गरीबी से अधिक खतरनाक है गरीबी का एहसास, समाज और राजनीति के कारण पनपता है ये 'धब्बा'!
गरीबी का धब्बा एक जटिल सामाजिक-आर्थिक समस्या है। यह धब्बा या कलंक गरीबी से नहीं उपजता जैसा कि हमें बताया जाता है बल्कि समाज और राजनीति के कारण पनपता है।
एक नए अध्ययन के अनुसार गरीबी में गुजारा करने से अधिक कठिन है लगातार गरीबी का एहसास करना, गरीबी के कलंक को झेलना, यानि अपने मष्तिष्क में बैठा लेना कि आप इंसान नहीं बल्कि गरीब हैं। इस अध्ययन को यूनाइटेड किंगडम की एक सामाजिक संस्था, जोसफ राउनट्री फाउंडेशन ने लंकास्टर यूनिवर्सिटी के साथ सम्मिलित तौर पर किया है और इसे जोसफ राउनट्री फाउंडेशन ने प्रकाशित किया है। इसके अनुसार गरीबी का धब्बा एक जटिल सामाजिक-आर्थिक समस्या है। यह धब्बा या कलंक गरीबी से नहीं उपजता जैसा कि हमें बताया जाता है बल्कि समाज और राजनीति के कारण पनपता है।
गरीबी के इस कलंक को या फिर एहसास को हम अपने देश के उदाहरण से समझ सकते हैं। कोविड-19 के दौर के बाद बड़े तामझाम से सरकार ने 81 करोड़ से अधिक आबादी को बेहद गरीब घोषित कर मुफ्त अनाज देना शुरू किया। जाहिर है, मुफ्त अनाज ने उस दौर में देश के कुछ करोड़ बेहद गरीबों को जिन्दा रहने में मदद की होगी। पर, एक बड़ा सवाल यह है कि मोदी सरकार ने जिन 81 करोड़ से अधिक लोगों को बेहद गरीब का तमगा पहना दिया, जिनपर बेहद गरीब होने का ठप्पा लगा दिया, क्या सभी वाकई बेहद गरीब थे?
कोविड-19 के दौर के बाद से सरकारी स्तर पर, मीडिया के स्तर पर और समाज के स्तर पर देश की आबादी को सत्ता ने दो वर्गों में विभाजित कर दिया – 81 करोड़ से अधिक बेहद गरीब और लगभग 60 करोड़ आबादी जो बेहद गरीब नहीं है। यह आंकड़ा भी सत्ता ने रहस्यमय बना दिया है – बताया गया कि 18 करोड़ आबादी गरीबी से बाहर आ गयी है, पर मुफ्त अनाज 81 करोड़ लोगों को मिलता रहा, इस संख्या में कोई कमी नहीं आई। इसके बाद बताया गया कि 25 करोड़ लोग अब गरीबी रेखा से बाहर पहुंच गए हैं, पर देश के गरीबों की संख्या 81 करोड़ ही रही। इसके बाद नीति आयोग के सीईओ ने ऐलान किया कि देश में गरीबों की संख्या 5 प्रतिशत से भी कम यानि लगभग 7 करोड़ ही है, लेकिन बेहद गरीबी के नाम पर 81 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज मिलता रहा।
अब तो वर्ल्ड डाटा लैब के वर्ल्ड पावर्टी क्लॉक के अनुसार देश की महज 3.4 करोड़ आबादी, यानि लगभग 2 प्रतिशत आबादी, ही गरीब है फिर भी प्रधानमंत्री जी हरेक चुनावी रैली में जनता को बता रहे हैं कि 81 करोड़ से अधिक आबादी को मुफ्त अनाज अगले पांच वर्षों तक मिलता रहेगा। जाहिर है, देश की 81 करोड़ आबादी पर सत्ता ने बेहद गरीबी का कलंक थोप दिया है और यह कलंक उनके गरीबी से बाहर आने पर भी सत्ता द्वारा लगातार थोपा जाता रहेगा। हरेक महीने अनाज लेने के समय, हरेक योजना का लाभ उठाते समय और हरेक नीति निर्धारण में 81 करोड़ लोगो को याद दिलाया जाता है कि वे बेहद गरीब हैं। यह स्थिति गरीबी नहीं बल्कि गरीबी का कलंक है, गरीबी का एहसास है धब्बा है, और यह कलंक सत्ता ने केवल अपने चुनावी फायदे के लिए 81 करोड़ लोगों पर लगाया है।
