मोदी सरकार की व्यथा-कथा: वादा ‘क्रोनी कैपिटलिज़्म’ मिटाने का था और बन गए ‘क्रोनी कैपिटलिज़्म’ के पहरेदार

सरकार को क्या यह हक है कि अपनी बारी आने पर वह कभी राष्ट्रीय सुरक्षा का नाम ले, और कभी नेता विपक्ष को विदूषक और अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र का हिस्सा बता कर खुद पर लग रहे ‘क्रोनी कैपिटलिज़्म’ के आरोप रफा-दफा कर अपनी कुर्सी बचाने की कोशिश करे?

फोटो: सोशल मीडिया 
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मृणाल पाण्डे

सितंबर का महीना सरकार के लिये खासा तकलीफदेह साबित हुआ है, और वह देश को आने वाले समय के लिये कुछ खतरनाक संकेत दे रहा है। फ्रांस्वा ओलांद के एकाधिक बयानों ने अगर भारत-फ्रांस रिश्तों में एक अभूतपूर्व संकट खड़ा कर दिया है, तो फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति और भारतीय विपक्ष के आरोप सत्यापित होने पर राफेल कांड इस सदी के भारत का सबसे बडा घोटाला साबित हो सकता है। पाकिस्तान मंद-मंद मुस्कुराता हुआ पड़ोसी की फजीहत पर फब्तियां कसे जा रहा है, सो अलग।

कुछ नये चक्रवाती तूफान भी इस बीच क्षितिज पर उभर रहे हैं। एक धार्मिक कट्टरपन का तूफान है जिसमें बीजेपी के कई छोटे-बड़े नेता लगातार विवादास्पद बयान देकर आग भड़का रहे हैं। नाज़ुक समय में राष्ट्रीय अध्यक्ष ने बांग्लादेशियों को भारत को खा रहे दीमक कह कर सीमा पार एक और अच्छे पड़ोसी को नाहक नाखुश कर दिया है। अदालत में विचाराधीन राम जन्मभूमि का मसला भी ‘मंदिर बन के रहेगा सरीखे’ अध्यक्षीय बयानों से गरमा रहा है। एक और आंधी किसान असंतोष की है। हरित क्रांति की खुशहाली अब पंजाब में भी नहीं बची है। मध्य प्रदेश में वे मिट्टी के मोल बना दी गई अपनी उपज सड़कों पर फेंक रहे हैं, हरियाणा में वे रास्ते रोकते हैं, गुजरात में रैलियां कर रहे हैं। बिकवाली के खुदरा भावों की गांव और शहर के बीच अन्यायपूर्ण गैरबराबरी पर जायज़ सवाल उठा रहे हैं, और किसानों की मौतों पर सीधे सरकार को ज़िम्मेदार बता रहे हैं। अन्य हलचल का आभास बीएसपी की सायास तटस्थता और क्षेत्रीय गठजोड़ों से मिल रहा है। क्या आर्यावर्त से इतर दक्षिण, जहां सवर्ण विरोधी आंधी पहले ही अवर्ण वोटों को ध्रुवीकृत कर चुकी है, और बिहार, जहां पिछड़े तीन दशकों से सत्ता में हैं, भी आपद्धर्म के तहत अब बहनजी, कांग्रेस और वाम दलों से हाथ मिलायेंगे? यदि यह हुआ तो ताकतवर बीजेपी विरोधी खेमे की तलाश करते अल्पसंख्यकों का भी उधर मुड़ना रोके नहीं रुकेगा। ऐसा गठजोड़ पहले से कहीं ज़्यादा जुझारू और आक्रामक हो सकता है क्योंकि बीच सड़क पर लड़ते समय बीच-बचाव के गलियारे रचनेवाले सौम्य बुज़ुर्गियत के घेरे बीजेपी बाहर-भीतर निर्दयता से तोड़ चुकी है।

