राम पुनियानी का लेखः आरएसएस के कई चेहरे और मुखौटे, गांधी का नाम लेना भागवत की मजबूरी भी और चाल भी
आरएसएस हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा का स्रोत है और जैसे-जैसे वह ताकतवर होता जा रहा है, वैसे-वैसे धर्म को देशभक्ति से जोड़ने के उसके प्रयास तेज होते जा रहे हैं। वह हिन्दुओं को देश के प्रति वफादार बताता है और साबित करना चाहता है कि मुसलमान वफादार नहीं हैं।
पिछले कुछ वर्षों से 'देशद्रोही' शब्द का काफी इस्तेमाल हो रहा है। देशद्रोही की परिभाषा बहुत स्पष्ट और सीधी-साधी है। जो भी आरएसएस या उसके कुनबे का आलोचक है, वह देशद्रोही है। आरएसएस हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा का स्रोत है और जैसे-जैसे वह ताकतवर होता जा रहा है, वैसे-वैसे धर्म को देशभक्ति से जोड़ने के उसके प्रयास तेज होते जा रहे हैं। वह हिन्दुओं को देश के प्रति वफादार मानता और बताता है और कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष तरीके से यह साबित करना चाहता है कि मुसलमान, पाकिस्तान के प्रति वफादार हैं।
अभी हाल में संघ के मुखिया मोहन भागवत ने फरमाया कि अपने धर्म के कारण हिन्दू स्वभावतः देशभक्त होते हैं। गांधीजी द्वारा कहे गए एक वाक्य को तोड़-मरोड़ कर, भागवत ने यह साबित करने का प्रयास भी किया कि गांधीजी की देशभक्ति के मूल में उनका हिन्दू होना था। उन्होंने कहा, "सभी भारतीय अपनी मातृभूमि की पूजा करते हैं। परन्तु गांधीजी ने कहा था कि उनकी देशभक्ति उनके धर्म से आती है। अतः, अगर आप हिन्दू हैं तो आप देशभक्त होंगें ही। वह सोया हो सकता है जिसे जगाना होगा, लेकिन कोई हिन्दू भारत विरोधी नहीं हो सकता।"
इस वक्तव्य के निहितार्थ को समझने से पहले यह जान लें कि आरएसएस के शुरूआती चिंतकों में से एक, एमएस गोलवलकर ने खुलकर नाजियों की तारीफ की थी और यह भी कहा था कि मुसलमानों और ईसाईयों (जो संघ के अनुसार विदेशी धर्मों को मानने वाले हैं) के साथ वही किया जाना चाहिए जो नाजियों ने यहूदियों के साथ किया था।
पिछले कुछ दशकों में संघ की ताकत में जबरदस्त वृद्धि हुई है। उसके विशाल कुनबे में शामिल कई संगठनों जैसे बीजेपी, विश्व हिन्दू परिषद, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और वनवासी कल्याण आश्रम के प्रभाव क्षेत्र का विस्तार हुआ है और उसने राज्य के विभिन्न अंगों, मीडिया और शैक्षणिक संस्थाओं में गहरी पैठ बना ली है। उसकी विचारधारा और सोच अब भी वही है, परन्तु अब वह थोड़े दबे-छुपे ढंग से अपनी बातें कहता है। गोलवलकर की पुस्तक "वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड' अब भी उसकी पथप्रदर्शक है। परन्तु अब वह उन्हीं बातों को गोल घुमा कर कहता है, जिससे कई लोग भ्रमित हो जाते हैं।
जहां तक गांधीजी का सवाल है, उनके लिए धर्म एक निहायत व्यक्तिगत मसला था। वे स्वयं को सनातनी हिन्दू कहते थे, परन्तु उनका हिन्दू धर्म उदार और समावेशी था। उनके धर्म का संबंध कर्मकांडों से कम और नैतिक मूल्यों से ज्यादा था। सभी धर्म उनकी आध्यात्मिक शक्ति के स्त्रोत थे। "मैं अपने आप को उतना ही अच्छा हिन्दू मानता हूंं जितना कि मुसलमान। और मैं अपने आप को उतना ही अच्छा ईसाई और पारसी भी मानता हूं।" (हरिजन, मई 25, 1947)।
उनका हिन्दू धर्म आस्था और आचरण दोनों स्तरों पर दूसरे धर्मों का सम्मान करता था और उन्हें अपना मानता था। उनका हिन्दू धर्म, आरएसएस के संकीर्ण हिन्दू धर्म के एकदम विपरीत था। संघ केवल विभिन्न मुद्दे उठाकर अन्य धर्मों के लोगों को डराने और नीचा दिखने में विश्वास रखता है। चूंकि गांधीजी का हिन्दू धर्म उदार और समावेशी था, इसलिए ही वे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आन्दोलन में सभी धर्मों के लोगों के सर्वमान्य नेता बन सके।
गांधीजी धर्म को न तो राष्ट्रीयता से जोड़ते थे और न ही देशभक्ति से। दरअसल, अपने देश और उसके लोगों के प्रति प्रेम और देशभक्ति की भावना का धर्म से कोई संबंध नहीं है। देशभक्ति का संबंध राष्ट्रीयता से है और राष्ट्रीयता का धर्म से कोई लेनादेना नहीं है।
