मौसम देख बदला रुख: देशद्रोह काननू पर केन्द्र सरकार ने लिया नाटकीय और चौंका देने वाला यू-टर्न
9 मई को जब केन्द्र सरकार ने यह शपथ पत्र दाखिल किया कि वह काननू की समीक्षा करना चाहती है, तो यह नाटकीय और चौंका देने वाला यू-टर्न था।
तीन साल पहले अपने घोषणा पत्र में कांग्रेस ने जब देशद्रोह काननू रद करने का वायदा किया था, तब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने उसकी निंदा की थी। सुप्रीम कोर्ट में दो दिन पहले ही सरकार ने तर्क दिया था कि काननू के साथ कुछ भी गलत नहीं है। सरकार ने कोर्ट में यह भी कहा था कि 1962 में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ द्वारा काननू को सही करार देना बाध्यकारी है और यह अब भी एक अच्छा काननू है। लिहाजा, इस पर पुनर्विचार की जरूरत नहीं है। लेकिन अगले दो दिनों में ही प्रधानमंत्री का दिल-दिमाग बदल गया।
2019 लोकसभा चुनाव के समय देशद्रोह काननू को रद करने की बात करने पर कांग्रेस को आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। तब अरुण जेटली ने कहा था कि कांग्रेस नक्सलवादियों और जिहादियों के प्रभाव में है और देशद्रोह काननू को हटाने का सुझाव देने के कारण वह एक भी वोट पाने की हकदार नहीं। तब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि कांग्रेस का घोषणा पत्र आतंकवादियों और अलगाववादियों के चेहरे पर मुस्कान लाएगा और यह सशस्त्र बलों के मनोबल को गिराएगा।
इसलिए, 9 मई को जब केन्द्र सरकार ने यह शपथ पत्र दाखिल किया कि वह काननू की समीक्षा करना चाहती है, तो यह नाटकीय और चौंका देने वाला यू-टर्न था। आश्चर्यजनक ढंग से शपथ पत्र में अनावश्यक तौर पर यह भी जोड़ा गया कि प्रधानमंत्री मोदी ने ‘नागरिक आजादी के संरक्षण और मानवाधिकारों के सम्मान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को बिल्कुल साफ शब्दों में व्यक्त करते हुए कहा है कि आज देश में पुराने किस्म के उपनिवेशवादी काननूों की कोई जगह नहीं है।’ तीन पृष्ठों के इस शपथ पत्र में यह भी, अनावश्यक तौर पर, जोड़ा गया है कि प्रधानमंत्री इस विषय पर विभिन्न विचारों से अवगत हैं और उस उपनिवेशवादी बोझ को हटाने के पक्ष में हैं जिसने अपनी उपयोगिता खो दी है।
बात में है दम
देशद्रोह कानून को स्थगित करने या रोकने पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर कई सारे कानूनविद संतुष्ट नहीं लगते। कुछ तात्कालिक प्रतिक्रियाएं:
कोर्ट द्वारा देशद्रोह धारा के ’स्थगन’ पर प्रसन्न न हों। यह खतरनाक दृष्टांत है। अगर कल को कोर्ट आरटीआई कानून को तब तक स्थगित रखे जब तक अगली सुनवाई न हो या जब तक इस पर विचार करने का सरकार इरादा जताए, तब क्या होगा?
एक ध्यान दिलाने लायक बात। 2015 में 66ए आईटी कानून अप्रभावी बना दिया गया, फिर भी अगले कई वर्षों तक इस धारा के अंतर्गत अनगिनत एफआईआर दर्ज किए गए।
आप पर राजद्रोह में 124ए के अंतर्गत धारा लगा दी जाती है- आप चिल्लाते रहें (ज्यादा संभव है कि जेल के अंदर से ही) कि सुप्रीम कोर्ट ने यह गौरवशाली आदेश दिया है। पुलिस आपको भूलभुलैया, मतलब जिला न्यायालय से राहत लेने को कहेगी। प्रक्रिया कुल मिलाकर सजा ही है।
यथोचित कठोर और अच्छा आदेश। चल रही कानूनी कार्यवाही का औपचारिक स्थगन का मतलब होना चाहिए कि ‘आशापूर्ण और अपेक्षित’ भाषा के बावजूद अब नई कानूनी कार्यवाही का शुरू होना काफी मुश्किल भी होगा। प्रभावी ढंग सेः देशद्रोह कानून (अगली सुनवाई) कम-से-कम जुलाई तक स्थगित रहेगी।
हालांकि यह ऐतिहासिक कदम है लेकिन इसे अधिकारियों की मनमर्जी पर छोड़ना अच्छा उदाहरण नहीं होगा। क्या आपको ’लिंचिंग’ दिशानिर्देश याद हैं?
