खरी-खरीः जेएनयू में आतंक ‘मोदी शो’ था, मकसद वामपंथियों-उदारवादियों को सबक सिखाना
देश का छात्र, नौजवान और भारत की गंगा-जमुनी सभ्यता में रचा-बसा आमजन अब जाग चुका है। जामिया और जेएनयू ने मिलकर मोदी की राजनीति में जो सेंध लगाई, वह अब देशव्यापी आंदोलन का रूप ले रही है। जनता का आक्रोश जिस तेजी से फैल रहा है, वह मोदी को 2024 में डुबो सकता है।
पांच जनवरी को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में तीन घंटे तक चले आतंक के पश्चात एक अजीब प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। वह प्रश्न हैः आखिर दिल्ली पुलिस जेएनयू के गेट पर खामोश तमाशाई बनी क्यों खड़ी रही, जबकि यूनिवर्सिटी परिसर के भीतर कथित तौर पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के नकाबपोश खुली गुंडई और आतंक फैलाते रहे। यह मुद्दा बेमानी है। क्योंकि भारत में बच्चा-बच्चा यह जानता है कि इस देश की पुलिस वही करती है जो उसके राजनीतिक आका उसको करने को कहते हैं।
इसका एक उदाहरण गुजरात के साल 2002 के दंगे हैं। तीन दिन तक गुजरात जलता रहा और पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी सब देखती रही। उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी को भले ही कोर्ट-कचहरी इस मामले में सीधा दोषी नहीं मानती हो, लेकिन इतिहास मोदी को गुजरात दंगों के लिए कभी ‘क्लीन चिट’ नहीं देगा। अर्थात गुजरात दंगों के समय वहां के राजनीतिक आका का खुला इशारा था कि पुलिस दंगाइयों को वह सब कुछ करने दे जो वे करना चाहते हों। सो पुलिस खड़ी तमाशा देखती रही और तीन दिन तक गुजरात में नरसंहार चलता रहा।
बस यही जेएनयू में भी हुआ। उस समय अहमदाबाद जल रहा था और वहां नरेंद्र मोदी पुलिस के आका थे। पिछले रविवार यानी पांच जनवरी को जेएनयू में आतंकी हमला चल रहा था उस समय भी दिल्ली में नरेंद्र मोदी ही विराजमान थे। गुजरात दंगों और जेएनयू हमले में अंतर सिर्फ इतना है कि गुजरात दंगे तीन दिन तक चले थे, पर जेएनयू में आतंक तीन घंटे तक चला। पुलिस किसी भी जुर्म की खामोश तमाशाई तब ही होती है जब उसको राजनीतिक स्तर पर यह इशारा दिया जाए। अतः जेएनयू को लेकर पुलिस का जो रवैया रहा उससे साफ है कि उसे खुले आदेश थे।
और ये भी साफ है कि नरेंद्र मोदी को जेएनयू मामले में मासूम नहीं ठहराया जा सकता है। भले ही यह आदेश स्वयं पीएम मोदी ने सीधे पुलिस को नहीं दिए हों। ऐसे में उनकी जगह यह काम उनके सिपहसालार अमित शाह ने किए होंगे जो इस समय गृह मंत्री की हैसियत से दिल्ली पुलिस के आका हैं। लब्बोलुआब यह है कि जेएनयू की भयावह हिंसा नरेंद्र मोदी का रचा षड्यंत्र था जिसको दिल्ली पुलिस ने अमित शाह के इशारे पर लागू करवाया।
परंतु सवाल यह है कि नरेंद्र मोदी को जेएनयू के इस आतंकी हमले से क्या लाभ? गुजरात दंगों ने तो मोदी को हिंदू हृदय सम्राट बना दिया था और इस छवि को भुनाकर वह दिल्ली के सिंहासन पर आसीन हो गए। पर ऑपरेशन जेएनयू से मोदी को क्या राजनीतिक लाभ मिला? कम से कम अभी जो दिखाई पड़ रहा है उससे तो यही लगता है कि जेएनयू की घटना से बीजेपी और मोदी को राजनीतिक क्षति पहुंच सकती है। फिर नरेंद्र मोदी ने ऐसा क्यों किया?
