मृणाल पांडे का लेखः भारतीय राजनीति की बदलती मुख्यधारा

उस बीजेपी में, जिसने राजनीति में वंशवाद के लिए खुद से इतर दलों की खुली निंदा की, लगभग 100 पुराने सांसदों को इस बार टिकट नहीं देने के बावजूद 22 फीसदी उम्मीदवार राजनीतिक घरानों से जुड़े थे। लगभग सभी दल वंशवादी उम्मीदवारों को अधिक जिताऊ मानते आए हैं।

इसस्ट्रेशनः डीडी सेठी
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मृणाल पाण्डे

चक्रवर्ती प्रधानमंत्री के बिना एक ताकतवर तरक्की पसंद राज्य को कायम रखने का एक ही तरीका हो सकता है कि व्यक्ति विशेष को कम, राजकीय संस्थाओं को प्रखर और जवाबदेह बनाए रखने को अधिक महत्व दिया जाए। लेकिन जनता के मन में एक प्रखर शिखर नेता की तो बड़ी साफ तस्वीर है, पर राजकीय संस्थाओं की, संविधान की व्यवस्थाओं की या अर्थ जगत की नहीं।

जिस तरह अनेक प्रकार की बहुलता को लिए-दिए चलना हमारे समाज का एक गुण है, उसी तरह ऊपर से तटस्थ दिखाई देते हुए भी भीतर-भीतर बदलते जाना हमारी राजनीति की एक खासियत है। वह बदलाव चुनाव के बाद सतह पर साफ दिख रहा है। दसेक साल बाद गांव लौटने पर हम जिस तरह वहां के जीवन में आए बदलाव, नई गलियों और पक्के मकानों से चौंकते हैं, उसी तरह दसेक बरस विदेश में बिताकर 2019 में स्वदेश लौटने वाले भारतवंशी भी चौंक रहे हैं कि यहां का राज-समाज कितना बदल चुका है।

बदलने को तो पिछले दो सौ बरसों के औपनिवेशिक शासन ने, नई मशीनी क्रांति, हरित क्रांति और डिजिटल संचार व्यवस्था ने काफी कुछ बदला है। लेकिन इस बदलाव का कोई साफ ऐतिहासिक बिंदु (फ्रांस की 1789 या रूस की 1917 की बोल्शेविक क्रांति की तरह) नहीं बनता है। पर इस चुपचाप बदलाव करने की प्रथा का एक अप्रिय पक्ष यह है कि इसके लिए केंद्र में एक व्यक्ति विशेष का चक्रवर्ती नेतृत्व होना और सभी राजनीतिक पार्टियों में कुछेक परिवारों के लोगों की पीढ़ी दर पीढ़ी आवक जरूरी है। इसलिए बहुनिंदित वंशवाद कांग्रेस का दलगत दुर्गुण नहीं, भारतीय राजनीति के लैंडस्केप का एक अनिवार्य हिस्सा दिखाई देता है।

चक्रवर्ती प्रधानमंत्री के बिना एक ताकतवर तरक्की पसंद राज्य को कायम रखने का एक ही तरीका हो सकता है कि व्यक्ति विशेष को कम, राजकीय संस्थाओं को प्रखर और जवाबदेह बनाए रखने को अधिक महत्व दिया जाए। लेकिन जनता के मन में एक प्रखर शिखर नेता की तो बड़ी साफ तस्वीर है, पर राजकीय संस्थाओं की, संविधान की व्यवस्थाओं की या अर्थ जगत की नहीं।

इसलिए जब शिखर नेतृत्व अर्थजगत से निकला हो तो बिजनेस फलता-फूलता है, शिक्षा और कानून से जुड़ा हो तो राज्य के शिक्षा संस्थान और न्यायपालिका दमकते नजर आते हैं, और अगर राजा भोंदू हो तो सर्वत्र मीडियॉक्रिटी का बोलबाला होने में देर नहीं लगती। इस तरह लोकतंत्र कहलाते हुए भी हम अब तक एक राजा-निरपेक्ष, वंशानुक्रम रहित विधायिका वाला राज्य बनाने में असमर्थ रहे हैं।