यह आदेश तो है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट केन्द्र सरकार के खिलाफ आदेश देने से बचने की अपनी प्रवृत्ति जारी रख सकती है।
इस कानून पर पुनर्विचार का सरकार का अस्पष्ट सुझाव इस मामले में पूरी तरह अप्रासंगिक है कि प्रावधान असंवैधानिक हैं या नहीं। इसे पूरी तरह हटाने की कोई समय सीमा या गारंटी निश्चित नहीं की गई है। विलक्षण बात...
क्या सचमुच ऐसा है? सुप्रीम कोर्ट द्वारा काननू की संवैधानिकता निर्धारित करने में प्रधानमंत्री की राय और उनके विचार अप्रासंगिक हैं, फिर भी शपथ पत्र खुशामद और शासन व्यवस्था की नई संस्कृति को प्रतिबिबिंत करता है। क्योंकि यह मजाक ही है कि इस शपथ पत्र को प्रस्तुत करने से महज दो दिन पहले ही केन्द्र सरकार ने शपथ पत्र में दावा किया था कि काननू समय के तकाजे पर खरा उतरा है। इसने तो काननू का अनुचित उपयोग या दुरुपयोग रोकने के लिए गाइडलाइन बनाने का सुझाव दिया था। तब, दो दिनों में ऐसा क्या हो गया कि प्रधानमंत्री का हृदय परिवर्तन हो गया?
देशद्रोह काननू की वैधानिकता से संबंधित याचिकाएं न्यूज और रिसर्च वेबसाइट Article14 की एक साल तक रिसर्च के बाद दायर की गईं। इसमें बताया गया कि 2016 और 2019 के बीच धारा 124ए के अंतर्गत दायर मामलों की संख्या 160 प्रतिशत बढ़ गई लेकिन सजा की दर 3 प्रतिशत घट गई। महाराष्ट्र कांग्रेस नेता सचिन सावंत ने दावा किया कि 2014 से 2019 के बीच देशद्रोह के कुल 326 मामले दर्ज किए गए। साथ ही उन्होंने कहा कि ‘2019 के बाद का कोई डेटा नहीं है।’
Article14 को उद्धृत करते हुए सचिन सावंत ने कहा, ‘नरेन्द्र मोदी के खिलाफ बोलने के लिए देशद्रोह के कुल 149 और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ बोलने के लिए कुल 144 देशद्रोह के मामले दर्ज किए गए।’ देशद्रोह से जुड़े डेटाबेस तैयार करने से संबंधित रिसर्च प्रोजेक्ट के प्रमुख अधिवक्ता लुभयाथी रंगराजन बताते हैं कि कुछ ऐसी ही स्थिति कश्मीर के पीएसए और यूएपीए की है- खास तौर पर जबसे ‘दयालु’ प्रधानमंत्री और उनके गृहमंत्री ने इसमें संशोधन किया है। रंगराजन का कहना है कि इन कानूनों के तहत मामला चलना अपने आप में सजा से कम नहीं। मुंबई स्थित पत्रकार कुणाल पुरोहित ने Article14 को दिए अपने रिसर्च पेपर में इस बात का खुसाला किया है कि ‘किसान आंदोलन के दौरान देशद्रोह के छह, सीएए विरोधी प्रदर्शन के दौरान 25, हाथरस गैंगरेप के बाद 22 और पुलवामा हमले के बाद 27 मामले दर्ज किए गए।’
तो इस ‘हृदय परिवर्तन’ का सबसे सीधा कारण यह है कि भारत सरकार को इस बात का आभास हो गया था कि सुप्रीम कोर्ट या तो इसे असंवैधानिक करार देते हुए रद कर देगा या फिर इसे बड़ी खंडपीठ को भेज देगा। इसीलिए भारत सरकार ने अपनी नाक बचाने की कोशिश की है। अदालत ने इस काननू पर अमल को निलंबित करते हुए इस काननू की गर्दन तो मरोड़ ही दी है। इसी वजह से प्रधानमंत्री के इस हृदय परिवर्तन का उनके आलोचकों पर कोई असर नहीं हो रहा है। वे कहते हैं, ‘यह इतना अच्छा है कि सच हो ही नहीं सकता।’ उन्हें लगता है कि और तो और, भाजपाई समर्थक भी अपने दूरंदेशी प्रधानमंत्री की ऐसी ‘सहृदयता’ पर झेंप रहे होंगे।
सरकार की परीक्षा इस बात में होगी कि ऐसे ही अन्य क्रूर कानूनों के दुरुपयोग के मामले में वह क्या फैसला करती है। आलोचकों की इस तरह की दलीलों में वाकई दम है कि अगर देशद्रोह काननू वाकई खत्म हो जाता है तो डॉ. कफील खान जैसे इसके पीड़ित शर्तिया ही वाजिब मुआवजे के हकदार भी होंग।
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