शाहरुख की 'जवान' ने दिखाई हिंदी फिल्मों को एक नई राह, क्या चल पाएगा बॉलीवुड इस रास्ते पर?

शाह रुख की फिल्म 'जवान' ने दिखाया है कि कठिन दौर में भी उठाए जा सकते हैं चुभते सवाल। यह फिल्म हिंदी सिनेमा के लिए एक नई राह बन सकती है। लेकिन क्या बॉलीवुड इस रास्ते पर चलने का जोखिम उठाने की हिम्मत करेगा?

शाहरुख खान की फिल्म 'जवान' के एक गीत का दृश्य
शाहरुख खान की फिल्म 'जवान' के एक गीत का दृश्य
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जगदीश रत्तनानी

किंग खान या एसआरके के नाम से भी जाने जाने वाले शाह रुख खान 'जवान' फिल्म के साथ बॉक्स ऑफिस पर छाए हुए हैं। फिल्म ने पहले तीन दिनों में ही 350 करोड़ कमा लिए। बॉलीवुड मूवी के खयाल से यह सबसे बड़ा ओपनिंग रिकॉर्ड है। माना जा रहा था कि शाह रुख का कॅरियर ढलान पर है लेकिन यह धूमधड़ाके के साथ उनकी वापसी है।

शाह रुख का जादू इस बार दक्षिणी राज्यों में अपने काम के बल पर जानी जाने वाली नयनतारा और तमिल सिनेमा के विजय सेतुपति और निर्देशक एटली कुमार के साथ काम कर रहा है। उत्तर और दक्षिण की संयुक्त प्रतिभा का यह पैकेज है जिसे राष्ट्रीय दर्शकों का प्यार मिल रहा है।

लगभग पौने तीन घंटे की इस मूवी के बारे में प्रोड्यूसर कंपनी- रेड चिलीज इंटरटेनमेंट इन शब्दों में बताती हैः बिल्कुल आग भड़का देने वाला एक्शन थ्रिलर जो ऐसे आदमी की भावनात्मक यात्रा को दर्शाता है जो समाज में हो रही गड़बड़ियों को सुधारने निकला है।

यह कहने की जरूरत नहीं कि इसमें बहुत कुछ खास किस्म का बॉलीवुड मसाला है। लेकिन यह फिल्म 'समाज में गड़बड़ियों' को जिस तरह सामने लाती है, वह बहुत वास्तविक है। 'जवान' खास राजनीतिक उलटबांसियों के साथ दमदार प्रस्तुति है जिसे काफी लोग इस खास राजनीतिक माहौल में गहरे जोखिम के तौर पर देखते हैं।

मूवी में सरकारी अस्पताल में ऑक्सीजन सिलेंडरों की कमी की वजह से रोगियों की मौत, किसान आत्महत्याएं, हमारे सैनिकों को नुकसान पहुंचाने वाले घटिया हथियारों के लिए होने वाले सौदों, पानी और हवा को प्रदूषित करने वाले कारखानों या कुछ खास चलते-पुरजे व्यवसायियों को सुरक्षा देने की बातें हैं जो आज की तारीख में वास्तविक या कुछ खास हैं।

ऐसे में, यह मूवी समाज में होने वाली गड़बड़ियों के खिलाफ आम अभियान से बहुत आगे जाती है जहां आवारा दलालों, भ्रष्ट राजनीतिज्ञों, या अपने हक के लिए रोजाना संघर्ष करने वाले आम आदमी की पीड़ाओं का आम तौर पर स्टीरियोटाइप चित्रण होता है।


'जवान' में निश्चित तौर पर बहुत कुछ जातिवाचक संज्ञाएं हैं लेकिन हवा में व्यक्तिवाचक संज्ञाएं हैं। उस अर्थ में, एसआरके और टीम ने ऐसे ज्वलंत राजनीतिक सवालों को उठाने के लिए बच निकलने वाले मसालों का उपयोग करते हुए अवास्तविक घटनाओं की चाशनी में वास्तविक मुद्दों को बेधड़क सामने रखा है जिसे लोग देख सकते हैं, इससे अधिक लोग महसूस कर सकते हैं लेकिन बॉलीवुड में कुछ ही आज के राजनीतिक माहौल में पूछने का साहस कर सकेंगे।

काफी पहले यह माना जाता था कि बॉलीवुड इसलिए काम करता है क्योंकि वह करोड़ों लोगों के जीवन-यापन की रोजाना की पीड़ाओं से दूर खाली-पीली नाच-गाने वाली चीजें पेश करता है। पिछले दशकों में स्थितियां बदली हैं- शुरुआती रोमांस की कहानियों और अमीर-गरीब पर टीका-टिप्पणी के बाद एंग्री यंग मैन, दिलेर रोमांस वगैरह का दौर आया और फिर, उत्तर-उदारीकरण की वजह से कम कीमत वाले प्रोडक्शन शुरू हुए जिसने नए थीम के प्रयोग किए।

