हनीमून से तलाक तक की मौका परस्त कहानी: सुरक्षा हितों को छोड़ बिछाए थे पलक-पांवड़े, आज यह बेरुखी!

मोदी और शी जिनपिंग के व्यक्तिगत संबंध साबरमती के रिवर फ्रंट पर दिखे जिसमें जिनपिंग को मोदी झूले पर झुला रहे थे। इसका नतीजा यह हुआ कि गुजरात के विभिन्न प्रतिनिधि मंडलों ने निवेश के लिए चीन के विभिन्न इलाकों का दौरा किया।

फोटो: सोशल मीडिया
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भाग्यश्री पांडे

मैंडरिन क्लासेज इन अहमदाबाद टाइप करते ही स्क्रीन पर एक से एक विकल्प उभर आएंगे- “टॉप10 मैंडरिन कोचिंग इस्टीट्यूट इन अहमदाबाद” से लेकर “टॉप20 सेंटर्सइन अहमदाबाद फॉर मैंडरिन क्लासेज” तक। नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री रहने के दौरान गुजरात ने दिल खोलकर चीन को लुभाया और उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद तो इसमें और तेजी आ गई। लेकिन दूसरे कार्यकाल में आखिर क्या हो गया?

मोदी और शी जिनपिंग के व्यक्तिगत संबंध साबरमती के रिवर फ्रंट पर दिखे जिसमें जिनपिंग को मोदी झूले पर झुला रहे थे। इसका नतीजा यह हुआ कि गुजरात के विभिन्न प्रतिनिधि मंडलों ने निवेश के लिए चीन के विभिन्न इलाकों का दौरा किया। अडानी समूह द्वारा संचालित मुंद्रापोर्ट ने 5,700 समुद्रीमील दूर स्थित शंघाई पोर्ट के साथ ‘सहयोगी पोर्ट’ के समझौते पर दस्तखत किया और गोड्डा (झारखंड) में बिजली संयंत्र लगाने के लिए अडानी पावर ने चीन का सहयोग प्राप्त किया। इस साल जनवरी में गोड्डा में कुल मिलाकर 80 चीनी इंजीनियर आए।

मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी चीन जाते रहते थे। एक बार तो भारत सरकार से अनुमति नहीं मिलने के बावजूद मोदी हांगकांग होते हुए चीन गए। चीन में भारतीय राजदूत को तब बड़ी झेंपका सामना करना पड़ा जब मोदी बीजिंग स्थित भारतीय दूतावास पहुंचे और राजनयिकों और कर्मचारियों से व्यक्तिगत रूपसे मिले। 2014 में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने, तब चीन की मीडिया में भी गुजरात मॉडल की तारीफ में लेख छपे। तोक्यो में प्रधानमंत्री मोदी ने ऐलान किया था कि व्यवसाय उनकी रगों में दौड़ता है और अगर उन्हें आकर्षक डील मिले तो वह किसी से भी व्यापार करने को तैयार हैं।

2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान मोदी ने यूपीए की चीन नीति का माखौल उड़ाया था और चीन की विस्तारवादी नीतियों के प्रति चिंता जताते हुए आरोप लगाया था कि यूपीए ने चीन को भारतीय भूभाग में घुसपैठ और कब्जा करने दिया। दावा किया कि अगर वह प्रधानमंत्री बने तो चीन भारत का बाल भी बांका नहीं कर पाएगा।

लेकिन गौर कीजिए, क्या हुआ जब मोदी प्रधानमंत्री बन गए। उनकी सरकार चीन के साथ व्यवसाय में ज्यादा इच्छुक रही। चीन की कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए नियम-कायदे आसान बनाए गए जिसका नतीजा यह हुआ कि भारत में चीनी निर्यात की बाढ़ आ गई। कंप्यूटर और मोबाइल के उपकरणों से लेकर पटाखे और गणेश की मूर्तियां तक चीनी उत्पादों से हमारे बाजार पट गए। यहां तक कि चीन में बने लैंप और टॉर्च जैसे दैनिक उपयोग के सामान देश में बने सामान से कम कीमत पर उपलब्ध हो गए। विशेषज्ञों ने चिंता भी जताई कि चीन भारत में अपने उत्पादों की ढेर लगा रहा है लेकिन दोनों देशों के बीच चल रहे हनीमून पर इसका कोई असर नहीं पड़ा।


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शुरू-शुरू में चीनी कंपनियों ने गुजरात के औद्योगिक क्षेत्रों में परियोजनाएं लगाईं लेकिन 2014 के बाद वे बड़े पैमाने पर विस्तार करने लगीं और गुजरात में जमीन भी खरीदने लगीं। उन्होंने कच्छ और राजकोट में इकाइयां लगाने के लिए बड़े भू-भाग खरीदने की इच्छा भी जताई। चीन की नजर गुजरात के समुद्री तट पर थी जहां के बंदरगाहों से वह अफ्रीका और खाड़ी के देशों तक निर्यात कर सकता था। चीन से इन इलाकों के लिए समुद्री रूट बहुत लंबा है और अगर चीन के कंटेनर सड़क मार्ग से गुजरात के बंदरगाहों तक आ पाते तो पैसे और समय- दोनों की बहुत बचत हो जाती।

