मृणाल पाण्डे का लेख: ‘वयं आधुनिका:’ के समकालीन अर्थ

हर नई रियलिटी को वयं आधुनिका: कहने वाले अपने को सही साबित करने के लिये नये तर्क और नये फिकरे खोज लेते हैं। आज उन्होंने यह काम पूरी तरह साइंस और बीजगणितीय डाटा के पाले में डाल दिया है।

फोटो: सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

शायद यह जान कर आपको अचरज हो कि जिस तरह आज हमलोग अंग्रेज़ी में ‘द न्यू रियल’ यानी नई सचाई को जगह देकर पुरानी सचाइयों को खारिज कर रहे हैं यह सिलसिला आज का नहीं। बहुत पुराना है। सदियों से हर नई पीढ़ी यह दावा करती आई है कि वह पुरानों से बेहतर है। सबसे पहले का लिखित दावा 11वीं सदी के आसपास का है। इसमें मिथिला के उदयनाचार्य अपने निकट परवर्ती अभिनवगुप्त पर की गई टिप्पणी में खुद को और उनको पुरनिया विद्वानों से बेहतर साबित करने की बाबत ‘वयं आधुनिका:’ विशेषण का तनिक गर्व से उपयोग करते हैं। खैर, इन दिनों डाटा लीक पर अमरीका से भारत तक मची हाय-तौबा और आरोप-प्रत्यारोप से साफ है कि उदयनाचार्य के बाद सूचना-प्रसार की दुनिया ही नहीं, ज्ञान लेने-देने के तरीके भी किस कदर बदल चुके हैं, और इसी के साथ मीडिया के अपने दर्शक, पाठकों, विज्ञापनदाताओं से रिश्ते भी।

कुछ ही साल पहले ब्रिटेन में रूपर्ट मरडॉक के अखबारों के बहाने ब्रिटिश राजनेताओं और तथाकथित आज़ाद मीडिया के भीतर व्यापक पैमाने पर हो चली धांधली, ज़ोर ज़बर्दस्ती और सत्तासीन लोगों से उसकी भीतरी साठ-गांठ और उसकी तसदीक करनेवाली रपटें छपने पर भारी बवाल मचा था। मामले की पड़ताल को बिठाई गई सरकारी लेविंसन कमिटी की रपट ने नई तरह के मीडिया और आज़ादी की नई परिभाषाओं पर कई कोण से बहस करने का एक नया अध्याय खोल दिया। बचाव में बार-बार कहा गया कि बेहतरीन जानकारी खरीदना और राजनीति के कर्णधारों से करीबी रिश्ता रखना हमारे ज़माने के मीडिया की नई सचाई (द न्यू रियलिटी) है। पर वह रियलिटी भी आज फेसबुक और परदेस में डाटा जुगाडू और डाटा चबानेवाली (डाटा क्रंचिंग) कंपनियों के भीतरी राज़ खुलने पर मौजूदा ‘न्यू रियलिटी’ के सामने किसी कदर पुरानी लग रही है।

हर नई रियलिटी को वयं आधुनिका: कहने वाले अपने को सही साबित करने के लिये नये तर्क और नये फिकरे खोज लेते हैं। आज उन्होंने यह काम पूरी तरह साइंस और बीजगणितीय डाटा के पाले में डाल दिया है। खाता न बही, जो डाटा कहे सो सही ! एल्गोरिद्म, कृत्रिम बुद्धि (आर्टिफिशल इंटेलिजेंस), रोबोटिक्स, जीन थियरी, जेनोमिक्स, टाइम स्टैम्पिंग, मेटाडाटा यह सारे शब्द आज किसी पवित्र मंत्र की तरह स्कूल कॉलेज और प्रयोगशाला परिसरों में ही नहीं, राजनेता, अभिनेता, मीडियाकर्मी, चैनल मालिक सबके द्वारा बचाव में धड़ल्ले से दोहराये जा रहे हैं। आप मतलब न समझें तो माफ करें, आप आधुनिक नहीं।

पर कभी आपने गौर किया है कि नई रियलिटी की शक्ल गढ़नेवाले यह तमाम ‘आधुनिक’ शब्द किसी तरह की मानवीय गर्माहट या निजी भावनाओं से कितने खाली हैं। इसी खालीपन को भरने के लिये कोई भी चुनाव सामने आया तो हमारे चतुर खिलाड़ी (नेता और चैनल) लगातार ऐसी निपट सपाटबयानी या भावुकता से टपकती भाषा से काम कर रहे हैं जो आम तौर से गमी के मौके पर या श्रद्धांजलि देने के लिये ही इस्तेमाल होती है। ‘एक ज़माना था जब गांधी पटेल..’ या ‘पर्यावरण लगातार बिगड़ रहा है, हम न चेते तो मानवता मिट जायेगी, आइये प्रण करें…’ ‘बच्चो, तुम छात्र अपने को एग्ज़ाम वॉरियर बनाओ!’ यह हम बार-बार सुन रहे हैं। पर हमारी निजता परीक्षा हॉल से लेकर सात समंदर पार लीक हो रही है, हमारे खानपान रहन-सहन का हर ब्योरा इस या तिस एप से दुह कर बाज़ार की कंपनियों को बेचा जा रहा है (ताकि वे हमको ज़्यादा चूना लगा सकें), आधार कार्ड न होने पर हमारा नाम, धाम या काम कुछ भी कभी भी सरकारी बही-खातों से मिटाया जा सकता है, यह जानने के बाद इस तरह की अपील का आम नागरिकों के लिये कितना मतलब रह गया है?