बदलते समय ने बड़े परदे पर आज के मुद्दों को सामने उठाना शुरु कर दिया है, जैसे लिव-इन संबंध, एलजीबीटीक्यू+ अधिकार और संबंध, जाति संघर्ष, 'मुठभेड़' में की जाने वाली हत्याएं, ग्रामीण-शहरी विभाजन, ऑटिज्म, अकेलापन, मानसिक स्वास्थ्य, वगैरह। कुछ सालों में कई फिल्मों में राजनीतिक संदेश थे और, एक तरीके से, बॉलीवुड सब दिन राजनीतिक था लेकिन परोक्ष तरीके से। यह सुरक्षित इलाके में काम करता था- ज्यादातर लोग आंखों में आंखें डालकर सत्ता को नहीं देखते थे।

यह एक ऐसी जगह मानी जाती थी जहां नाच-गाना प्रमुख था और कुल मिलाकर सबकुछ मनोरंजन और ग्लैमर वाला था। उद्योग रचनात्मक खोज के लिए फॉर्मूले को बेहतर मानता है, खास तौर से अच्छी-खासी फीस वाले रॉकिंग स्टार द्वारा की गई लोकप्रिय बिग बजट वाली फिल्में।

क्या 'जवान' की सफलता के साथ यह परिदृश्य बदल जाएगा? बॉलीवुड के लिए हमारे पास नया रास्ता है, ऐसा रास्ता जो अपने किस्म के खास संदेशों के लिए अपने बड़े और बेमिसाल सॉफ्ट पावर का इस्तेमाल कर सकता है। इस मायने में, इस मूवी ने सबको संदेश दिया है और नई कल्पनाओं और संभावनाओं के ऐसे दरवाजे खोले हैं जिन्हें बॉलीवुड कर सकता है।


इस मूवी की एक खास बात इसका एक भाषण है जो दिखाता है कि एसआरके नागरिकों को यह चुनने को कहते हैं कि सही सवाल उठाने के बाद वे वोट करेंगेः उम्मीदवार महोदय, आप अगले पांच साल में क्या करेंगे? अगर परिवार में कोई बीमार होता है, तो आप उनके लिए क्या करेंगे? हमें रोजगार दिलाने के लिए आप क्या करेंगे? संदेश स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार के क्षेत्रों में सेवा देने की मांग और धर्म, नस्ल या जाति के नाम पर न भटकने को लेकर है।

लेकिन ये ही वे सवाल और मुद्दे हैं जो आज की तारीख में भारत में केंद्र में नहीं हैं और जिन्हें आम जनता के सामने सफल मसाला फॉर्मेट के तौर पर रखा जा सकता है। इन सेवाओं को देना सुनिश्चित करने की बात इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के परिप्रेक्ष्य में है जो 2024 चुनावों के ज्वलंत संदर्भ में है। इनमें से कोई भी परिष्कृत काम या हमारे वक्त की विषम राजनीतिक मुद्दों की आलेचनात्मक परीक्षा नहीं है।

हिन्दी फिल्म उद्योग ऐसी जगह है जहां वास्तविक बात काम की गुणवत्ता और दर्शकों द्वारा स्वीकार्यता है, इससे कोई सरोकार नहीं जो कुछ स्वर्गीय सुशांत सिंह राजपूत के नाम पर पर कहा गया।

दर्शकों को सपनीली दुनिया में ले जाने के लिए हिन्दू, मुसलमान और अन्य धर्मों के लोग मिल-जुलकर यहां काम करते हैं। यह प्रभावी व्यवसाय और अच्छे से चलने वाली मशीनरी है लेकिन अपने कुछ बहुत ही कुटिल चाणक्यों से अधिक ही यह जनसाधारण की नब्ज पर हाथ रखने के लिए जाना जाता है।

एसआरके के 'जवान' ने लोकप्रिय रहते हुए बोलने का दायरा बढ़ा दिया है। इस बात की प्रशंसा की जानी चाहिए, इसकी सुरक्षा की जानी चाहिए और इसे बढ़ाना चाहिए। इस मायने में, फिल्म की सफलता अच्छी खबर है।

(जगदीश रतनानी पत्रकार और एसपीजेआईएमआर में फैकल्टी सदस्य हैं। ये उनके निजी विचार हैं। सिंडिकेटः द बिलियन प्रेस)

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