पक्षपातपूर्ण समाचारों का फैल रहा साम्राज्य, पूंजीवाद के मीडिया हाउस पर कब्जे के बाद तेजी से बढ़ रही यह समस्या

पहले के अध्ययनों में केवल समाचारपत्रों के समाचारों के आधार पर पूरा अध्ययन किया गया था, पर इस अध्ययन में समाचार पत्रों के साथ ही सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के समाचारों को भी शामिल किया गया।

फोटो : सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

परंपरागत तौर पर माना जाता था कि समाचारों को पढ़ने वाले अधिकतर लोगों के लिए समाचार का सही और प्रामाणिक होना महत्वपूर्ण है और केवल एक विचारधारा के प्रति कट्टर झुकाव वाले या फिर कम शिक्षित व्यक्ति ही समाचारों की प्रामाणिकता से अधिक तथ्यहीन पक्षपातपूर्ण समाचारों पर भरोसा करते हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान इस विषय पर अनेक अनुसंधान किए गए हैं और लगभग हरेक अध्ययन का एक जैसा ही नतीजा रहा – समाचारों को पढ़ने वाले सभी पृष्ठभूमि के लोग प्रामाणिक समाचारों को पक्षपातपूर्ण समाचारों की तुलना में अधिक प्राथमिकता देते हैं। वर्ष 2021 में इस विषय पर किए गए एक विस्तृत अध्ययन का निष्कर्ष था कि समाचारों के पाठक पक्षपातपूर्ण समाचारों की तुलना में प्रामाणिक समाचारों पर चार-गुना अधिक भरोसा करते हैं।

पर, हाल में ही जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंटल साइकालजी जनरल नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन का निष्कर्ष परंपरागत मान्यताओं के ठीक विपरीत है। स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान विभाग के विशेषज्ञों द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार अधिकतर लोग अपनी विचारधारा के अनुरूप तथ्यहीन पक्षपातपूर्ण समाचारों पर, जो केवल एक विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए गढ़े जाते हैं, भले ही वह फेकन्यूज हो, प्रामाणिक समाचारों की तुलना में अधिक भरोसा करते हैं। अपनी विचारधारा के अनुरूप सही-गलत हरेक समाचार पर भरोसा करने की प्रवृत्ति हरेक राजनैतिक विचारधारा, हरेक शैक्षिक स्तर और हरेक बौद्धिक क्षमता वाले लोगों और समाज के हर वर्ग में व्याप्त है।

इस अध्ययन के मुख्य लेखक माइकल श्चवलबे के अनुसार अध्ययन से स्पष्ट है कि लोगों के लिए उनकी राजनैतिक पसंद तथ्यों से अधिक महत्वपूर्ण है। उनके अनुसार इस अध्ययन के नतीजों से जितना आम लोग या दूसरे विशेषज्ञ चौंकते हैं, उतना ही आश्चर्य अध्ययन करने वाले दल को भी है। पर, पहले के इसी विषय पर किए गए दूसरे अध्ययनों की तुलना में यह अध्ययन अधिक विस्तृत है, और इसके लिए कुछ अलग किया गया है जो अन्य अध्ययनों में नहीं था। इस अध्ययन में राजनैतिक विचारधारा के बारे में लोगों से प्राथमिक सर्वेक्षण में पूछा गया, पर बाद के विस्तृत अध्ययन में इसकी प्रश्नपत्र के माध्यम से जांच भी की गई। इसका फायदा यह हुआ कि सर्वेक्षण में शामिल बहुत सारे लोग जो अपने को किसी राजनैतिक दल का सामान्य समर्थक बता रहे थे, वे जांच में कट्टर समर्थक पाए गए तो दूसरी तरफ बहुत सारे कट्टर समर्थक सामान्य की श्रेणी में आ गए।