अमेरिकी अर्थशास्त्री बॉब फीफर का एक वक्तव्य है कि हमारी जनकल्याण योजनायें जनता के जीवन को सुगम बनाने के लिए हैं गरीबी मिटाने के लिए नहीं। मोदी राज में इसी वक्तव्य का अनुपालन किया जा रहा है, सरकार 81 करोड़ लोगो को 9 वर्षो तक मुफ्त अनाज तो दे सकती है, पर उन्हें बेहतर रोजगार, स्वरोजगार या कृषि में अवसर देकर आर्थिक तौर पर इतना सशक्त नहीं करना चाहती कि उन्हें मुफ्त अनाज की जरूरत ही न पड़े। सरकार को यह पता है कि गरीबी का कलंक ढोती जनता ही सत्ता का वोटबैंक है।
गरीबी का कलंक एक गोंद की तरह काम करता है जिससे गरीबी, असमानता और आर्थिक असुरक्षा एक साथ चिपक जाते हैं और समाज में आर्थिक असमानता, स्वास्थ्य विसंगतियां और आगे बढ़ने के अवसरों में असमानता विकराल होती जाती है। फाउंडेशन के एक विशेषज्ञ, स्टीव अर्नोट के अनुसार गरीबी एक चक्रव्यूह है, जिससे बाहर निकलना आसान नहीं है – गरीब गरीबी में पैदा होते हैं, गरीबी के कारण शिक्षा और स्वास्थ्य में पिछड़ते हैं, शिक्षा में पिछडकर रोजगार में भी कम आय वाले रोजगार मिलते हैं, और अंत में आप पूरा जीवन इसी गरीबी में निकाल देते हैं। इन सबका प्रभाव गरीबों पर पड़ता है, पर उससे भी बुरा प्रभाव गरीबी के कलंक का है, गरीबी के एहसास का है, जब हरेक कदम पर सत्ता, मीडिया और समाज यह अहसास दिलाता है कि आप गरीब हैं।
अमेरिका में भी सरकारी आंकड़ों में गरीबों की संख्या बढ़ रही है, उनके कल्याण की योजनाओं का बजट बढ़ता जा रहा है, पर जिन्हें सरकार गरीब बता रही है उनमें से अधिकतर लोग अपने आप को गरीब नहीं मानते। इस अध्ययन को अमेरिका के वेक फारेस्ट यूनिवर्सिटी में कल्चरल एंथ्रोपोलॉजी की प्रोफ़ेसर शेरी लासन क्लार्क ने किया है। अमेरिका में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 12 प्रतिशत आबादी गरीब है, पर इनमें से अधिकतर लोग स्वयं को गरीब नहीं मानते। जाहिर है, अमेरिका में भी वास्तविक गरीबों की संख्या बढ़ाकर एक बड़ी आबादी पर गर्रीबी का धब्बा लगाने की साजिश चल रही है।
जोसफ राउनट्री फाउंडेशन की रिपोर्ट के अनुसार गरीबी के कलंक का कारण गरीबी नहीं बल्कि इसकी उत्पत्ति सामाजिक और राजनैतिक है। इस कलंक को थोपने में सत्ता, समाज का अमीर तबका और मीडिया – सभी एक-दूसरे की सहायता करते हैं। इन सबसे गरीबी के बारे में लोगों की सोच बदल जाती है – सत्ता की गलत नीतियों के कारण पनपी गरीबी का सारा दोष गरीबों पर ही थोप दिया जाता है – यह धारणा केवल गरीबों में ही नहीं बल्कि पूरे समाज में भी पनपने लगती है। जब गरीबी के लिए केवल गरीबों को ही दोषी ठहराया जाता है तब समाज में उनका प्रतिनिधित्व प्रभावित होता है और गरीबों की गरीबी के बारे में सोच बदलने लगती है। गरीबी के लिए गरीबों को जिम्मेदार बताने वाली सोच सत्ता तंत्र और उनके कल्याण की योजनाओं का हिस्सा बन जाती है, इससे गरीबी और भी अधिक बढ़ती है। गरीबी कम करने के नाम पर सत्ता और पूंजीपति गरीबों के हिस्से के संसाधनों पर अपना अधिकार जमा लेते हैं। गरीबी की यह सोच रोजमर्रा की जिन्दगी का हिस्सा हो जाती है, जिसके गंभीर मानसिक परिणाम होते हैं। अंत में गरीबी से अधिक नुकसान गरीबों का गरीबी के कलंक के कारण होता है।
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