मृणाल पाण्डे का लेखः सामंती युग के भाट-चारण-विदूषक ही आज राजकीय प्रवक्ता बने, ‘जस दुलहा तस सजई बराता'
महाराष्ट्र के सियासी हलचल में गौहाटी से चौपाटी तक जो शर्मनाक और खर्चीला नाटक चला, वह सबके सामने है। ये भी सच है कि देश की मीडिया में राजनीति और मूल्यों पर बहस एक कर्कश शर्मनाक नूरा कुश्ती बन चुकी है, जिसके पीछे करोड़ों का लेनदेन है।
इस बात पर दो राय नहीं कि देश की लोकतांत्रिक प्रणाली के हित में धन-बल, भुजबल और राजकीय निगरानी संस्थाओं के बल से चल रही चुनी हुई सरकारें गिराई जाने की बाढ़ पर रोक लगना बेहद जरूरी है। हर बरस किसी-न-किसी राज्य में विधानसभा चुनाव होते हैं और उनकी आहट पाते ही उपरोक्त तमाम ताकतें कोबरा की तरह बिलों से निकलने लगती हैं। चुनाव के नियमों-उपनियमों में सेंध, प्रत्याशियों के नाम पर मीडिया में आरोपों की बाढ़ हर चुनाव में स्वस्थ नियम-कानूनों का पालन लगातार लगभग असंभव बना रही हैं। हर जोड़-तोड़ के बाद भी अगर दूसरे पक्ष की सरकार बन गई, तो तुरत उसको येन-केन गिराने का प्रयास शुरू कर दिया जाता है। वजनी नेता राज्य में जाकर टोह लेते हैं, फिर उनके खुफिया दस्ते सत्तासीन दल में असंतुष्टों की तलाश में जुट जाते हैं। फूटपरस्ती की खुराफातें इतनी महीन, इतनी परफेक्ट पहले कभी न थीं।
चुनाव अनिवार्य हैं लेकिन क्या उनके द्वारा आम जनता को अपने विकल्प खुद अपने हित स्वार्थों के अनुसार तय करने का हक नहीं? अगर सरकार जनता के एक भाग को अस्वीकार्य भी रही हो, क्या सारी वैधानिक कसौटियों पर खुद को सफल साबित करने के बाद उसको पूरे पांच साल तक अपना कार्यकौशल दिखाने का मौका नहीं दिया जाना चाहिए? महाराष्ट्र की मौजूदा सरकार कैसे बनी, सबने देखा है। इस दौरान उसने कोविड की महती दैवी चुनौती झेली, कुदरत की विनाशक बारिश का असर जहां तक संभव था संभाला और उसके गठजोड़ के साथियों ने भी किसी अशोभनीय विवाद में फंसने से गठजोड़ को बचाए रखा। फिर भी उसे अपदस्थ करने और उस बीच लगातार असहज बनाए रखने की एक अशोभन उतावली लगातार मौका गंवा चुकी ताकतों में दिखती रही। वे निरंतर गीध की तरह डैने फैलाए कभी बॉलीवुड, तो कभी मंत्रिमंडलीय सदस्यों-अफसरों पर चंचु प्रहार करते मंडराते रहे।
फिलहाल गौहाटी से चौपाटी तक जो शर्मनाक खर्चीला नाटक चला है, उसका खर्चा-पानी कहां से आ रहा है। यह बाढ़ के मटमैले जल की तरह अनपूछा सवाल है और बाढ़ग्रस्त राज्य में ऐसे अपव्यय का लगभग असहनीय नजारा मीडिया के मंच पर देश के सामने है। साफ है कि देश में राजनीति और वैचारिक मूल्यों पर बहस उस स्तर पर उतर चुकी है जब सत्तासीन सरकार की लोकतांत्रिक सफलता या विफलता या दलगत विचारधारा के सवाल तो दीगर हैं, बस सोशल मीडिया से टीवी की प्राइम टाइम बहसों तक एक कर्कश शर्मनाक नूरा कुश्ती चल रही है जिसके पीछे सबको पता है करोड़ों का लेनदेन है। जानकारों को कई तरफ से हमसे- मिल कर- रहो- वरना- ये-रहीं–तुम्हारे–कारनामों की फाइलें-जो- सीधे हवालात भेजने का जरिया बन जाएंगी की परिचित आहटें सुनाई पड़ती हैं।
