आकार पटेल का लेख:सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर हिंदूवादियों का गुस्सा खुद ही दम तोड़ देगा
जो लोग अभी इस बात से उद्धेलित हैं कि परंपराओं का हनन हो रहा है, उनका गुस्सा भी ठंडा पड़ जाएगा। वह लोग जो दलितों को मंदिर से दूर रखने की कोशिश कर रहे थे, उनका अता-पता नहीं है। वे कहीं गए भी नहीं हैं, लेकिन उनके विचार बदल गए हैं और हमारा समाज भी बदला है।
केरल ने 2016 में लेफ्ट फ्रंट यानी वाम मोर्चे को सत्ता में पहुंचाया। कांग्रेस को इस चुनाव में हार मिली और उसे 7 फीसदी वोटों का नुकसान हुआ। नुकसान वादलों को भी 2 फीसदी वोटों का हुआ। और जिस अकेली पार्टी को वोटों का फायदा हुआ उसका नाम है बीजेपी। उसका वोट शेयर 9 फीसदी बढ़ा जो कि पिछले चुनाव के मुकाबले दो गुना से भी ज्यादा बढ़कर 15 फीसदी तक पहुंच गया।
वोट शेयर में यह एक बड़ा उछाल था और बीजेपी कार्यकर्ताओं का जोश बढ़ाने वाली बात थी, लेकिन ऐसा तो पूरे देश में हो रहा था। गुजरात में 1970 के मध्य तक जनसंघ (पहले बीजेपी का नाम जनसंघ था) को सिर्फ 2 या 3 फीसदी वोट मिलते थे। लेकिन पार्टी नेतृत्व जुटा रहा और बिना किसी निजी स्वार्थ के संगठन को मजबूत करने में लगा रहा। पहले इमरजेंसी और फिर बाद में अयोध्या आंदोलन ने जनसंघ और फिर बीजेपी को अपना आधार बढ़ाने का मौका दिया और उसने इस मौके का भरपूर फायदा भी उठाया।
आप बीजेपी पर धार्मिक मुद्दों को उठाने और राजनीतिक फायदे के लिए विभाजनकारी नीतियां अपनाने का आरोप लगा सकते हैं, लेकिन आप यह नहीं कह सकते कि वह अपने मकसद में कामयाब नहीं हुई।
पाठक जानते हैं कि आरएसएस और बीजेपी ने केरल में भी काफी कुछ किया है, लेकिन यहां उसके जनाधार में जो वृद्धि हुई है, वह हिंसा से सनी हुई है। आरएसएस, बेजेपी और वाम दलों के कई कार्यकर्ता मारे गए। और वर्चस्व की लड़ाई अब पड़ोसियों के बीच तक पहुंच चुकी है।
2016 के चुनाव में बीजेपी मात्र एक सीट जीतने में कामयाब रही, लेकिन तय मानकर चलिए कि अगले चुनाव में यह एक मुख्य दल के तौर पर मैदान में होगी। सबरीमाला मुद्दा का बीजेपी ने जिस आक्रामक तरीके से इस्तेमाल किया है उससे निश्चित तौर पर उसे अगड़ी जातियों के वोट हासिल करने में मदद मिलेगी जो सबरीमाला में महिलाओं समेत सभी भारतीय नागरिकों के प्रवेश की अनुमित दिए जाने से बेहद गुस्से में हैं।
लेकिन, इस सबमें सबसे बड़ी जीत महिलाओं की होगी और उन लोगों की होगी जिन्होंने परंपरा के बजाए व्यक्तिगत अधिकारों की लड़ाई लड़ी। खबरें आईं कि बीते दो-एक दिनों में तीन महिलाओं ने मंदिर में प्रवेश कर दर्शन किए। उदारवादियों के लिए यह एक अच्छी खबर है। अभी तक महिलाओं को मंदिर में प्रवेश और पूजा करने की इजाजत नहीं थी, और इस मुद्दे पर भावनाओं का ज्वारभाटा फूट रहा था।
लेकिन जैसे-जैसे और महिलाएं मंदिर में प्रवेश करेंगी, मामला ठंडा पड़ता जाएगा।
हमने देश में ऐसे ही मुद्दे पर ऐसा ही माहौल पहले भी देखा है। 1930 के दशक में मुद्दा था कि दलितों को मंदिर में प्रवेश की इजाजत हो या न हो। हिंदू दक्षिणपंथियों ने महात्मा गांधी का विरोध किया, उनके खिलाफ धरने दिए। अहमदाबाद में स्वामीनारायण पंथ ने अपने आपको गैर हिंदू घोषित कर दिया ताकि दलित मंदिर से बाहर ही रहे। स्वामीनाराणय पंथ के कर्ताधर्ता पटेल समुदाय है। उन्होंने ऐसा इसलिए किया ताकि बॉम्बे हरिजन टेम्पल एंट्री एक्ट उन पर लागू न हो।
लेकिन, हम जानते हैं कि ऐसे चलता नहीं है। आखिरकार हम किसी परंपरा के नाम पर भेदभाव कैसे कर सकते हैं और समय आने पर हमेशा सही बात और तर्क ही माना जाता है।
पटेल समुदाय लंबे समय तक दलितों को मंदिरों से दूर रखने का मुकदमा लड़ता रहा और आखिरकार सुप्रीम कोर्ट में हार गया। फैसला देते वक्त जजों ने कहा कि, “हरिजनों के मंदिर में प्रवेश का अधिकार, संविधान में उन्हें मिले सभी सामाजिक सुविधाओं, अधिकारों, सामाजिक न्याय और जीवन के लोकतांत्रिक मूल्यों का प्रतीक है।”
आज भी अदालत का यह मत सही है और कोई भी इसके इतर नहीं जा सकता।
केरल में भी ऐसा ही होगा। आने वाले महीनों या वर्षों में वहां भी यह सामान्य बात होगी कि हर उम्र की महिलाएं मंदिर में जाएं। जो लोग अभी इस बात से उद्धेलित हैं कि परंपराओं का हनन हो रहा है, उनका गुस्सा भी ठंडा पड़ जाएगा। वह लोग जो दलितों को मंदिर से दूर रखने की कोशिश कर रहे थे, उनका अता-पता नहीं है। वे कहीं गए भी नहीं हैं, लेकिन उनके विचार बदल गए हैं और हमारा समाज भी बदला है। आज कोई यह दावा नहीं कर सकता कि व्यक्तिगत अधिकारों के मुकाबले परंपरा ज्यादा महत्वपूर्ण है।
आने वाले वर्षों में हम इस बात पर आश्चर्य करेंगे कि हम 2019 में महिलाओं के मंदिर में प्रवेश को लेकर आंदोलित थे।
समाद के कट्टरपंथी तत्व हमेशा सुधारों और उदारवाद को रोकते हैं क्योंकि उनके हिसाब से यह परंपराओं का हनन करते हैं। लेकिन जब ये लोग दलितों के मामले में लड़ाई हार गए तो इन्हीं कट्टरपंथी लोगों ने नया मुद्दा पकड़ा और अब महिलाओं को मंदिर जाने से रोक रहे हैं। आने वाले दिनों में इनके हाथ में ऐसा ही कोई और मुद्दा होगा, यह फिर गुस्सा दिखाएंगे और फिर खुद ही हार मानकर पीछे हट जाएंगे।
इस तरह देखें तो परंपराओं की हार से बीजेपी को क्षणिक राजनीतिक लाभ तो मिलता है, लेकिन इसका दीर्घकालीन लाभ समाज को मिलता है जो संविधान सम्मत अधिकारों के लिए संघर्ष करता है।
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