साल की शुरुआत से कांग्रेस को लक्षित कर सत्ता पक्ष ने वंशवादी राजनीति की किस-किस तरह से धज्जियां उड़ाईं हम सबने देखा। लेकिन इस विषय पर दो बरस पहले ही छपी एक किताब (डेमोक्रेटिक डायनेस्टीज) ने साफ किया था, कि 2004 से 2014 के बीच भारतीय विधायिका के सदस्यों में से एक चौथाई राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले परिवारों से आए थे।


और अन्य (अशोका यूनिवर्सिटी) के तत्वावधान में किए गए ताजा शोध के हिसाब से 2019 में लोकसभा के लिए चयनित कुल सांसदों में राजनीतिक वंश विशेष से जुड़े सांसदों की तादाद 30 फीसदी साबित हुई है। राजस्थान, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र में यह दर 32 से 43 फीसदी तक जाती है और पंजाब में तो आंकड़ा 62 फीसदी का बन गया है।

यानी देश के हर भाग में सक्रिय राजनीति में वंशवाद जातिवाद की ही तरह एक हटाए न हटने वाली शै बन गया है। अकाली दल, जनता दल (एस), टीडीपी, आरजेडी और एसपी सहित क्षेत्रीय दलों में भी यही रुझान कायम है। सिर्फ वे वामदल ही इस प्रवृत्ति से कमोबेश परे दिखते हैं, जिनका भारतीय राजनीति में लगभग सफाया हो चुका है।

उस बीजेपी में भी, जिसने राजनीति में वंशवाद के लिए खुद से इतर दलों की खुली निंदा की, लगभग 100 पुराने सांसदों को इस बार टिकट नहीं देने के बावजूद 22 फीसदी उम्मीदवार राजनीतिक घरानों से जुड़े थे। लगभग सभी दल वंशवादी उम्मीदवारों (खासकर महिला उम्मीदवारों) को अधिक जिताऊ मानते आए हैं जो साबित भी होता है।

यानी जनता अब भी वंशवाद परस्ती को उतना बड़ा दुर्गुण नहीं मानती जितना कि बताया जाता रहा। इसलिए इस चुनाव के नतीजे कांग्रेस के सामने जो सबसे बड़ी समस्या लाए हैं, वह वंशवाद रखने या हटाने की नहीं, वह यह है कि पार्टी किस तरह देश की जनता का खोया हुआ विश्वास दोबारा किस तरह हासिल करे?

67-77-87 में जिन संकटों का सामना उसने किया वे नेतृत्व की मलिन छवि के संकट के थे। पर नेहरू-गांधी परिवार का कोई सदस्य राजीव गांधी की मृत्यु के बाद से प्रधानमंत्री क्या मंत्री तक नहीं रहा है। छवि के संकटों से इंदिरा या राजीव कैसे निपटे वह अब इतिहास बन चुका है, लेकिन इस बार उनके ही गड़े मुर्दे उखाड़-उखाड़कर प्रचार किया गया कि कांग्रेस के स्वर्गीय नेता कितने महापापी थे और उस अविरल प्रलाप के झरनों से विपक्षी दलों ने अपनी छवि चमकाई।

मोदी जी इस बार जो इतने लोकप्रिय बनकर उभरे हैं उसके पीछे जनता में उनका जगाया यह भरोसा है कि अब चूंकि वंशवाद की जड़ में मठा डाल दिया गया है, ईमानदारी और सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास के बल पर सत्ता का ध्रुवीकरण होगा। और ईमान की तलवार हाथ में लेकर बीजेपी तब हर कांग्रेस शासित राज्य में पार्टी को और उसके सहयोगी दलों को तोड़ेगी और फिर उनको सत्ता से दर बदर कर उसकी जगह अपनी विचारधारा के प्रतिनिधि बिठा देगी।


लोकतंत्र में संविधान के ढांचे के भीतर यदि बीजेपी यह करना चाहे तो करे। पर अगर वह एक नाटकीय तोड़फोड़ से आगे न जाए तो निश्चय ही इस उठा-पटक भर से हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण, दलित बनाम पिछड़े, किसानी की या काश्मीर की समस्याएं नहीं सुलझेंगी। खुद कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा सवाल कांग्रेस की अखिल भारतीय व्याप्ति के क्रमिक क्षय का है, वंशवाद का नहीं।

