राजनीतिक स्वार्थ को केंद्र में रखकर आर्थिक सुस्ती दूर करने के उपाय खोज रही है मोदी सरकार
चालू वित्त वर्ष 2019- 20 की पहली तिमाही में जीडीपी की विकास दर छह साल के न्यूनतम स्तर 5 प्रतिशत पर जा पहुंची। दूसरी तिमाही का आंकड़ा 29 नवंबर को जारी होने वाला है। जानकारों के मुताबिक तब भी विकास दर निराशाजनक ही रहने वाली है।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण इन दिनों घोषणाओं पर घोषणाएं किए जा रही हैं, लेकिन जमीन पर अर्थव्यवस्था की हालत बड़ी संगीन दिख रही है। जो संकट गैर- बैंकिंग फाइनेंस कंपनियों से शुरू हुआ था, वह धीरे-धीरे रिटेल बिजनेस से लेकर ऑटो उद्योग की बिक्री और डीजल जैसे ईंधन की घटती मांग तक फैल चुका है। उद्योग से लेकर कृषि और परिवहन तक में बहुतायत से इस्तेमाल होने वाले डीजल की मांग मई के बाद से घटती गई है। मई में यह 78 लाख टन हुआ करती थी, जबकि सितंबर में 58 लाख टन ही रही।
सरकार जिस सड़क निर्माण में शानदार तेजी का दावा करते हुए कहती है कि यूपीए के शासनकाल में 2013-14 में प्रतिदिन 12 किलोमीटर हाईवे बनाया गया था, जबकि एनडीए शासन में 2017-18 में प्रतिदिन 27 किलोमीटर हाईवे बनाया गया, उस सड़क निर्माण में लगने वाले पेट्रोलियम पदार्थ बिटूमेन की मांग पिछले सितंबर से इस सितंबर तक 7.29 प्रतिशत घट चुकी है। ये आंकड़े सरकारी संस्था पेट्रोलियम प्लानिंग एंड एनालिसिस सेल के हैं। अपुष्ट खबरों के मुताबिक हालत यह है कि राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण में काम कर चुके ठेकेदारों तक का पेमेंट लटका पड़ा है।
बुनियादी उद्योगों की बात करें, तो सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में 40 प्रतिशत का योगदान करने वाले आठ बुनियादी उद्योगों - कोयला, बिजली, सीमेंट, उर्वरक, स्टील, कच्चे तेल, रिफाइनरी और प्राकृतिक गैस का उत्पादन इस सितंबर में 14 सालों के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक के आंकड़े भी महीने-दर-महीने भयावह तस्वीर पेश करते जा रहे हैं। जिस मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का योगदान सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में बढ़ाकर 25 प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा गया था, वह 17 प्रतिशत से नीचे अटका है।
चालू वित्त वर्ष 2019- 20 की पहली तिमाही में जीडीपी की विकास दर छह साल के न्यूनतम स्तर 5 प्रतिशत पर जा पहुंची। दूसरी तिमाही का आंकड़ा 29 नवंबर को जारी होने वाला है। जानकारों के मुताबिक तब भी विकास दर निराशाजनक ही रहने वाली है। दीपावली के आसपास के जिस त्योहारी सीजन को उद्योग-व्यापार क्षेत्र के लिए बड़ा शुभ माना जाता है, उस दौरान भी बाजारों में मंदी छाई रही। बहुराष्ट्रीय निवेश फर्म बैंक ऑफ अमेरिका मेरिल लिंच ने मुंबई में 120 प्रमुख रिटेल दुकानों को शामिल करके एक अध्ययन रिपोर्ट बनाई, जिसके मुताबिक इस त्योहारी सीजन में ग्राहकी साल भर पहले से लगभग 90 प्रतिशत घट गई। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडीज ने अगर भारत की रेटिंग स्थिर से घटाकर नकारात्मक कर दी है, तो इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
लेकिन वित्त मंत्रालय इस पर चिढ़ गया और कहा कि इससे भारत की सापेक्ष स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। हकीकत यह है कि मूडीज द्वारा रेटिंग घटाने से विदेशी निवेशकों पर बुरा असर पड़ सकता है। साथ ही कंपनियों के लिए विदेश से धन जुटाना पहले से मुश्किल और महंगा हो जाएगा।
