आरएसएस मुखिया के मीठे बोलः शब्दों पर जाएं या कारगुजारियों पर?

क्या आरएसएस वास्तव में बदल गया है? अधिकांश संगठनों के बारे में किसी नतीजे पर पहुंचने के लिए उनके कार्यकलापों और गतिविधियों के परिणामों और उस संगठन की विचारधारा से प्रभावित अन्य संगठनों की गतिविधियों पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

फोटो: सोशल मीडिया
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राम पुनियानी

क्या संगठन वही कहते हैं, जो वे करना चाहते हैं, या करने वाले होते हैं? शायद नहीं। कम से कम आरएसएस मुखिया मोहन भागवत के तीन हालिया लंबे भाषणों से तो यही जाहिर होता है। जिस कार्यक्रम में ये भाषण दिये गए, उसे संवाद का नाम दिया गया था। संवाद के नाम पर भागवत ने कार्यक्रम के अंत में चंद सवालों के जवाब दिये। किसी भी भाषण के बाद प्रश्नोत्तर आम हैं परंतु संघ ने इसका जमकर ढिंढ़ोरा पीटा। शायद संघ के लिए संवाद नई चीज़ है। वहां तो चुपचाप सुनने की परंपरा ही रही है।

भागवत ने नया क्या कहा? उन्होंने कहा कि हिन्दुत्व में मुसलमान भी शामिल हैं, आरएसएस संविधान का सम्मान करता है, आरएसएस आरक्षण-विरोधी नहीं है, आरएसएस में अधिनायकवाद नहीं है - इसमें श्री भागवत के अलावा अन्य लोगों की राय के लिए भी स्थान है - आरएसएस हिन्दू राष्ट्र की विविधताओं का सम्मान करता है आदि। यह साफ है कि वे संघ के आलोचकों को जवाब दे रहे थे, और इन आलोचकों की संख्या खासी है। जो चीज नई थी, वह थी भागवत की भाषा का आरएसएस के प्रमुख विचारक गुरू गोलवलकर की भाषा से भिन्न होना। जहां गोलवलकर अल्पसंख्यकों के सफाये के नाजी तरीकों की खुलकर तारीफ करते थे, वहीं भागवत ने धार्मिक अल्पसंख्यकों को स्वीकार करने की बात कही। जहां गुरूजी कहते थे कि मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट, हिन्दू राष्ट्र के लिए आंतरिक खतरा हैं, वहीं भागवत ने कहा कि वे और उनका संगठन गुरूजी की हर बात से सहमत नहीं है और इसलिए उनकी पुस्तक ‘बंच ऑफ़ थाट्स‘ अल्पसंख्यकों को धमकाने वाले और हिन्दू राष्ट्रवाद की खुलेआम वकालत करने वाले अंशों को हटाकर दुबारा प्रकाशित की गई है।

क्या आरएसएस वास्तव में बदल गया है? अधिकांश संगठनों के बारे में किसी नतीजे पर पहुंचने के लिए उनके कार्यकलापों और गतिविधियों के परिणामों और उस संगठन की विचारधारा से प्रभावित अन्य संगठनों की गतिविधियों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। इस तरह के विश्लेषण से हम आरएसएस का वास्तविक चरित्र और एजेंडा जान सकेंगे और यह आकलन भी कर पाएंगे कि आज इसका नरम मुखौटा क्यों पेश किया जा रहा है।

आरएसएस की गतिविधियां उसकी शाखाओं के माध्यम से संचालित होती हैं। इन शाखाओं में किशोर लड़कों को शारीरिक प्रशिक्षण दिया जाता है, जिसका एक भाग होता है लाठी चलाने की कला। यह उनकी गतिविधियों का वह भाग है, जो नजर आता है। इसके साथ-साथ, उन्हें सैद्धांतिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है, जिसे बौद्धिक कहा जाता है। बौद्धिकों में आरएसएस का वास्तविक एजेंडा प्रकट होता है। इन बौद्धिकों के अलावा, लंबी अवधि के प्रशिक्षण शिविर भी आयोजित किए जाते हैं। तीन-वर्षीय प्रशिक्षण से गुजरने के बाद आरएसएस का प्रचारक तैयार होता है।

इन बौद्धिकों में छोटे बच्चों को सिखाया जाता है कि भारत अनादिकाल से हिन्दू राष्ट्र रहा है। विभिन्न स्त्रोतों से प्राप्त जानकारी के मुताबिक, आरएसएस का प्रशिक्षण कार्यक्रम मोटे तौर पर यह सिखाता हैः ‘हमारी‘ सभ्यता अत्यंत महान थी, उसमें सभी जातियों का बराबरी का दर्जा था, महिलाओं का समाज में उच्च स्थान था आदि। हम पर विदेशी मुसलमानों ने हमला किया, जिसके नतीजे में समाज में गैर-बराबरी आई और महिलाओं का सम्मान घटा। मुस्लिम राजाओं ने हमारे मंदिरों को नष्ट किया और तलवार की नोंक पर इस्लाम फैलाया। मुस्लिम राजा बहुत जालिम थे जैसे मोहम्मद गजनी (जिसने सोमनाथ मंदिर ध्वस्त किया), मोहम्मद गोरी (जिसने पृथ्वीराज चैहान को धोखा दिया) आदि।