इंदिरा जी को कांग्रेस के चौधरियों ने प्रधानमंत्री बनाया था, उनके पिता ने नहीं। पर जब उनको मर्ज़ी से शासन करने की छूट नहीं मिली, तो उन्होंने कांग्रेस को दो फाड़कर दिया और सत्ता हाथ में ले ली। राजीव गांधी को इंदिरा जी की नृशंस हत्या से उपजे ज्वार ने प्रधानमंत्री बनाया। जनता के उस भावनात्मक उफान को जैल सिंह ने समझा और उनको शपथ दिला दी।

पर इस सिद्धांत को उन चालीसेक सालों के बाद फिर आजमाने का अवसर जब आया तो पार्टी के तमाम अनुरोधों के बावजूद सोनिया गांधी ने बहुत बुद्धिमत्ता दिखाते हुए साफ इनकार कर दिया। उसके बाद अगले दस साल तक मनमोहन सिंह ने ही प्रधानमंत्रित्व की बागडोर थामी। इस दृष्टि से यह एक विडंबना ही कही जाएगी कि भीषण बहुमत से सत्ता में आए मोदी जी ने इंदिरा युगीन एकछत्र राजकाज की लगभग वही शैली ग्रहण कर ली है जिसकी वह मुखर (और एक हद तक सही) आलोचना करते रहे।

नेहरू जी जनता के भारी बहुमत से उपजी एकछत्रता-कामना की कमजोरियों से परिचित थे इसलिए उन्होंने हमारे लोकतंत्र को सामंतवाद से जहां तक संभव था, उबारा और राजकाज को नेता केंद्रित बनाने की बजाय संसद, विधानसभा, प्रेस, न्यायपालिका आदि संस्थाओं पर केंद्रित करने पर बल दिया। माना कि इंदिरा जी ने कुछेक बार संसद को अप्रासंगिक माना, पर जनसंघ या बीजेपी या समाजवादी दलों ने भी उस समय संसद और विधानसभाओं को प्रासंगिक बनाने की जगह वाक आउट करना अधिक पसंद किया। राज्यपालों के भाषण के समय शकुन बिगाड़ने की अलोकतांत्रिक शुरुआत कर दी।

इस बार सरकार की गाड़ी पांच साल चले कि दस साल पर यह अहसास सभी समझदार लोगों के मन में है कि परिस्थितियां चाहे जैसी हों, राष्ट्रवाद या सुरक्षा के नाम पर इंदिरा शैली में राजकीय पक्ष में लोकतांत्रिक संस्थाओं की जबरिया ‘प्रतिबद्धता’, राज्य सरकारें बनाने-बिगाड़ने, लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता और मीडिया की आजादी पर अंकुश साधते हुए उनको पालतू बनाने के सतत प्रयास कभी औसत या सामान्य नहीं माने जा सकते।


इन चुनावों से क्षेत्रीयकरण में एक जबर्दस्त उछाल सतह पर आया है। खासकर दक्षिणी राज्यों में। यह साबित करता है कि अखिल भारतीय महानायक का करिश्माती व्यक्तित्व या वक्तृता भी एक सीमा के बाद देश को जोड़े रखने को अपर्याप्त हैं। जनगणना के आंकड़ों के हिसाब से दक्षिण भारत से केंद्रीय सूरज प्रकटने की संभावना नहीं बनती। पर वहां से राज्य ध्वंस की नकारात्मक कामना जोर न मारे इसका खयाल रखना जरूरी है।

इस मायने में कांग्रेस की केरल में मौजूदगी और तमिलनाडु में सत्तारूढ डीएमके से उसका सहकार एक स्वस्थ मंच बना रहा है, जिसका सतत सम्मान और रक्षा जरूरी है, सिर्फ कांग्रेस के लिए ही नहीं, बीजेपी के लिए भी। रही बात वंशवाद की, अब जबकि बीजेपी भी सप्रमाण उसमें लिपटी हुई साबित हो चुकी है, उसे तमाम खामियों के बाद भी जातिवाद की तरह स्वीकार किए बिना चारा नहीं।

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