यह सारा मंजर कुछ हद तक कालिदास या शेक्सपीयर के (शाकुंतलम् या किंग लियर सरीखे) उन कवित्मय नाटकों की भी याद दिलाता है जहां एक लगभग दैवी हैसियत वाले राजाधिराज फैसला लेने के बाद खुद जनता के क्या मंत्रिमंडल के भी सवाल नहीं फील्ड करते। मीडिया प्रचार का सारा एरिया उनके चंद भरोसेमंद सहचर-विदूषकों के हवाले है जो दलीय प्रवक्ता के रूप में विख्यात हैं। वे हर रोज जनता के सवालों के तीरों के बीच सवाल उठानेवालों की खिल्ली उड़़ाकर, अथवा उनको अपनी टेढ़़ी लाठी से धमकाते हुए बात को रफा-दफा करने तथा राजगरिमा की बहाली की कोशिश करते हुए रायते को कुछ और फैला आते हैं।
कतिपय खबरिया चैनलों के एंकर भी एक तरह के अघोषित सरकारी प्रतिनिधि बन ही चुके हैं। उनको बाकायदा सरकार के विरोधियों को टरकाते, धमकाते या तर्कसंगत बात के बीच टोक कर उनकी बोलती बंद करने की आजादी है। कभी विशेषज्ञों के नाम पर कुछ चित्र-विचित्र तिलकत्रिपुंडधारी बाबा या कथित इतिहासकार और जानकार बिठा दिए जाते हैं। कुल मिलाकर सामंती युग के भाट-चारण और विदूषक ही आज के चुनावी लोकतंत्र में राजकीय प्रवक्ता बन कर पुनरवतरित हो रहे हैं। ठीक भी है, राजकाज की शैली ही लोकतांत्रिकता की पटरी से उतर कर चाटुकारितामय और सामंती बन गई हो, तो ‘जस दुलहा तस सजई बराता।’
यह सब महानुभाव और जायसी की नायिका की तरह सघन केशराशि झार कर सुरग पताल अंधियारा करनेवाली ललनाएं, भारतीय लोकतंत्र की दोहरी दुनिया (जो दिन में जनहितकारी उदात्त सिद्धांतों की बात करते हैं, किंतु रात के अंधेरे में उसके उलट उसूलों पर समझौता कर लेते हैं) के बीच बनाया गया ऐसा पुल हैं जिसे अपनी विडंबनामय स्थिति की जानकारी भले हो, हूट होने पर भी अपने पक्ष के बचाव की ढाल मरते दम तक उठाए रखनी है। ऐसी स्थिति में वह टी वी पर अपने दल पर हर (सही या गलत वजह से लगे) आक्षेप पर नाटकीय आक्रामकता और फिर तर्क के खिलाफ हर फैसले को चुनावी राजनीति की ओट में सही ठहराने की कोशिश में महारथी की जगह हास्ययास्पद न दिखें तो अचरज की बात होगी।
ऐसा नहीं कि टीवी परिचर्चा युग के पहले के पार्टी नेता सूर्य और उनके काबीना सखागण चन्द्रमा हुआ करते थे, और आज के नेता प्रवक्ता उनके आगे खद्योत सम हैं। हमारी केन्द्रीय राजनीति के आसमान में प्राय: एक ही सूरज होता आया है, बहुनिंदित नेहरू परिवार को भूल जाइए, क्या अपने-अपने प्रधानमंत्रित्व के दौरान मोरार जी भाई, नरसिंह राव, वी पी सिंह, चरणसिंह, और अटल जी का प्रभावलय कोई कम था? मीडिया के सरकारी प्रचारक जुगनू ही तब भी यहां-वहां गुनगुनाते मंडराते थे। लेकिन मानना पड़़ेगा कि वे जुगनू अपेक्षया गरिमावान और मीडिया तथा जनता के बीच जाने- पहचाने चेहरे होते थे।
दलीय प्रवक्ता के रोल में राजधानियों से दूर इलाकों में भी वे बेधड़क लोकल नेता और जनता के बीच चुनाव पूर्व जनसंपर्क तथा चुनावकाल में जमीनी प्रबंधन की दोहरी ड्यूटी बखूबी भी वे संभाल सकते थे। आज हर पार्टी एकचालकानुवर्ती बन चुकी है। लिहाजा दलीय ज़़िम्मेदारियां अलग-अलग खांचों में बंट गई हैं। प्रवक्ता बनने की पहली शर्त ही है कि बंदा हाइकमान का सैटेलाइट बने ही नहीं, हाइकमान उसे सैटेलाइट मान भी ले। तदुपरांत वह सूर्य के आलोक से वह कृतकृत्य होता रहे, खुद पार्टी के बड़़े फैसलों या भीतरी कामकाज में ओहदेदारी का सपना न पाले और अपनी नगण्यता को सहर्ष झेलता हुआ मीडिया से मिलती पहचान को अपना तमगा समझे।
