राम पुनियानी का लेख: जेएनयू में ‘इस्लामिक आतंकवाद’ की पढ़ाई शुरू करने के फैसले की बुनियादी दिक्कतें
हमारे विश्वविद्यालयों को आतंकवाद का एक परिघटना के रूप में अध्ययन करना चाहिए, मीडिया और वर्चस्वशाली राजनैतिक ताकतों द्वारा उत्पादित धारणाओं का नहीं। इस्लामिक आतंकवाद शब्द के लोकप्रिय हो जाने के कारण मुस्लिम युवाओं और इस पूरे समुदाय को बहुत दुख और कष्ट झेलने पड़े हैं।
पूरे विश्व, और विशेषकर पश्चिम और दक्षिण एशिया, में भयावह आतंकी हमले होते आए हैं जिनमें सैकड़ों निर्दोष लोग मारे गए हैं। मुंबई पर 26 नवंबर, 2008 को हुए आतंकी हमले में मारे गए लोगों में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही शामिल थे। बेनजीर भुट्टो आतंकियों का शिकार बनीं।
आतंकी हमलों में मरने वालों की संख्या भारत की तुलना में पाकिस्तान में कहीं अधिक है। इसी तरह यूरोप और अमेरिका की तुलना में पश्चिम एशिया में अधिक संख्या में लोग आतंकवाद के शिकार हुए हैं। दुनिया में मुसलमानों की सबसे बड़ी आबादी इंडोनेशिया में है परंतु वहां आतंकवाद का नामोनिशान तक नहीं है।
आतंकवाद मुख्य रूप से पश्चिम एशिया के देशों यानी विश्व के तेल उत्पादक क्षेत्र में एक बड़ी समस्या बनकर उभरा है। अलकायदा और आईएस के उदय के साथ इस्लाम का मुखौटा पहनकर आतंकवाद फैलाया जा रहा है। इसके पीछे कच्चे तेल के कुओं पर कब्जा करने की मंशा है। दुर्भाग्यवश सामान्य समझ यह बना दी गई है कि आतंकवाद के पीछे मुसलमान हैं और इसका कारण इस्लाम है। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 11 सितंबर, 2001 में हुए हमले के बाद यह धारणा और मजबूत हुई है। इस हमले में 3,000 से अधिक लोग मारे गए थे, जिनमें सभी देशों और सभी धर्मों के लोग शामिल थे। इसके बाद ही अमेरिकी मीडिया ने ‘इस्लामिक आतंकवाद‘ शब्द गढ़ा और इस तरह, आतंकवाद को इस्लाम और मुसलमानों से जोड़ दिया गया।
इस पृष्ठभूमि को दुहराना इसलिए आवश्यक है क्योंकि हाल में समाचारपत्रों में इस आशय की खबरें छपी हैं कि देश की सबसे प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में से एक दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में एक राष्ट्रीय सुरक्षा अध्ययन केन्द्र स्थापित किया जा रहा है, जिसके अंतर्गत विद्यार्थियों को ‘इस्लामिक आतंकवाद‘ के बारे में पढ़ाया जाएगा। यह खबर सार्वजनिक होने के बाद कई संगठनों, जिनमें दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग भी शामिल है, ने विश्वविद्यालय से इस निर्णय पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया। अधिकांश टिप्पणीकारों का कहना है कि इस तरह का पाठ्यक्रम शुरू करने से मुसलमानों के बारे में समाज में व्याप्त गलत धारणाएं और मजबूत होंगी और इससे इस्लाम के प्रति घृणा का जो वातावरण विश्व स्तर पर बन रहा है, वह और गहराएगा।
यद्यपि संयुक्त राष्ट्रसंघ भी आतंकवाद की कोई सुस्पष्ट परिभाषा नहीं दे सका है परंतु मोटे तौर पर हम यह कह सकते हैं कि राजनैतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए निर्दोष व्यक्तियों या समूहों को निशाना बनाना आतंकवाद है। यद्यपि आतंकवाद की कोई परिभाषा नहीं है परंतु ‘आतंकी घटनाओं‘ की काफी स्पष्ट अवधारणा उपलब्ध है। इतिहास गवाह है कि कई व्यक्तियों और संगठनों ने अपने राजनैतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए आतंकवाद का सहारा लिया। आधुनिक इतिहास में इनमें आईरिश रिपब्लिकन आर्मी, भारत के उत्तर-पूर्व में उल्फा, एलटीटीई आदि शामिल हैं। एलटीटीई शायद दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी संगठन था। उसके कार्यकर्ताओ ने राजीव गांधी की हत्या की थी। उसके पहले, खालिस्तानी आंदोलन के समर्थकों ने इंदिरा गांधी की जान ली थी। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि एक हिन्दू हत्यारे की गोलियों ने देश को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की छाया से वंचित कर दिया था। एंडर्स बेरहरिन ब्रेविक नामक एक व्यक्ति ने कुछ ही घंटों में 86 युवकों को मार डाला था।