पहले के अध्ययनों में केवल समाचारपत्रों के समाचारों के आधार पर पूरा अध्ययन किया गया था, पर इस अध्ययन में समाचार पत्रों के साथ ही सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के समाचारों को भी शामिल किया गया, इन सभी समाचारों के शीर्षकों को अध्ययन के लिए फिर से गढ़ा गया। अध्ययन करने वाले दल का मानना है कि पूरी दुनिया में समाचारों की प्रामाणिकता घटती जा रही है, और पूंजीवाद के मीडिया हाउस पर कब्जे के बाद से यह समस्या तेजी से विकराल हो रही है। दुनिया भर में पूंजीवाद कट्टर दक्षिणपंथी विचारधारा के साथ खड़ा है, जाहिर है इसी विचारधारा के प्रसार में मेनस्ट्रीम मीडिया और सोशल मीडिया व्यस्त है। फिर भी मीडिया की साख दिखाने के लिए अधिकतर भ्रामक और पक्षपातपूर्ण समाचारों के शीर्षक ऐसे रखे जाते हैं जिससे समाचार तथ्यात्मक नजर आए। इसी लिए अध्ययन के लिए विशेषज्ञों ने मौलिक शीर्षकों को हटाकर अपना शीर्षक दिया। मुख्य लेखक माइकल श्चवलबे के अनुसार इस अध्ययन से स्पष्ट है कि समाचार पढ़ने वाले सही समाचारों पर नहीं बल्कि अपनी राजनैतिक विचारधारा के अनुरूप गढ़े गए पक्षपातपूर्ण समाचारों को ही महत्व देते हैं। लोग सही समाचारों पर भरोसा नहीं करते बल्कि उन समाचारों पर भरोसा करते हैं जो उनकी राजनैतिक विचारधारा के अनुरूप हो। पूरी दुनिया में यह प्रचलन बढ़ता जा रहा है।

यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के अर्थशास्त्र विभाग के विशेषज्ञों ने भी इसी विषय पर एक अध्ययन अमेरिकन ईकनामिक्स जर्नल माइक्रोईकनामिक्स में प्रकाशित किया है। इस अध्ययन के अनुसार अमेरिका समेत लगभग पूरी दुनिया राजनैतिक खेमों में बंट गई है और अब किसी साधारण स्थानीय समस्या पर की जाने वाली चर्चा भी इसी नजरिए से की जाती है। जाहिर है, अब मीडिया में राजनीतिक समाचारों का ही बोलबाला है। अब समाचार पढ़ने वालों की नजर में सत्य का अर्थ ही पूरा बदल चुका है। अब सत्य या तथ्यपरक समाचार उसे नहीं माना जाता जो वास्तविक है, बल्कि सत्य उसे समझा जाता है जैसा हमारा राजनैतिक नजरिया है, या उस नजरिए से जैसी हम दुनिया देखना चाहते हैं। इस अध्ययन के अनुसार लोग उन समाचारों पर अधिक भरोसा करते हैं जो समाचार उनकी राजनैतिक विचारधारा को पहले से अधिक कट्टर बनाने की क्षमता रखता है।


कहा जाता है कि विज्ञान और प्रोद्योगिकी में विकास के साथ ही सामाजिक विकास का स्तर बढ़ता है, पर पूंजीवाद ने इस धारणा को ध्वस्त कर दिया है। पूंजीवाद ने सबसे पहले प्राकृतिक संसाधनों और बाजार के साथ ही विज्ञान और प्रोद्योगिकी पर कब्जा किया। इसके बाद मीडिया घरानों और सोशल मीडिया पर कब्जा जमाया। दुनिया में राजनैतिक विचारधारा बदल दी और फिर मीडिया के माध्यम से लगातार फेकन्यूज और पक्षपातपूर्ण समाचारों की सुनामी ला दी। पूरा समाज सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को भूलकर राजनैतिक विचारधाराओं में बंट गया और सामान्य घटनाओं को भी राजनैतिक चश्मे से देखने लगा। अब राजनैतिक विचारधारा ही समाचार हैं और हमारा भरोसा भी। इतिहास बार-बार बताता है कि जब भी समाज सच से दूर होता है तभी पूंजीवाद आगे बढ़ता है, सत्ता में निरंकुशता बढ़ती है और सामाजिक मान्यताओं का विघटन हो जाता है।

इन अध्ययनों से इतना स्पष्ट है कि गलत, भ्रामक सूचनाओं और फेकन्यूज को रोकने के प्रयास से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है, समस्या हमारे मस्तिष्क में है – हम ही पक्षपातपूर्ण और एक ही विचारधारा के समाचारों को पढ़ना चाहते हैं। समाचार अब पूंजीवाद के उत्पाद हैं, जाहिर है जिन उत्पादों से पूँजीपतियों को फायदा पहुंचेगा उन्हीं उत्पादों का व्यापक स्तर पर उत्पादन किया जाएगा और उन्हीं से बाजार को भर जाएगा।

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