तेजी से बढ़ रहे धार्मिक कार्यक्रमों का मकसद है राजनीति को नियंत्रित और संचालित करना

छत्तीसगढ़ और बिहार में धार्मिक कार्यक्रमों के आयोजन समाज के भीतर से उपजी स्वभाविक सांस्कृतिक गतिविधि का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि वह राजनीतिक उद्देश्यों से नियंत्रित और संचालित धार्मिक कार्यक्रम हैं।

फोटो: सोशल मीडिया
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अनिल चमड़िया

छत्तीसगढ़ से कुछ लोग दिल्ली आए थे। वे छत्तीसगढ़ में अगामी चुनाव को लेकर विश्लेषण कर रहे हैं। उन्होने ये बताया कि वहां धार्मिक कार्यक्रम बड़े पैमाने पर करने की तैयारी की जा रही है तो यह समझना जरूरी लगा कि चुनाव से धार्मिक कार्यक्रमों का क्या रिश्ता है? यह प्रश्न पहले भी बिहार के संदर्भ में उठा है। बिहार में गांवों के स्तर पर बड़े पैमाने पर हिन्दू कर्मकांडों से जुड़े धार्मिक कार्यक्रम होने लगे हैं। परंपरागत उत्सव खत्म हो गए हैं। मेले की जगह यक्ष हो रहे हैं। घुमने का मतलब दर्शन और तीर्थ के लिए जाना हो चुका है। महिलाएं शिव चर्चा जैसे कार्यक्रमों में जमा होती हैं।

सांस्कृतिक कार्यक्रमों की जगह होने वाले धार्मिक आयोजन का राजनीति के साथ रिश्ता सीधा दिखता है। किसी भी तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम के राजनीति से रिश्ते को इस तरह से समझा जा सकता है। समाज के जो हालात हैं उस पर आधारित जब कोई गीत सुनाता है तो वह सुनने वालों के भीतर एक खास तरह का भाव पैदा करता है। हालात में परिवर्तन करने वाले क्रांतिकारियों के जीवन पर आधारित कोई नाटक करता है तो उसे देखने वालों के भीतर एक जोश पैदा होता है। सामान्य तौर पर जब कोई फिल्म देखकर निकलता है तो जिस तरह की फिल्में होती है उसी तरह के भाव के साथ दर्शक बाहर आता है। इस तरह जब भी कोई भाव पैदा होता है तो वह एक बड़े सिलसिले की कड़ी बनता है। जब वह कड़ी उस कार्यक्रम के बाहर की कड़ियों से एक के बाद एक जुड़ती जाती है तो भावों की कड़ी एक विचार के रूप में परिवर्तित हो जाती है। एक ही तरह की कड़ी से जुड़े रहने वाले उसी तरह से जीने और सोचने लगते हैं। इसीलिए इन कार्यक्रमों का बहुत महत्व होता है। वह दर्शक, श्रोता, पाठक और भागीदार के अंदर एक कड़ी तैयार करता है। दुनिया भर में यह मशहूर है कि संस्कृति राजनीति के आगे-आगे चलने वाली मशाल होती है। यह बात एक खास तरह की राजनीति के संदर्भ में जरूर कही गई है, लेकिन वह तमाम तरह की राजनीतिक विचारधाराओं के साथ लागू होती है। इसका अर्थ यह निकाला जा सकता है कि जितने सांस्कृतिक कार्यक्रम होंगे और उनमें जितनी ज्यादा लोगों की प्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष हिस्सेदारी होगी उस राजनीतिक विचारधारा का विस्तार होगा।

हम सांस्कृतिक कार्यक्रम से सीधे राजनीतिक विचारधारा तक क्यों पहुंच रहे हैं? जैसे एक नदी कहां से निकलती है और एक निश्चित जगह पहुंचती है। इसी तरह सांस्कृतिक कार्यक्रमों से पैदा होने वाले भावों के भी एक ठिकाने पर पहुंचने का स्थान राजनीतिक विचारधारा है क्योंकि अंतत: हम राजनीतिक विचारधाराओं द्वारा संचालित व्यवस्थाओं में रहते हैं। विचारधारा एक पूरी व्यवस्था की रूपरेखा का ही नाम है।

सांस्कृतिक कार्यक्रमों से जो भाव पैदा होता है उस भाव की अगली कड़ी उस सांस्कृतिक कार्यक्रम के बाहर की कौन सी गतिविधि में मिलती है, यह महत्वपूर्ण होता है। उसे उस वक्त एक ऐसे सहारे की जरूरत होती है जो कि उस भाव को थोड़ी मजबूती दें।

