आजादी की लड़ाई की साझी विरासत: सभी मजहब के लोगों ने मिलकर कराया था देश को आजाद

आज हम एक दोराहे पर खड़े हैं। एक ओर तो साझी संस्कृति का वह रास्ता है जिसे स्वाधीनता संग्राम के शहीदों ने अपनी शहादत से सींचा है और दूसरी ओर सांप्रदायिकता और धार्मिक उन्माद का वह रास्ता है जिसके तहत युवकों को भ्रमित कया जा रहा है।

फोटो: सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

हमारी आजादी की लड़ाई का एक विशेष प्रेरणादायक पक्ष यह रहा कि विदेशी शासकों द्वारा विभिन्न धर्मों की एकता तोड़ने के बावजूद आपस में मिल-जुलकर आजादी के लिए संघर्ष करने के बहुत प्रेरणादायक उदाहरण सामने आए। रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकुल्लाह की दोस्ती हिंदू-मुस्लिम एकता की प्रतीक बन गई थी और इन दोनों स्वतंत्रता सेनानियों ने मात्र दो-तीन दिन के अंतर पर ही शहादत प्राप्त की। उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त में बादशाह खान या फ्रंटियर गांधी के नेत्तृत्व में पठान स्वतंत्रता सेनानियों ने अहिंसक स्वतंत्रता संग्राम का शानदार उदाहरण सामने रखा, तो चन्द्रसिंह गढ़वाली के नेत्तृत्व में उत्तराखंड के हिंदू सिपाहियों ने अंग्रेज अफसरों द्वारा दिए गए उनपर गोली चलाने के आदेश को मानने से इंकार कर दिया, जबकि उन्हें पता था कि ऐसा करने पर उन्हें अनेक वर्ष जेल में गुजारने होंगे। इस तरह की मजहबी एकता के अनेक प्रेरणादायक उदाहरण आजादी की लड़ाई में भरे हुए हैं। जो हमारे शीर्ष के और सबसे लोकप्रिय स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्हें करोड़ों लोगों का प्यार और सम्मान मिला, वे सभी सांप्रदायिक सद्भावना के लिए समर्पित थे। फिर चाहे वे महात्मा गांधी हो या जवाहरलाल नेहरू, शहीद भगत सिंह हों या सुभाषचंद्र बोस।

वर्ष 1857 में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध जो विद्रोह भारत के अनेक भागों में भड़क उठा, उससे अनेक भारतीय शासक या राजपरिवार अलग रहे पर जितने शासक सामने आए उनमें हिन्दू-मुस्लिम एकता स्पष्ट देखी गई। इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि इस विद्रोह के दौरान आम जनता में हिन्दू-मुस्लिम एकता व्यापक स्तर पर देखी गई।

विद्रोह में भाग लेने वाले अनेक राजा और बहुत से सिपाही और नागरिक हिन्दू थे पर उन्होंने मुगल बादशाह बहादुरशाह के प्रति अपनी वफादारी घोषित की और बहादुरशाह ने विभिन्न राजाओं को पत्र लिखा कि ब्रिटिश साम्राज्य से लड़ने और उसको हटाने के लिए वे भारतीय राज्यों का एक महासंघ स्थापित करें।

प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर विपन चन्द्र ने लिखा है “1857 के विद्रोह की शक्ति बहुत कुछ हिन्दू-मुस्लिम एकता में निहित थी। सैनिक तथा जनता हो या नेता, हिन्दूओं तथा मुसलमानों के बीच पूरा-पूरा सहयोग देखा गया। सभी विद्रोहियों ने एक मुसलमान बादशाह को अपना सम्राट स्वीकार कर लिया था। मेरठ के हिन्दू सिपाहियों के मन में पहला विचार दिल्ली की ओर कूच करने का ही आया। हिन्दू और मुसलमान विद्रोही और सिपाही एक-दूसरे की भावनाओं का पूरा-पूरा सम्मान करते थे। उदाहरण के लिए विद्रोह जहां भी सफल हुआ वहीं हिन्दूओं की भावनाओं का आदर करते हुए फौरन गो-हत्या बन्द करने के आदेश जारी कर दिए गए। वास्तव में 1857 की घटनाओं से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि मध्यकाल में तथा 1858 से पहले भारत की जनता और राजनीति अपने मूल रूप में साम्प्रदायिक नहीं थी।”

इस विद्रोह में एक ओर मंगल पांडेय, लक्ष्मी बाई, झलकारी बाई, तांत्याटोपे, नाना साहेब और बिहार के कंवरसिंह थे तो दूसरी ओर बख्त खान, बेगम हजरत महल और फैजाबाद के मौलवी अहमतुल्लाह ने भी उनका साथ दिया। दिल्ली में विद्रोह का वास्तविक नियंत्रण एक सैनिक समिति के हाथों में था जिसके अगुआ बख्त खान थे। वे एक तरह से इस विद्रोह में साधारण जनता के एक मुख्य प्रतिनिधि थे। बरेली के सैनिकों को दिल्ली वे ही लाए थे। अवध की बेगम हजरतमहल ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध जमकर लड़ाई की।

बहादुरी की अनेक गाथाओं के बावजूद 1857 का विद्रोह विफल रहा। अंग्रेजों ने राहत की सांस तो ली पर साथ ही उन्हें यह चिन्ता खलती रही कि हिन्दू और मुसलमान एक होकर क्यों लड़े थे। एक वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारी ने बड़ी कड़वाहट से लिखा - इस मामले में हम मुसलमानों को हिन्दूओं से नहीं लड़ा सकते। अतः विदेशी शासकों ने साम्प्रदायिकता के जहर को कुछ और तेज बनाने की कोशिश आरम्भ की।