गांधीजी धर्म शब्द का इस्तेमाल दो अर्थों में करते थे। एक तो उस अर्थ में जिसमें आम लोग उसे समझते हैं, अर्थात आस्था, प्रथाएं, पहचान इत्यादि। और दूसरा, धार्मिक शिक्षाओं में निहित नैतिक मूल्य। वे यह मानते थे कि नैतिकता सभी धर्मों की आत्मा है। इसके विपरीत, आरएसएस जैसे संगठन धर्म शब्द का प्रयोग केवल बाहरी चीजों जैसे अनुष्ठानों, कर्मकांडों, तीर्थस्थलों आदि के सन्दर्भ में करते हैं।
जो चिन्तक और लेखक हिन्दू राष्ट्रवाद में यकीन रखते हैं और आरएसएस की सोच से सहमत हैं, वे दिन-रात इस जुगत में लगे रहते हैं कि किसी प्रकार गांधीजी और अन्य राष्ट्रीय नायकों के भाषणों, वक्तव्यों और लेखन से ऐसे शब्द, ऐसे वाक्य खोज निकाले जाएं, जिनसे यह साबित किया जा सके कि भारतीय राष्ट्र के इन निर्माताओं की सोच वही थी जो आरएसएस की है। वे अपनी विचारधारा से चिपके रहना चाहते हैं, परन्तु इसके साथ ही समाज में अधिक स्वीकार्यता प्राप्त करने के लिए यह दिखाना चाहते हैं कि भारत के स्वाधीनता संग्राम के महानायकों के विचार उनके जैसे थे।
इसी कवायद के अंतर्गत यह कहा जा रहा है कि हिन्दू 'प्राकृतिक देशभक्त' हैं और देशद्रोही हो ही नहीं सकते। वे यह सन्देश भी देना चाहते हैं कि अन्य धर्मों के लोगों का राष्ट्रवाद और देशभक्ति संदेह के घेरे है और अन्य धर्मावलम्बियों को उन लोगों से देशभक्ति का प्रमाणपत्र प्राप्त करने होगा, जिनका देशभक्ति और राष्ट्रवाद पर एकाधिकार है और जो हिन्दुओं का प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं।
जाहिर है कि यह सोच आधुनिक भारत के निर्माण में मुसलमानों और ईसाईयों की भूमिका को कोई महत्व ही नहीं देती। हम उन करोड़ों मुसलमानों को किस खांचे में रखें, जिन्होंने मौलाना आजाद और खान अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में न केवल ब्रिटिश सरकार से लोहा लिया वरन भारत के विभाजन का भी डटकर विरोध किया? हम शिबली नोमानी, हसरत नोमानी और अशफाक़उल्ला खान का क्या करें? हम अल्लाह बख़्श के बारे में क्या कहें जिन्होंने मुसलमानों का एक बड़ा जलसा आयोजित कर मुहम्मद अली जिन्ना की पाकिस्तान की मांग का विरोध किया था? मुसलमानों के सैकड़ों संगठनों ने स्वाधीनता संग्राम में हिन्दुओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया।
स्वाधीन भारत को आधुनिक और प्रगतिशील बनाने में सभी धर्मों के लोगों का योगदान रहा है। उन सभी ने उद्योग, शिक्षा, खेल, संस्कृति और अन्य सभी क्षेत्रों में बड़ी सफलताएं हासिल कीं हैं और देश का नाम रौशन किया है. क्या वे सब राष्ट्रवादी और देशभक्त नहीं हैं?
दूसरी ओर, भागवत यह कहकर संघ की शाखाओं में प्रशिक्षित नाथूराम गोडसे का बचाव भी कर रहे हैं, जिसने गांधीजी की हत्या की थी। हम उन लोगों को क्या कहें जिन्होंने बाबरी मस्जिद को ज़मींदोज किया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अपराध करार दिया है? क्या भागवत यह मानते हैं कि गांधीजी, कलबुर्गी, दाभोलकर, गौरी लंकेश और गोविन्द पंसारे के हत्यारे देशभक्त थे? क्या वे हिन्दू भी देशभक्त हैं जो अन्य मुल्कों के लिए जासूसी करते पकड़े गए हैं, जो तस्करी करते हैं, ब्लैक मार्केटिंग करते हैं?
जहां एक ओर आरएसएस, गांधीजी के प्रति सम्मान का भाव रखने का नाटक करता है, वहीं उसके प्रचारक और चिन्तक और उससे जुड़े कई संगठन खुलेआम नाथूराम गोडसे का महिमामंडन कर रहे हैं। पिछली गांधी जयंती पर बड़ी संख्या में हिन्दुओं ने गोडसे की प्रशंसा करते हुए ट्वीट किये। साफ है कि आरएसएस के कई चेहरे और मुखौटे हैं। वो एक ही समय में गांधीजी के प्रति श्रद्धा भी व्यक्त कर सकता है और उस सोच को बढ़ावा भी दे सकता है जिसके कारण बापू की जान गई।
(लेख का अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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