जब हाईकमान नामक सूर्य के कक्ष से किसी मुद्दे पर कोई विवादास्पद फैसला आता है, तो इन जुगनुओं को बता दिया जाता है कि आज शाम को टी वी पर इस मुद्दे पर उनको किस तरह डील करना है और सरकारी पक्ष के बचाव में क्या लाइन लेनी है। उत्तेजना के क्षणों में वे कभी लक्ष्मण रेखा के पार जाने लगें, तो उनको मोबाइल पर तुरत ऐसी कठोर लगाम- खींच किस्म की फटकार मिलती है कि उनकी चेहरे की बदहवासी कोई भी टी वी के पर्दे पर पढ़ सकता है।
किसी को यशकामी जीव को अगर इतनी दयनीय स्थिति और असहजता रोज झेलनी पड़़े तो उसके लिए अपना मान रखने के लिए हंसी तथा ओवरएक्टिंग से बेहतर ओट कोई नहीं। जर्मन दार्शनिक नीत्शे ने कहा भी तो है कि दुनिया में सबसे दारुण स्थिति मनुष्य की होगी यह जानकर ईश्वर ने सब प्राणियों में केवल उसको ही हंसने की क्षमता दी है। अब प्रवक्ता तो हमारी आपकी तरह परदे पर खी-खी कर नहीं सकता। शायद ही कोई ऐसा उदात्त दर्शन किसी भी दल के पास बचा हो जिसकी खुद उस दल ने चुनाव तथा अपने राजकाज के दौरान धज्जियां न उड़ाई हों।
जुमा-जुमा अढ़ाई बरस पहले पौ फटने से पहले महाराष्ट्र में किस तरह सरकार बनी, गिरी और नई सरकार ने शपथ ले कर सत्ता थाम ली थी, इसके ऑडियो-वीडियो सबके पास हैं और उनको पुनर्जीवन देना बच्चे के मुंह में चुसनी डालने की तरह आसान बन गया है। लिहाजा अपने दल की शान में कोई महान दार्शनिक बात प्रवक्ता के मुंह से निकली नहीं कि तुरत उसके खंडन में पर्दे पर पुरानी खबर के रिप्ले द्वारा बेचारे से उसे अफवाह या गलतफहमी या विपक्षी चाल कहने का मौका भी छीन लिया जाता है। 2022 में जब शिवसेना से बाहर भाग निकला हर शिवसैनिक बाला साहेब ठाकरे का अकड़फूंपट्टशिष्य और उनको अपने नए प्रखंड का पितृपुरुष बता रहा हो, तो किस दल का प्रवक्ता बिना हास्यास्पद बने किस तर्क द्वारा राज्य या मराठी अस्मिता की सुरक्षा का इकलौता पेटेंट अपने दल के वास्ते क्लेम कर सकेगा?
किसानों का दु:ख, अग्निपथ पर भटक रहे जवानों की तकलीफ, राज्य में बाढ़ और भूस्खलन से बेघर बने लोगों की भूखी असुरक्षित भीड़ यह मुद्दे बहस से अचानक बाहर हो गए हैं। मीडिया पर या तो जी-7 की सुहानी वादियों में संपन्न देशों के गोरे खाए, पिए, अघाए चेहरे कलमुंहे रूस का हुक्का पानी बंद करने की जुगतें खोज रहे हैं या फिर गौहाटी से मुंबई को धमकी भरे स्वर में अपने पास बहुमत होने का तर्क देते हुए पंचतारा होटल में गलबंहियां डाले हुए विचरते दिखते हैं। नोएडा के चैनलों पर तर्कसंगत बयानों की बजाय हमको बस यही शर्मनाक बहस सुनने को मिलती है : पर अमुक बरस तुमने भी तो..., तुम्हारे दल का अमुक नेता अमुक कुकर्म का दोषी है कि नहीं ?... और जब सब हथियार भौंथरे पड़ गए, तब कॉलर से माइक नोंच कर फेंकने या तर्जनी दिखा कर अगले की चीख से भी अधिक चीख कर हर बहस को अनर्गल अर्थहीन बनाने वाला नाटक खेला जाने लगता है। जैसा कि तुलसी बाबा कह गए, विधिबस जन कुसंगत परहीं, फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं। और क्या?
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