विकास का नारा चार साल पहले देश को मुग्ध करता था। पर आज समाजशास्त्री से अर्थशास्त्री तक कई जीने-मरने के क्षेत्रों से आ रही बुरी खबरों से चिंतित हैं। तिस पर मौसम विज्ञानी कह चुके हैं कि देश के कई राज्य भीषण सूखा और जलसंकट झेलेंगे। गर्मी से पहले ही तमाम तरह के निर्माण कार्यों और नये उद्योगों की भारी-भरकम इमारतें फैक्टरियां बनने से दक्षिण के तमाम बांधों के जलाशय रीत चले हैं, हिमालय की गोद की कितनी छोटी नदियां और तालाब सूखे से मिट गये हैं, नैनीताल से बेंगलुरू तक झीलें भी बदहाल हैं। इनका क्या ? इन पर सन्नाटा है। जवाब बस यही कि हम दुनिया की महाशक्ति बन चले हैं, जल्द ही चौड़ी सड़कें बनाई जायेंगी, पुरानी और चौड़ी होंगी, हम दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बिजली पैदा करने वाला देश, सबसे बड़ा पर्यटन हब बस बन ही रहे हैं। सोज़ भरे मातम से निगाह फिरवाई जा रही है कि देखो, दुनिया के अमीर मुल्कों और चीन की लालची गैरजवाबदेही, जो तेल पी रहे हैं, खनिज खोद रहे हैं और दुनिया भर के पर्यावरण को गंदा कर रहे हैं।

कोई देश जब जब अपनी आधुनिक पहचान बनाने जाता है, सबसे पहले वह अपने इतिहास से टकराता है। उस यक्ष के सवालों के जवाब दिये बिना किसी भी अचेत पड़ी व्यवस्था को होश में लाना नामुमकिन है। भारत का इतिहास टटोलना यानी धर्म और जाति पर कड़ी बहस की मार्फत कठोर ऐतिहासिक सचाइयों के जवाब लेकर उनसे इतर ‘नया’ खोजना। इस बिंदु पर हमारे राजनेताओं या मीडिया की सच का सामना करने की ताकत कोई बहुत उम्दा नहीं दिख रही है। ताज़ा उदाहरण कर्नाटक का है जहां पक्ष-विपक्ष सब खुल कर वही पुराने धार्मिक और जातीय समीकरण बना या बिगाड़ रहे हैं जिनका धर्म-जाति निरपेक्ष हमारा संविधान निषेध करता है। कोई देवस्थान नहीं जहां आप आम दर्शनाभिलाषियों से कहीं अधिक रोज़ मत्था टेकते साष्टांग दंडवत् करते राजनेताओं अभिनेताओं की छवियां नहीं देख रहे हों। विडंबना यह कि फिर भी हर दल जनता को सुशासन, आधुनिकतम शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के हसीन सपने बेच रहा है। इसका दूसरा चिंताजनक भाग बिहार और बंगाल में बन रहा है जो कम से कम पिछले कुछ दशकों से सांप्रदायिक दंगों से मुक्त नज़र आ रहे थे। दु:खद यह कि दोनों ही राज्यों में तथाकथित सेक्युलर सरकारें हैं। बिहार में इधर आंशिक तौर से कम बंगाल में तनिक अधिक। पर दोनों राज्यों के शीर्ष नेता खुद की छवि खरी और निष्पक्ष होते हुए भी सांप्रदायिकता से प्राणवायु खींच रहे सत्ता पलट आतुर विपक्षी दलों के आग भडकाऊ भाषणों, धार्मिक जुलूसों के जवाब में कठोर पाबंदी की बजाय एक समांतर धार्मिक सांप्रदायिक मायाजाल बना रहे हैं। तुम बडे़ अयोध्याछाप राममंदिरिया बनते हो, चलो हम हनुमान यात्रा निकाल देते हैं। जदयू के दलीय प्रवक्ता नूरजहां के भोलेपन से पूछते हैं, दंगे ? कहां ? सब मीडिया की शरारत है। कोई दंगा-वंगा नहीं, चलो भागो !

वक्त सख्त है। आर्थिक विषमता, बेरोज़गारी, सूखा भयावह तेज़ी से बढ़ रहे हैं, कृपया इस समय तो सिर्फ कुर्सी पाने की खातिर हमारे जननेता हमारे आगे विपक्ष के खिलाफ शोकगीत, मीडिया पर कड़ी कार्रवाई की धमकियां और ‘बढ़ते चलो साथियों’ किस्म की कदमताल करानेवाली चालें न दोहरायें। इस आग पर कड़ाई से काबू कर और जनता का जीवन बेहतर और लोकतांत्रिक रूप से समृद्ध बना सकने के भरोसेमंद प्लान दिखायें, वर्ना कुछ दशकों बाद वयं आधुनिका: या वयं परंपरावादिन: वगैरह कहने या नारेबाज़ी-पत्थरबाज़ी करने को कोई रहेगा ही नहीं।

(मृणाल पाण्डे नेशनल हेरल्ड समूह की वरिष्ठ संपादकीय सलाहकार हैं। नवजीवन पर हर सोमवार को उनका विचारोत्तेजक लेख प्रकाशित होगा)

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Published: 02 Apr 2018, 11:04 AM