इन सभी व्यक्तियों और संगठनों के राजनैतिक लक्ष्य थे परंतु निश्चित रूप से जब वे ये क्रूर हमले अंजाम दे रहे थे, तब धर्म उनका प्रेरणास्त्रोत नहीं था। जहां तक आईएस और अलकायदा के क्लोनों का सवाल है, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसके पीछे पाकिस्तान में स्थापित मदरसे थे। अफगानिस्तान पर रूस के कब्जे के बाद अमेरिका ने जानते-बूझते इस्लाम के वहाबी संस्करण में युवाओं को रंगने की योजना बनाई। कुछ पाकिस्तानी मदरसों में इन युवाओं के दिमाग में जहर भरा गया। काफिर और जिहाद जैसे शब्दों के अर्थ को तोड़ा-मरोड़ा गया। अमेरिका ने इन आतंकी संगठनों को 800 करोड़ डॉलर की मदद दी और हजारों टन हथियार मुहैया कराया। इन समूहों ने शुरूआत में अफगानिस्तान में सोवियत सेनाओं पर हमले किए और बाद में वे कई नए संगठनों के रूप में उभरे जिनमें से एक आईएस भी था। इनके एक हिस्से ने कश्मीर में घुसपैठ कर ली और वहां अलगाववादी एजेंडे को बढ़ावा देना शुरू कर दिया।
पाकिस्तान में मस्जिदों और अन्य स्थानों पर लगातार हो रहे बम धमाके हमें भस्मासुर की याद दिलाते हैं, जो अपने ही निर्माता की जान लेने पर उतारू हो गया था। साम्राज्यवादी देशों ने अपने हितों की रक्षा, जिनमें मुख्य रूप से कच्चे तेल के स्त्रोतों पर कब्जा करना शामिल था, के लिए इन समूहों और संगठनों को प्रोत्साहन दिया। अब वे अपने आकाओं के नियंत्रण में भी नहीं हैं और पूरी दुनिया में खून-खराबा और उत्पात कर रहे हैं।
अजमेर, मक्का मस्जिद, मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस बम धमाकों के बाद हिन्दुत्व आतंकवाद शब्द का जन्म हुआ। हेमंत करकरे ने अत्यंत सूक्ष्म जांच कर यह साबित किया कि मालेगांव बम धमाकों से साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, ले. कर्नल पुरोहित और असीमानंद का संबंध था। अब इनमें से अधिकांश को जमानत मिल गई है परंतु अजमेर बम धमाकों के मामले में आरएसएस के दो प्रचारकों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है। चूंकि इस्लामिक आतंकवाद शब्द पहले से ही चलन में था, इसलिए जब हिन्दुत्ववादी संगठनों के आतंकी हमलों मे शामिल होने की खबरें सामने आईं तो लोगों ने इसे हिन्दुत्ववादी आतंकवाद कहना शुरू कर दिया।
हमारे विश्वविद्यालयों को आतंकवाद का एक परिघटना के रूप में अध्ययन करना चाहिए, मीडिया और वर्चस्वशाली राजनैतिक ताकतों द्वारा उत्पादित धारणाओं का नहीं। इस्लामिक आतंकवाद शब्द के लोकप्रिय हो जाने के कारण मुस्लिम युवाओं और इस पूरे समुदाय को बहुत दुख और कष्ट झेलने पड़े हैं। मक्का मस्जिद, मालेगांव, अजमेर आदि धमाकों में पीड़ित भी मुख्य रूप से मुसलमान थे और जिन्हें इनका दोषी मानकर जेल की सलाखों के पीछे कर दिया गया, वे सभी मुसलमान थे। इनमें से अधिकांश का करियर नष्ट हो गया।
जेएनयू में इस तरह का पाठ्यक्रम शुरू करने से इस्लाम के प्रति नफरत बढ़ेगी और मुस्लिम समुदाय में व्याप्त असुरक्षा का भाव भी। इस पाठ्यक्रम को शुरू करने के विरोध में जो संगठन और व्यक्ति आवाज उठा रहे हैं, उनकी राय को सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। एक राजनैतिक परिघटना के तौर पर आतंकवाद के अध्ययन से किसी को आपत्ति नहीं हो सकती परंतु यह अध्ययन निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ होना चाहिए और इसमें समाज में व्याप्त पूर्वाग्रहों और घिसी-पिटी अवधारणाओं के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
(यह लेखक के अपने विचार हैं और इससे नवजीवन की सहमति अनिवार्य नहीं है)
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