सेक्रेटरी आॅफ स्टेट जार्ज फ्रांसिस हैमिल्टन ने 26 मार्च 1888 को कर्जन को पत्र लिखा जिसमें उसने कहा, “यदि हम शिक्षित भारतीयों को दो बहुत अलग विचार रखने वाले भागों में बांट सकें तो इस बंटवारे से हम अपनी स्थिति दृढ़ कर सकेंगे। हमें स्कूल शिक्षा की पाठ्य पुस्तकें ऐसी तैयार करनी चाहिए कि एक समुदाय और दूसरे समुदाय के अन्तर और बढ़ सकें।

क्रास ने गवर्नर जनरल डफरिन को 14 जनवरी 1887 को एक पत्र लिखा जिसमें उसने बधाईनुमा अन्दाज में कहा, “धार्मिक भावनाओं में विभाजन से हमें बहुत लाभ होता है तथा भारतीय शिक्षा और पाठ्य पुस्तकों पर तुम्हारी जांच समिति के फलस्वरूप (इस दृष्टि से) कुछ अच्छा नतीजा निकलने की उम्मीद मुझे है।” दूसरे शब्दों में सीधे-सीधे कहा जा रहा था कि भड़काने और बांटने वाली पाठ्य पुस्तकें छापो।

अंग्रेज शासकों के इन प्रयासों को कुछ सफलता मिली भी लेकिन इसके बावजूद काफी हद तक स्वाधीनता की लड़ाई में सब समुदायों व धर्मों के लोग आते रहे और साझी संस्कृति की विरासत को सांझी शहादत से सींचते रहे।

हिन्दुओं की ओर से लाला लाजपत राय, महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, मोती लाल नेहरु, सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरु, चिदम्बरम पिल्ले, सुभाष चन्द्र बोस, खुदी राम बोस, लाला हरदयाल, चितरंजन दास, चन्द्रशेखर आजाद, व अन्य नाम याद आते हैं तो मुसलमानों की ओर से मौलाना आजाद, हसरत मोहानी, खान अब्दुल गफ्फार खान, अशफाकुल्ला, सैफुद्दीन किचलू, आसफ अली और अन्य याद आते हैं। पारसियों में डाक्टर दादा भाई नौरोजी और भीकाजी कामा का नाम सर्वविदित है तो ईसाईयों में एनी बेसेंट व ए.ओ. ह्यूम का। नागालैंड की रानी गिडालू भी आजादी की लड़ाई में कूद पड़ीं और उन्होंने अपनी जिन्दगी असम के जेलों में बिता दी। सिखों में सरदार अजीत सिंह, भगत सिंह, करतार सिंह सराभा, सोहन सिंह भखना और अन्य स्वाधीनता सेनानियों को भला कौन भुला सकता है।

आजादी का लाभ सबसे कमजोर समुदायों तक भी पहुंचा, इसके लिए जिन समाज-सुधारकों ने अति महत्त्वपूर्ण कार्य किया उनमें डॉ अंबेडकर, ज्योतिबा फुले जैसे समतावादी समाज-सुधारकों के नाम अग्रणी हैं।

आदिवासी समुदायों ने बहुत साहसपूर्ण संघर्ष औपनिवेशिक शासकों के विरुद्ध किया जिसमें बिरसा मुंडा जैसे शहीदों के नाम सदा याद रहेंगे।

स्वाधीनता आंदोलन में विभिन्न धर्मों के सद्भाव की कई मिसालें हैं। मुसलमानों ने आर्यसमाजी नेता स्वामी श्रद्धानन्द को आमंत्रित किया कि वे दिल्ली की जामा मस्जिद से अपना उपदेश दें। आजाद हिन्द फौज के तीन नायकों शाहनवाज, गुरदयाल सिंह ढिल्लों और प्रेम सहगल पर मुकदमा चला तो हिन्दू-मुस्लिम-सिख एकता का एक नया प्रतीक तेजी से उभरा।

जहां स्वाधीनता आंदोलन में विभिन्न धर्मों की एकता के शानदार उदाहरण सामने आए, वहां साम्प्रदायिक दलों और संगठनों का निहायत स्वार्थी और अवसरवादी चरित्र भी उजागर हुआ। विपिन पाल ने लिखा है, “दिलचस्प बात यह है कि हिन्दू और मुस्लिम सांप्रदायवादियों ने कांग्रेस के विरोध में मुस्लिम लीग तथा दूसरे सांप्रदायिक संगठनों का मंत्रीमंडल बनवाने में सहायता दी। ब्रिटिश सरकार समर्थक रवैया अपनाना भी तमाम सांप्रदायिक संगठनों की एक साझी विशेषता थी।”

आज हम एक दोराहे पर खड़े हैं। एक ओर तो साझी संस्कृति का वह रास्ता है जिसे स्वाधीनता संग्राम के शहीदों ने अपनी शहादत से सींचा है और दूसरी ओर सांप्रदायिकता और धार्मिक उन्माद का वह रास्ता है जिसके तहत युवकों को भ्रमित कया जा रहा है कि दूसरे समुदाय के धर्मस्थल पर कुछ हथौड़े चला लेना ही सबसे बड़ी बहादुरी है। इसमें कोई शक नहीं कि हमें पहले रास्ते पर ही चलना है और गुमराह लोगों को दूसरे रास्ते से वापस लाकर पहले रास्ते पर ले जाना है - वह रास्ता जो साझी संस्कृति और शहादत का रास्ता है।

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Published: 15 Aug 2018, 8:32 AM