इस तरह राजनीतिक विचारधाराएं अपने अनुकूल भाव अंकुरित करने और मजबूत करने के लिए तरह-तरह की गतिविधियों को संचालित और नियंत्रित करती हैं। लेकिन हमने यह प्रश्न छत्तीसगढ़ के संदर्भ में उठाया और बिहार का संदर्भ देकर उसे विस्तार देने की कोशिश की है। लिहाजा दूसरे तमाम तरह के सांस्कृतिक गतिविधियों की बजाय धार्मिक आयोजनों की बढ़ती तादाद के राजनीतिक कारणों पर आते हैं।

धार्मिक कार्यक्रमों को हम सांस्कृतिक गतिविधियों के दायरे में देखते हैं। लेकिन एक फर्क हैं। हम उन धार्मिक कार्यक्रमों को सांस्कृतिक दायरे में रखते रहे हैं जिसमें तमाम तरह की सांस्कृतिक गतिविधियों की ध्वनी सुनाई दे सके। जिस तरह के धार्मिक कार्यक्रमों की चर्चा हम कर रहे हैं, उनका उद्देश्य एकाधिकार का है और तमाम तरह के सांस्कृतिक गतिविधियों को विस्थापित करना है या फिर अपनी संस्कृति को थोपना है। छत्तीसगढ़ और बिहार में धार्मिक कार्यक्रमों के आयोजन समाज के भीतर से उपजी स्वभाविक सांस्कृतिक गतिविधि का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि वह राजनीतिक उद्देश्यों से नियंत्रित और संचालित धार्मिक कार्यक्रम हैं। इसीलिए उसका स्वरूप बिल्कुल भिन्न है। उसमें लाउडस्पीकर इतना तेज बजता है कि वह आक्रामक भाव पैदा करता है।उनमें लोगों के भीतर आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा बोध को एक चेतना में तब्दील करने के बजाय उसे कर्माकांडों से घेरने की कोशिश होती है। उनमें डर के भाव का उत्पादन होता है। अतीत की भव्यता से वर्तमान के हालात और उसके कारणों की तरफ नजरों को जाने से रोकने की कोशिश दिखती है। नागरिक की अवधारणा स्वतंत्रता और समानता की राजनीतिक चेतना से जुड़ी है। लेकिन ये धार्मिक आयोजन नागरिक की अवधारणा की ताकत को कमजोर करने में कामयाब होते हैं। वे भक्त होने का भाव पैदा करते है।

धार्मिक आयोजन किस तरह की राजनीतिक विचारधारा की तरफ भक्तों को ले जाते हैं? इसी प्रश्न की गुत्थी को हमें सुलझाना है। धार्मिक आयोजन जिस तरह के भाव की एक कड़ी तैयार करते हैं, उसकी गूंज राजनीतिक परिदृश्य में जहां सुनाई पड़ती है उस तरफ वह भक्त बढ़ जाता है। हम क्यों देखते हैं कि धार्मिक कार्यक्रमों में जो आक्रामकता दिखती है वह राजनीतिक स्तर पर हिन्दुत्ववादी संगठनों और उनके लिए चुनाव लड़ने वाली पार्टी के रूप में बीजेपी के नेताओं में दिखाई देता है। बीजेपी के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम कर्मकांडों से शुरू होते हैं और उसी में खत्म होते हैं। दरअसल धार्मिक आयोजनों से पैदा होने वाले भावों का रास्ता राजनीतिक स्तर पर बीजेपी की तरफ ही जाता है। इसीलिए जितने ज्यादा धार्मिक आयोजन होंगे, साधु संत के वेश में भाषण देने वाले सक्रिय होंगे, उनसे बीजेपी को उतनी ही ज्यादा मजबूती मिलती है। पार्टियां इसी भक्ति-भाव का राजनीतिक प्रतिनिधित्व करने की होड़ में लगी हुई है।

दरअसल धार्मिक आयोजनों की तादाद से ज्यादा जरूरी यह पहलू है कि उन आयोजनों को कैसे अंजाम दिया जाता है। जैसे दूरदर्शन में ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ की प्रस्तुति की भव्यता और आक्रामकता ने एक अलग तरह का भाव दर्शकों में पैदा किया। श्याम बेनेगल की ‘भारत एक खोज’ में रामायण और महाभारत की सादगी दर्शकों में एक इतिहास बोध का भाव पैदा करने तक सीमित रहती है। रामायण और महाभारत की प्रस्तुति की भव्यता और आक्रमकता का जो राजनीतिक स्तर पर विस्तार हुआ वह हिन्दुत्ववाद की राजनीति की तरफ गया। इस तरह चुनाव के पहले या चुनाव के इरादे से धार्मिक आयोजनों की राजनीति एक नई प्रवृति के रूप में तेजी से बढ़ी है। धार्मिक आयोजनों से होने वाला राजनीतिक उत्पाद समाज की बुनियादी समस्याओं को और विकराल कर रहा है।

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