी हाल में दिवंगत राहुल बजाज उन चंद पुराने कॉरपोरेट्स में थे जो देश के दिल की धड़कनों से ताउम्र जुड़े रहे और व्यवस्था की हर गलतबयानी या फैसले का मुखर विरोध करते रहे। यह नस्ल लगभग गायब होती जा रही है।
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