आकार पटेल का लेख: आरक्षण बनाम योग्यता की धारणा और देश-समाज की हकीकत

हमारा संविधान हमें बताता है कि भारत समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे का समाज है, लेकिन इन मूल्यों को बनाए रखना सरकार या राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी नहीं हो सकती। इन्हें हमें, यानी नागरिकों को बनाए रखना होगा।

सांकेतिक तस्वीर सोशल मीडिया के सौजन्य से
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आकार पटेल

एक शब्द है योग्यता...आइए इसके बारे में बात करते हैं...

ब्रिटेन में मध्यम वर्ग कुल आबादी का 60 प्रतिशत है। श्रमिक वर्ग, हाथ से काम करने वाले और दफ्तरों में काम करने वाले लोगों की तादाद 14 प्रतिशत है। भारत में, मध्यम वर्ग कहलाया जाने वाला वर्ग संख्या की दृष्टि से एक छोटा सा हिस्सा है। सांख्यिकीविद कभी-कभी संख्याओं में +/- 2 प्रतिशत की त्रुटि की बात करते हैं। इस त्रुटि को अगर हम संज्ञान में लें तो पूरा भारतीय 'मध्यम वर्ग' खत्म हो जाएगा। इसके बावजूद ‘मध्यम वर्ग’ हमारी आबादी का सबसे प्रभावशाली और नजर आने वाला समूह है।

यही वह समूह है जो मीडिया को नियंत्रित करता है, और मीडिया इससे बंधा रहता है क्योंकि वह विज्ञापनों पर ही जिंदा है। हम और आप जो भी उपभोग करते हैं, उससे मीडिया को कमाई होती है। इसलिए कोई ताज्जुब नहीं कि मीडिया का फोकस हमारे यानी 3 प्रतिशत पर ही ऊपर केंद्रित होता है, बहुत अधिक लोगों पर नहीं।

भारत की आबादी में दलित (23 करोड़), आदिवासी (11 करोड़) और मुस्लिम (20 करोड़) हैं जो मिलकर कुल आबादी का 40 फीसद हैं। इन सबका भारत की अर्थव्यवस्था, राजनीतिक शक्ति संरचना और हमारे मीडिया में कितना प्रतिनिधित्व है? 

अक्टूबर 2018 और मार्च 2019 के बीच भारत में हुए ऑक्सफैम के एक अध्ययन सामने आया कि 121 में से 106 न्यूजरूम में लीडरशिप का पद उच्च जाति वालों के पास है। हर चार में से तीन एंकर (हिंदी न्यूज चैनों के 40 और अंग्रेजी न्यूज चैनलों के 47 एंकरों में) उच्च जाति के हैं। दलित या आदिवासी एक भी नहीं है। अंग्रेजी अखबारों में छपने वाले लेखों में 5 फीसदी से ज्यादा लेख दलित या आदिवासियों द्वारा नहीं लिखे होते हैं। अध्ययन में शामिल 12 पत्रिकाओं के कवरपेज पर प्रकाशित 972 आलेखों में से सिर्फ 10 लेख ही जाति के मुद्दे पर थे।

भारत के अभिजात वर्ग ने सार्वभौमिक तौर पर इस विचार को स्वीकार कर लिया है कि दलितों और आदिवासियों ने उनके हक की जगह चुरा ली है और आरक्षण ‘योग्यता’ को पीछे धकेल रहा है। लेकिन ‘आईआईएम में 60 प्रतिशत से अधिक ओबीसी, एससी पद खाली’ जैसी हेडलाइन वाली खबरें इस धारणा को गलत साबित करती हैं। विश्वविद्यालयों में आदिवासियों के लिए आरक्षित प्रोफेसर के 90 प्रतिशत से अधिक पद भरे नहीं गए। बयालीस विश्वविद्यालयों में 6,000 से अधिक खाली पदों में से 75 प्रतिशत आरक्षित श्रेणियों के लिए थे।


यहां तक ​​कि हमारे ऐसे शिक्षण संस्थान, जहां आरक्षण कानूनी रूप से अनिवार्य था, दलित और आदिवासी शिक्षकों के साथ सहज नहीं थे। उन्हें एकजुटता के लिए हम बाकी लोगों की जरूरत है।  बेंगलुरु के एक प्रतिष्ठित स्कूल में इसी मुद्दे पर एक बार मैंने संक्षेप में चर्चा की थी।