चीन की सरकारी बंदरगाह कंपनी गुआनझाउ पोर्ट ने अडानी के स्वामित्व वाले मुंद्रा पोर्ट में 2018 में निवेश किया और तकनीकी विशेषज्ञता साझा की। गौर करने की बात है कि मुंबई और तूतीकोरिन-जैसे बंदरगाहों में सुरक्षाकारणों से चीनी निवेश की इजाजत नहीं है जबकि मुंद्रा पोर्ट के मामले में ऐसी चिंताओं को दरकिनार कर दिया गया।

सत्तर देशों को साथ लेकर चीन द्वारा चलाई जा रही मेगा इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजना ओबीओआर के प्रति भारत के विरोध ने चीन को ठेस पहुंचाई है। भारत ओबीओआर का इसलिए विरोधकर रहा है किइसका भाग सीपीईसी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से हो कर गुजरता है। ओबाओआर परियोजना 2013 में शुरू की गई और चीन ने कभी भी अपने इस मत को व्यक्त करने में हिचक नहीं दिखाई कि ओबीओआर में भारत के शामिल होने से इस क्षेत्र के सभी देशों का भला होगा। लेकिन चीन द्वारा पाकिस्तान के ग्वादर में भी बंदरगाह विकसित किए जाने के कारण भारत की आशंकाओं को मजबूती मिली। ओबीओआर के तहत अक्साई चिन और तिब्बत होते हुए काशगर कॉरिडोर को विकसित किया जाना है। चीन ने इन दोनों क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण और खनन गतिविधियां शुरू की हैं और अब इसे सीपीईसी कॉरिडोर से जोड़ना चाहता है।

ओबीओआर पर भारत के विरोध को अमेरिका का समर्थन भी चीन को नागवार गुजरा है। भारत और अमेरिका के संयुक्त सैनिक अभ्यास के अलावा भारत का अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ क्वाड समूह में शामिल होना भी चीन को अशांत कर गया होगा। ओबीओआर चीनी राष्ट्रपतिशी जिनपिंग का महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है और आर्थिक तौर पर चीन को महाशक्तिमान बनाने की उनकी रणनीतिका हिस्सा है। इस प्रोजेक्ट से आर्थिक और रणनीतिक नजरिये से सबसे ज्यादा नुकसान अमेरिका को होने जा रहा है। भारत के अमेरिका की ओर झुकने का तनाव भी भारत-चीन रिश्तों पर पड़ा होगा। माना जा रहा है कि अक्साई चिन और तिब्बत में हान चीनियों को बसाने के लिए वहां तैयार किए जा रहे औद्योगिक तथा आवासीय इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए चीन श्योक, गलवान और चांग चेनमो नदियों का पानी इन इलाकों में डायवर्ट करेगा। लद्दाख और उत्तरी कश्मीर को चीन व्यापक सुविचारित रणनीति के तहत देखता है जबकि भारत इसे केवल भौगोलिक नजरिये से देखता है।


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ऐसे तमाम मौके आए जब गुजरात की मोदी सरकार ने केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार की आपत्तियों के बाद भी चीनी निवेश के लिए पलक-पांवड़े बिछाए लेकिन प्रधानमंत्री के तौर पर अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी चीनी निवेश को लेकर एकदम से पलटी मार गए हैं। महामारी के इस दौर में जब शेयर बाजार जमीन सूंघ रहा है, भारतीय बैंकों और कंपनियों के शेयर खरीदकर इनमें निवेश की चीनी रणनीति सरकार को रास नहीं आ रही है।

अब सरकार ने एफडीआई नीति को बदलते हुए भारत के साथ सीमा साझा करने वाले देशों के लिए निवेश से पहले भारत सरकार से अनुमति लेने की बाध्यता कर दी है। भारत ने आसियान के क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक सहयोग में भी इस डर से भाग लेने से इनकार कर दिया कि सस्ते चीनी सामान घरेलू उद्योग का खात्मा कर देंगे। इसलिए हैरत की बात नहीं कि कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स चीनी सामान के बहिष्कार का अभियान चला रहा है। चीनी निवेश से किनारा करने के भारत के फैसले की एक वजह यह भी है कि उसे उम्मीद है कि चीन से निकल रही विदेशी कंपनियां भारत चली आएंगी।

साल भर पहले तक मोदी चीन के साथ आर्थिक सहयोग बढ़ाने में जुटे थे, हर क्षेत्रमें चीनी निवेश के लिए बाहें फैलाए हुए थे और उन्हें तब न तो देश के सुरक्षा सरोकारों से मतलब था और न ही घरेलू उत्पादकों के हितों से। फिर आज क्या हुआ? क्या मोदी की रगों में बहने वाला वह व्यवसाय काफूर हो गया? या फिर उन्हें अंततः यह तत्व ज्ञान मिल गया कि चीन की विस्तारवादी व्यापार नीतियां घरेलू उद्योग का दम घोंट रही हैं? या फिर अमेरिका की चीन-विरोधी लॉबी अपनी साजिशों में कामयाब हो गई है?

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