वहीं, हमारा निर्यात पिछले छह सालों से कमोबेश ठहरा हुआ है। एशिया के जिन 16 देशों के संगठन आरसेप (रीजनल कम्प्रिहेंसिव इकनॉमिक पार्टनरशिप) से मोदी सरकार को किसानों और कांग्रेस के विरोध के कारण अलग होना पड़ा, उसमें से बाकी 15 में से 11 के साथ हम व्यापार घाटे में हैं। बीते वित्त वर्ष 2018-19 में भारत ने 34 प्रतिशत आयात इन देशों से किया, जबकि निर्यात केवल 21 प्रतिशत रहा। विश्व निर्यात में भारत का हिस्सा 1.7 प्रतिशत के आसपास अटका पड़ा है। वैसे, ऐसा नहीं है कि सरकार अर्थव्यवस्था को सुस्ती के दुष्चक्र से निकालने के लिए कुछ नहीं कर रही। बीते दो महीनों में उसने विदेशी निवेशकों तथा निर्यातकों को प्रोत्साहन, हाउसिंग क्षेत्र को गति और व्यापार मेलों की पेशकश के बाद कॉरपोरेट टैक्स घटाने का ऐतिहासिक संरचनात्मक सुधार कर डाला।
पिछले ही हफ्ते वित्त मंत्री ने अटके पड़े हाउसिंग प्रकल्पों को चालू करवाने के लिए 25 हजार करोड़ रुपये का वैकल्पिक निवेश फंड (एआईएफ) बनाने का ऐलान किया। मालूम हो कि इस फंड की घोषणा सितंबर में की गई थी। तब इससे उन्हीं प्रकल्पों को धन दिया जाना था जो 60 प्रतिशत पूरे हो चुके हों, जिनके बैंक ऋण एनपीए न बने हों और जिनका मामला राष्ट्रीय कंपनी लॉ ट्राइब्यूनल में न पहुंचा हो। इन शर्तों के रहते गाड़ी एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाई, तो अब सरकार ने अब केवल एक शर्त रखी है कि हाउसिंग प्रकल्प की नेटवर्थ शून्य या ऋणात्मक नहीं होनी चाहिए। वैसे, इस शर्त को पूरा कर पाना भी टेढ़ी खीर है।
असल में सरकार के इस ताजा कदम में वह रहस्य छिपा है जिसकी वजह से उसके अब तक के उपाय बेअसर साबित हुए हैं। आप यह देखें कि अधिकांश अटके पड़े हाउसिंग प्रकल्पों में घर खरीदने वाले फ्लैट की निर्धारित कीमत का 90 प्रतिशत हिस्सा बिल्डरों को दे चुके हैं। ऐसे में बिल्डरों को आखिर धनकी तंगी नहीं होनी चाहिए। सवाल उठता है कि ग्राहकों का धन बिल्डर कहां गटक गए? सरकार को इन प्रकल्पों के फोरेंसिंक ऑडिट से बिल्डरों की करतूतों का पता लगाना चाहिए। लेकिन वह उनकी सेवा में 25 हजार करोड़ रुपये का नया फंड पेश कर दे रही है। आखिर क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह आर्थिक मसलों का समाधान राजनीतिक स्वार्थ को केंद्र में रखकर निकालना चाहती है? अगर ऐसा है, तो यह देश की अर्थव्यवस्था के लिए बेहद घातक है।
हमें सोचने की जरूरत है कि रिजर्व बैंक इस साल ब्याज दरों में पांच बार कमी कर चुका है। रेपो दर इस समय 5.15 प्रतिशत है। इसमें से सितंबर की रिटेल मुद्रा स्फीति की दर 3.99 प्रतिशत को घटा दें तो वास्तविक ब्याज दर 1.16 प्रतिशत निकलती है। यह एशिया में थाईलैड की 1.1 प्रतिशत के बाद दूसरी सबसे कम ब्याज दर है। पूंजी की लागत इतनी कम होने के बावजूद भारत में निवेश क्यों नहीं बढ़ रहा? इस सवाल के जबाव में आर्थिक सुस्ती के दुष्चक्र को तोड़ने से लेकर रोजगार सृजन तक का उपाय छिपा हुआ है। बशर्ते कोई उसे ईमानदारी से तलाशना चाहे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इस लेख में व्यक्त उनके अपने विचार हैं। नवजीवन का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।)
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