दरअसल जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी से संशोधित नागरिकता कानून के विरूद्ध उठी शहरी बगावत ने नरेंद्र मोदी को घबरा दिया। तमामतर ‘मीडिया मैनेजमेंट’ के बावजूद जामिया से उठी क्रांति न तो दब रही थी और न ही मोदी सरकार के लिए उसको रोक पाना संभव दिखाई पड़ रहा था। वह केवल अब छात्र आंदोलन ही नहीं था। संशोधित नागरिकता कानून पर तो सारे भारत में नागरिकों का गुस्सा उबाल पर था जो सड़कों पर उबल पड़ा। और इस आंदोलन की सबसे खतरनाक बात नरेंद्र मोदी के लिए यह थी कि इस आंदोलन में हिंदू-मुसलमान दोनों एक थे।
इसका मैं एक उदाहरण देता हूं। हैदराबाद में दस लाख लोगों ने इस कानून के विरूद्ध जो मोर्चा निकाला उसमें करीब 70 साल के मित्रमोहन गुरुस्वामी नामक व्यक्ति हाथ में पोस्टर पकड़े एक नौजवान मुस्लिम लड़के के साथ खड़े थे। मोहन अभी हाल तक बीमार थे। चल भी नहीं पाते थे। वही मोहन सब कुछ भूलकर एक मुस्लिम बच्चे के साथ खड़े होकर नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे। ऐसे ही जामिया में रेखा नाम की एक हिंदू छात्रा हिजाब बांधकर अपनी मुस्लिम बहनों के साथ इस कानून का विरोध कर पुलिस से लड़ रही थी।
बस यही एक बात थी कि जिसने नरेंद्र मोदी, बीजेपी और संघ तीनों को विचलित कर दिया। पूरे संघ परिवार में खलबली मच गई। क्योंकि संशोधित नागरिकता कानून के विरोध पर उभरती हिंदू-मुस्लिम एकता नरेंद्र मोदी की संपूर्ण राजनीति की खुली हार थी। यदि हिंदू-मुस्लिम एक हो जाएं तो फिर तो मोदी का राजनीतिक अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है। साल 2002 में गुजरात दंगों से लेकर 2019 के बालाकोट हमले तक मोदी की राजनीति का आधार जनता के बीच एक काल्पनिक शत्रु खड़ा कर और अंततः उसका वध कर स्वयं हिंदू हृदय सम्राट की उपाधि से सुसज्जित होना रहा है। लेकिन हिंदू-मुस्लिम एकता से नरेंद्र मोदी की यह राजनीति पूरी तरह से ध्वस्त हो जाएगी। भला आप ही सोचिए कि साल 2014 से जो नरेंद्र मोदी किसी सुल्तान के समान देश पर छाया हो वह भला कैसे अपना संपूर्ण राजनीतिक आधार बिखरते देख सकता है। स्वभाविक है कि मोदी हड़बड़ा उठे और उसी हड़बड़ाहट में ऑपरेशन जेएनयू हो गया।
लेकिन जेएनयू में किए गए खुल्लमखुल्ला आतंक से क्या लाभ? सच तो यह है कि जामिया और जेएनयू मोदी का अंत सिद्ध हो सकते हैं। यह बात तो मोदी जैसे मझे राजनीतिक कलाकार को समझनी ही चाहिए थी। नरेंद्र मोदी कोई बहुत बड़ी सोच और विचारों अथवा बड़ी दूरदृष्टि वाले नेता नहीं हैं। हिंदुत्व की संकीर्ण राजनीति में पनपे मोदी वही कर सकते हैं जो उनकी समझ है। वह गुजरात दंगों जैसी भयभीत करने वाली रणनीति ही समझते हैं। पर जेएनयू में रचे आतंक से नरेंद्र मोदी किसको भयभीत करने की चेष्टा कर रहे थे। यह समझने के लिए फिर जामिया वापस चलना पड़ेगा।
15 दिसंबर की रात दिल्ली पुलिस ने जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में जो आतंक मचाया था उसका राजनीतिक उद्देश्य यह था कि नागरिकता कानून के मामले को हिंदू-मुस्लिम विभाजन का रंग दे दिया जाए। इसके लिए ही जामिया और एएमयू चुने गए। लेकिन जेएनयू और दिल्ली में उपस्थित वामपंथी तथा लिबरल विचार के छात्रों एवं नौजवानों ने तुरंत जामिया पहुंचकर और दिल्ली पुलिस हेडक्वाटर घेरकर इस षड्यंत्र को नाकाम बना दिया। और बस फिर दूसरे रोज से मानो संशोधित नागरिकता कानून के विरूद्ध पूरे देश में हिंदू-मुस्लिम एकजूट होकर सड़कों पर निकल पड़े।
बस यहीं पर, साल 2002 से अब तक नरेंद्र मोदी ने जिस राजनीति का ताना-बाना बुनकर इस देश को अपने शिकंजे में लिया था उस ताने-बाने को जामिया और जेएनयू ने मिलकर मानो तोड़ दिया। बस बौखलाए मोदी ने यह तय किया कि वह अब इस देश के वामपंथी और लिबरल विचार के प्रतीक जेएनयू को सबक सिखाएंगे। इसलिए पांच जनवरी को जेएनयू में जो आतंकी तांडव रचा गया उसके लिए नरेंद्र मोदी स्वयं जिम्मेदार हैं। जाहिर है कि पुलिस जेएनयू के गेट के बाहर चुपचाप खड़ी वही कर रही थी जो मोदी के सिपहसालार शाह का हुकूम था।
लेकिन मोदी से बड़ी भूल हो गई। देश का छात्र, नौजवान और इस देश की गंगा-जमुनी सभ्यता में रचा बसा आमजन अब जाग चुका है। जामिया और जेएनयू ने मिलकर मोदी की राजनीति में जो सेंध लगाई है वह अब देशव्यापी आंदोलन का रूप ले रही है। जनता का आक्रोश जिस तेजी से फैल रहा है वह नरेंद्र मोदी को साल 2024 में डुबा भी सकता है। लेकिन 2024 तक अभी चार साल का समय बचा है। इन चार सालों में देश को जेएनयू जैसे कितने तांडव देखने पड़ेंगे, इस खतरे से इनकार नहीं किया जा सकता है। अतः अब राजनीतिक दलों का यह फर्ज बनता है कि जामिया-जेएनयू से क्रांति और आंदोलन की जो चिंगारी फूटी है, वे उसको एक राजनीतिक स्वरूप देकर मोदी के शासन के अंत को अंजाम तक पहुंचाएं। यह काम राजनीतिक दलों का है और उसके लिए उन्हें कमर कस लेनी चाहिए।
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