दिलवाले दुल्हनिया...के 'बाऊजी' की तरह सुपर सेंसर बोर्ड बनने की तैयारी में सरकार, लेकिन 'जा, जी ले अपनी जिंदगी' नहीं कहेगी

वैसे ही जैसे, ‘दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे में’ अमरीश पुरी करते हैं। बीजेपी के बाऊजी के सामने हम सब डरी-सहमी सिमरन (काजोल) बनते जा रहे हैं। फिल्म के विपरीत, वास्तविकता में इतनी आसानी से हमें कोई नहीं कहने जा रहा: “जा सिमरन जा, जी ले अपनी जिंदगी”।

फोटो: सोशल मीडिया
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नम्रता जोशी

इस साल के शुरू में जब फिल्म सर्टिफिकेशन एपीलेट ट्रिबूनल (एफसीएटी) को खत्म किया गया था, तब ही यह साफ हो गया था कि आने वाले समय में फिल्म निर्माताओं पर शिकंजा कसता जाएगा और मौजूदा व्यवस्था में कन्टेंट की कथित ‘सफाई’ और स्वआरोपित सेंसरशिप रोजमर्रा की जिंदगी का चलन बन जाएगा।

जैसे एफसीएटी को खत्म करना ही काफी नहीं था, जून के दूसरे सप्ताह केंद्र सरकार ने सिनेमैटोग्राफी एक्ट, 1952 में संशोधन की प्रक्रिया शुरू कर दी है ताकि फिल्म निर्माण पर ज्यादा नियंत्रण कर पाए और यह सब इसलिए हो रहा है कि सरकार चाहती है कि देश को क्या देखना चाहिए, यह नियंत्रण उसके पास रहे।

सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने सिनेमैटोग्राफ (संशोधन) विधेयक, 2021 का मसौदा सार्वजनिक करते हुए इसे संसद में पेश किए जाने से पहले इस पर लोगों की राय मांगी है। प्रस्तावित संशोधनों में फिल्मों के लिए आयु-आधारित वर्गीकरण, सीबीएफसी प्रमाणपत्र की वैधता को 10 साल से बढ़ाकर हमेशा के लिए करना और फिल्म पायरेसी को रोकने के प्रावधान शामिल हैं। लेकिन सबसे खतरनाक प्रस्ताव तो यह है कि फिल्म प्रमाणन के मामले में इसे बदलने की ताकत सरकार के पास होगी।

याद रखा जाना चाहिए कि इस तरह के प्रस्ताव को दो दशक पहले ही अदालतों ने रद्द कर दिया था। अब प्रस्तावित संशोधनों में इस बात का प्रावधान है कि केंद्र सरकार सिनेमैटोग्राफ अधिनियम की धारा 5 बी (1) के उल्लंघन के आधार पर सीबीएफसी के अध्यक्ष को उस फिल्म की फिर से जांच करने का निर्देश दे सकती है जिसे सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए प्रमाणित किया जा चुका हो। इस धारा के अनुसार, ‘उस फिल्म को सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए प्रमाणित नहीं किया जाएगा, अगर प्रमाण पत्र देने वाले प्राधिकारी की राय में, फिल्म या उसका कोई हिस्सा राज्य के सुरक्षा हितों (भारत की संप्रभुता और अखंडता), विदेशी राज्यों केसाथ दोस्ताना रिश्तों, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता के खिलाफ हो या इससे अदालत की मानहानि या अवमानना होती हो या किसी अपराध को अंजाम देने के लिए उकसाने की आशंका बनती हो’। मसौदे में संविधान के अनुच्छेद 19 (2) का भी हवाला दिया गया है जो नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर तर्क संगत रोक की बात करता है।


2014 की जीत के बाद सरकार ने वादा किया था कि वह फिल्म उद्योग के लिए खुला माहौल तैयार करेगी। लेकिन इसके ठीक उलट हर बीतते दिन के साथ सरकार उद्योग के लिए रोक-टोक वाले माहौल को और मजबूत करती जा रही है। एक ऐसी सरकार जिसने सेंसरशिप जैसी व्यवस्था को खत्म करके प्रगतिशील वर्गीकरण मानदंडों को लागू करने का वादा किया था, उसके लिए सुपर सेंसर बनने का यह प्रयास वाकई बेहद निराशाजनक है।

यह मसौदा सीबीएफसी जैसी संस्था की शक्ति को कमजोर करता है। क्या सरकार अपने अधीन काम कर रही किसी संस्था की क्षमता पर संदेह करती है? क्या उसे लगता है कि सीबीएफसी उसी सिनेमैटोग्राफ अधिनियम का उल्लंघन करने में सक्षम है जिसे इसके लिए अनिवार्य किया गया था? अगर सरकार को लगता है कि सीबीएफसी के फैसलों की समीक्षा करने की जरूरत है तो सरकार ने सबसे पहले एफसीएटी को क्यों खत्म कर दिया? जैसे कि अध्यक्ष की आज्ञाकारिता पर्याप्त नहीं थी, यह उनके कार्यालय को और कमजोर करने और उसे बेमानी बना देने का प्रयास है।

फिल्म निर्माता रमेश शर्मा ने ट्वीट किया, ‘20 साल बाद, केंद्र ने सीबीएफसी प्रमाणन प्राप्त फिल्मों को सेंसर करने का अधिकार वापस ले लिया। प्रसून जोशी को बेमानी बना दिया। क्या वह विरोध में इस्तीफा देंगे? फिल्म उद्योग क्या कार्रवाई करेगा?’ राकेश शर्मा अपने फेसबुक वॉल पर लिखते हैं, ‘मोदी सरकार चाहती है कि उसके पास किसी भी फिल्म को प्रतिबंधित करने, उसे वापस बुलाने, उसमें फेरबदल करने की ताकत हो, भले ही वह सीबीएफसी नामक वैधानिक संवैधानिक निकाय द्वारा प्रमाणित ही क्यों न हो। इसलिए, अब कोई भी उपद्रवी समूह मंत्रियों/अफसरों से उन फिल्मों के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग कर सकता है जो उसे ‘आपत्तिजनक’ लगती हैं!’

बीजेपी के कामकाज का यह तरीका किसी रूढ़िवादी परिवार के उस मुखिया जैसा लगता है जो आंखें दिखाकर अपनी मर्जी चलाता है। वैसे ही जैसे, ‘दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे में’ अमरीश पुरी करते हैं। बीजेपी के बाऊजी (अमरीश पुरी) के सामने हम सब डरी-सहमी सिमरन (काजोल) बनते जा रहे हैं। फिल्म के विपरीत, वास्तविकता में इतनी आसानी से हमें कोई नहीं कहने जा रहा: “जा सिमरन जा, जी ले अपनी जिंदगी”।

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