यह विचार कि हम विशेषाधिकार प्राप्त हैं और यह हमारा कर्तव्य है कि हम इसे पहचानें और इसके लिए कार्य करें। यदि हम अच्छे भारतीय और अच्छे देशभक्त बनना चाहते हैं, तो सबसे महत्वपूर्ण योगदान जो हम कर सकते हैं, वह है इसके सुधार में हमारी भागीदारी। हम अपने कुछ विशेषाधिकार छोड़ सकते हैं और उन्हें उन लोगों को दे सकते हैं जिनके पास यह नहीं है।

हमारा संविधान हमें बताता है कि भारत समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे का समाज है, लेकिन इन मूल्यों को बनाए रखना सरकार या राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी नहीं हो सकती। इन्हें हमें, यानी नागरिकों को बनाए रखना होगा। हम अपने कुछ स्थान उन लोगों को दे सकते हैं जो केवल जन्म के कारण कम भाग्यशाली हैं और हम स्वेच्छा से उन्हें आरक्षण दे सकते हैं।

मेरे भाषण के दौरान स्कूल में मौजूद लोगों को यह बात अच्छी नहीं लगी। छात्र इस विचार से असहमत दिखे। उन्हें लगा कि उन्होंने जीवन में अपना स्थान ('योग्यता') और स्कूल में अपना स्थान अपनी योग्यता के आधार पर अर्जित किया है। अगर दूसरों ने ऐसा नहीं किया है, तो उन्हें इसकी क्यों फिक्र हो। यह उनकी चिंता का विषय नहीं था। यहां तक ​​कि अभिभावक भी आरक्षण के विचार से नाराज थे। मौजूद लोगों में एकमत था - और मैं इसे आम सहमति कहूंगा - कि आरक्षण बुरा है और वे, यानी इस स्कूल के छात्र, विशेषाधिकार की किसी भी धारणा से जुड़े नहीं हैं।

मैं निराश तो हुआ, लेकिन हैरान नहीं हुआ। समाज के तौर पर हम ऐसे ही हैं। स्कूल से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह उस समाज से बहुत अलग होगा जिसने उसे बनाया है। क्या वहां मौजूद दर्शक-श्रोता और खास तौर पर उसमें पढ़ने वाले बच्चे तब भी अपने विचार ऐसे ही रखते अगर वे भारत की वास्तविकता और आंकड़ों से बेहतर तरीके से परिचित होते? मुझे नहीं लगता कि ऐसा होता।

हम सभी इंसान हैं और मानवता का मूल भाईचारा ही है। अगर उन्हें अनुमान होता कि हालात दरअसल कैसे हैं, तो वे दूसरे भारतीयों के बारे में अलग राय रखते, ऐसी राय जो सहानुभूति से उपजी होती। लेकिन एक बातचीत या संवाद कोई किताब तो है नहीं और तीस मिनट के व्याख्यान में जो कुछ बताने की कोशिश की जा रही थी, उस तरह की बात बताना संभव नहीं है।


मेरा इस मुद्दे पर बोलना सार्थक नहीं था: मैंने बच्चों और उनके माता-पिता को सिर्फ़ उतनी ही जानकारी के साथ छोड़ आया जितनी कि वे पहले से जानते थे। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम गरीबी, अभाव और हाशिए पर धकेले जाने के आदी हो चुके हैं, इसलिए हम इसे अनदेखा करना जारी रख सकते हैं जबकि हम अभी भी यह मान रहे हैं कि भारत एक महान शक्ति बनने के लिए आगे बढ़ेगा। हकीकत ह है कि आज हमारी आबादी का बड़ा हिस्सा जो आज जीवित है या तो गरीबी या अभाव में मर जाएगा। भारत में बदलाव तो आएंगे, समय के साथ सभी समाजों में आते है। लेकिन हम इन बदलावों को तेज़ तो कर सकते हैं।

ऐसे देश में जो अपनी रक्षा व्यवस्था पर स्वास्थ्य से चार गुना खर्च करता हो, वहां करोड़ों लोग ऐसे ही तकलीफें झेलते रहेंगे। जिस देश में हथियारों और अन्य सैन्य साधनों पर खर्च शिक्षा व्यय से पांच गुना अधिक हो, जहां आने वाले दिनों में झुग्गियों के नजदीक से बुलेट ट्रेन गुज़रेगी, वहां ऐसा ही होगा। यह प्राथमिकता वाले उच्च वर्ग, यानी हम जैसे लोगों द्वारा भारत की राजनीति पर लगाए गए नियंत्रण का ही नतीजा है। इसलिए, इसे बदलने की कोशिश करना हमारा कर्तव्य है। हमारी दुनिया को बदलने का सबसे प्रभावी तरीका यह है कि हम जिस दुनिया में रहते हैं, उसके बारे में सीखने और जानने की कोशिश करें और इस पर समय लगाएं और उस जानकारी को दूसरों तक पहुंचाएं।