इसके विपरीत, हिन्दू राजाओं जैसे महाराणा प्रताप और शिवाजी ने हिन्दू समाज की रक्षा की। स्वाधीनता संग्राम के दौरान जहां सावरकर भारतीय राष्ट्रवाद के पैरोकार थे, वहीं गांधी, नेहरू और उनके अनुयायी मानते थे कि भारत, विदेशी धर्मों के अनुयायियों की भी भूमि है। गांधी ने मुसलमानों का तुष्टिकरण किया जिसके कारण उनकी हिम्मत बढ़ गई और वे पाकिस्तान मांगने लगे। नेहरू की गलत नीतियों के कारण कश्मीर, जो कि भारत का अविभाज्य हिस्सा था, एक समस्या बन गया है आदि-आदि।

यह प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद प्रचारक/स्वयंसेवक, समाज के विभिन्न तबकों के बीच काम करते हैं या वे संघ द्वारा निर्मित विभिन्न संगठनों जैसे बीजेपी, एबीवीपी, वीएचपी, वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती आदि से जुड़ जाते हैं। तकनीकी दृष्टि से ये सभी स्वतंत्र संगठन हैं परंतु उनका संचालन और नियंत्रण, आरएसएस द्वारा प्रशिक्षित प्रचारकों के हाथों में होता है। आरएसएस को इन संगठनों को रिमोट कंट्रोल से नियंत्रित नहीं करना पड़ता क्योंकि इन संगठनों के डीएनए में ही संघ की विचारधारा होती है। आरएसएस अपने प्रचारकों के जरिए समाज में जो जहर घोल रहा है, उसके कारण मुसलमानों, और कुछ हद तक ईसाईयों के खिलाफ घृणा का वातावरण निर्मित हो रहा है। इसके साथ ही, समाज के उन तबकों को भी कटघरे में खड़ा किया जा रहा है, जो उदारवाद और सहिष्णुता के हामी हैं। इसी घृणा ने महात्मा गांधी को हम से छीन लिया था। उनका हत्यारा गोडसे, आरएसएस का प्रशिक्षित प्रचारक था। सरदार पटेल शायद वे पहले व्यक्ति थे जो गांधीजी की हत्या की घटना से आगे जाकर यह समझ सके कि उनकी हत्या का असली कारण संघ द्वारा समाज में फैलाई गई घृणा थी।

जब आरएसएस के कार्यकर्ता किसी प्राकृतिक आपदा के समय राहत कार्य करते हैं तब वे संघ का गणवेश पहनना नहीं भूलते। परंतु जब वे अल्पसंख्यकों के विरूद्ध हिंसा भड़काते या करते हैं, तब वे भूलकर भी संघ का गणवेश नहीं पहनते। समाज में आज जो घृणा और तनाव व्याप्त है, उसके पीछे वे भावनात्मक मुद्दे हैं जो संघ ने हिन्दू राष्ट्रवाद के नाम पर उछाले हैं। राम मंदिर आंदोलन अपने पीछे खून की एक मोटी लकीर छोड़ गया था। अगर यह देश सभी धर्मों का सम्मान करता है तो एक 500 साल पुरानी मस्जिद को तोड़ने की जरूरत क्यों पड़ी? इतिहास को साम्प्रदायिक चश्में से क्यों देखा जा रहा है? क्यों गाय एक राजनैतिक मुद्दा बन गई है, जबकि स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि वैदिक काल में गौमांस खाया जाता था और गांधीजी की यह स्पष्ट मान्यता थी कि राज्य को गौवध या गौमांस पर प्रतिबंध नहीं लगाना चाहिए?

तथ्य यह है कि भारतीय जनता पार्टी के चार वर्ष के शासनकाल ने संघ को आत्मविश्वास से लबरेज कर दिया है और अब वह अपना जाल और फैलाने के लिए उदारवाद की भाषा बोल रहा है। संघ अब शायद एक मुखौटा पहनने की तैयारी में है। जहां भागवत मीठी-मीठी बातें बोल रहे हैं वहीं संघ के बाल-बच्चे, जो स्वयं को स्वतंत्र संगठन बताते हैं, अनवरत वही जहर फैला रहे हैं, जो संघ के प्रचारकों के दिमाग मे बौद्धिकों के जरिए भरा गया है। क्या हम यह भूल सकते हैं कि जब जनता पार्टी के उन सदस्यों से, जो जनंसघ से आए थे, कहा गया कि वे संघ से अपने संबंध विच्छेद कर लें तब उन्होंने जनता पार्टी को तोड़ना बेहतर समझा और फिर जनसंघ अपने नए अवतार बीजेपी के रूप में अवतरित हो गया। क्या हम भूल सकते हैं कि प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अमेरिका के स्टेटन आईलैंड में अप्रवासी भारतीयों को संबोधित करते हुए कहा था कि वे स्वयंसेवक पहले हैं और प्रधानमंत्री बाद में। भारतीय संविधान के प्रति संघ जो निष्ठा दिखा रहा है वह खोखली और झूठी है। संघ की वफादारी हिन्दू राष्ट्र के प्रति है और भारत के धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक संविधान में हिन्दू राष्ट्र के लिए न तो कोई जगह थी और न कभी हो सकती है।

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