माननीय प्रधानमंत्री की खामोशी अब टूटनी चाहिये। रक्षा मंत्री को मोर्चे पर उतार कर कहलवाया गया कि सरकार सुरक्षात्मक वजहों से देश को लड़ाकू हवाई जहाज़ों की कीमत नहीं बता सकती। पर विपक्ष और मीडिया द्वारा यह सारी आधिकारिक जानकारी वे फ्रांस सरकार के सार्वजनिक किये लेखे-जोखे से पा जाना नहीं रोक पाये। इसके बाद मामला संसद में उठा और रक्षा मंत्री जी ने भड़क कर कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनज़र दाम कितना तय हुआ यह जानकारी संसद को भी नहीं दी जा सकती। प्रधानमंत्री जी की तरफ से कोई आश्वस्तकारी जवाब मिलता उससे पहले सत्र खत्म हो गया। ज़ाहिर था मसले को अब सड़क से टीवी स्टूडियो तक आना ही था। टीवी पर दोबारा और अधिक गुस्से से रक्षा मंत्री ने कहा कि विपक्ष का आरोप कि फ्रांस की दसॉल्ट कंपनी द्वारा चयनित एक (जुमा-जुमा दस दिन पहले बनी) भारतीय कंपनी के चयन में भारत सरकार का हाथ था, कतई झूठ है। दलीय प्रवक्ता ने हर बार की तरह सीधे वंशवाद की माला का जाप शुरू कर दिया और मसले को अलां समय कांग्रेस ने यह किया था, फलां समय यह, कह कर वार्तालाप को चतुराई से सीमित कर दिया। कुल मिला कर सरकार ने सहजता से पूरा सच सामने रखना किसी हाल में मंज़ूर नहीं किया, और जितना किया, वह अब तक सीधे फ्रांस से आये बयानात और खोजी पत्रकारों को दिये वहां के पूर्व राष्ट्रपति और दसॉल्ट कंपनी के बड़े अधिकारियों के साक्षात्कारों से झूठ साबित हो चुका है। और जब खुद मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली सरकारी लेखा-जोखा निगरानी समिति भी सारे कागज़ों को मांग रही हो तो विपक्ष द्वारा एक जेपीसी बना कर मसले को बाकायदा जांच के लिये सुपुर्द करने के सुझाव को आना ही था। पर सरकार की तरफ से कहा जा रहा है कि जेपीसी क्यों ? शक्की विपक्ष यह मामला सीधे न्यायिक जांच के लिये सर्वोच्च न्यायालय क्यों नहीं ले जाता? तर्क में भरपूर चतुराई छुपी है। न्यायिक जांच का सीधा मतलब होगा कि जितने माह या बरस यह जांच जारी रहेगी, सरकार अदालती विचारधीनता की ओट लेकर लडाकू हवाई जहाज़ खरीद मसले पर संसद से सड़क तक कोई बहस नहीं होने देगी। एक बार संसद चुनाव हो गये फिर रहबर से कौन पूछ सकता है कि बता ये कारवां क्यों लुटा?

मान लीजिये इस सौदे के समय अनुपस्थित कृषि मंत्री, कानून मंत्री, कपड़ा मंत्री और रक्षा मंत्री को टीवी पर सरकार के बचाव में नाहक झोंकने की बजाय माननीय प्रधानमंत्री जी अपनी साप्ताहिक ‘मन की बात’ में तमाम दार्शनिक चर्चों के बीच कहीं इतना भर कह देते कि यह विवाद व्यर्थ है। वे सत्यापित करते हैं कि खरीद नियमानुसार हुई है और जल्द ही फ्रांस की ही तरह भारत सरकार भी खरीद के सभी ब्योरे बाकायदा सार्वजनिक कर देगी। तब यह मामला इतना तूल न पकड़ता। आप ही कहें क्या यह उचित है कि दसॉल्ट और एक अदद भारतीय निजी कंपनी की रिश्तेदारी में संविधान के आधारस्तंभ और राष्ट्र के दिग्गज यूं फंसते नज़र आयें? पर खामोशी जारी रहे? अगर भारतीय शिखर नेतृत्व खुद से संबंधित कोई सच्चाई ढांकने का इच्छुक नहीं है, तो इस शक की जड़ को ही खत्म कर दिया जाना चाहिये कि प्रधानमंत्री और उनके काबीना मंत्री सर्वोच्च न्यायालय की किसी बेंच की ओट में छिपना चाहते हैं या सांसदों से शोर करवा के अधूरे दस्तावेजों के बूते संसद में बहस को ही ठप्प कराना चाहते हैं। ठीक है, ओलांद या इमरान या सोशल मीडिया किसी को यह हक नहीं कि वे संविधान के दायरे में चल रही किसी सरकार को अपदस्थ करें। लेकिन आप ही कहो पाठकों कि सरकार की थैलीशाहों से मिलीभगत यानी क्रोनी कैपिटलिज़्म को मिटाने का वादा देकर सत्ता में आई सरकार को क्या यह हक है कि अपनी बारी आने पर वह कभी राष्ट्रीय सुरक्षा का नाम ले, और कभी नेता विपक्ष को विदूषक और अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र का हिस्सा बता कर खुद पर लग रहे ‘क्रोनी कैपिटलिज़्म’ के आरोप रफा-दफा कर अपनी कुर्सी बचाने की कोशिश करे? बाकी आप खुद समझदार हैं।

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