शर्मीली नहीं थीं श्रीदेवी, अगर यकीन न हो तो एक बार फिर देख लें उनकी फिल्में
श्रीदेवी ने अभिनय के लिए ही जन्म लिया था, वे सिनेमा की रोशनी के लिए जन्मी थीं और वही उनकी जिंदगी का मिशन था। उनके हाव-भाव इस तरह हमारे ध्यान को कैद कर लेते थे कि एक पल के लिए भी नजर हटाना मुश्किल था।
पिछले एक सप्ताह से श्रीदेवी के बारे में इतना कुछ सुनने को मिल रहा है कि कुछ कहने को बच नहीं जाता है। यह एक मुश्किल स्थिति है कि कोई क्या कहे जो पहले नहीं कहा गया है।
मैं एक खास मसले पर बात करूंगी जिसके बारे में पिछले कुछ दिनों से काफी बात हुई है।
श्रीदेवी शर्मीली थीं। यह बात मीडिया में सबसे ज्यादा की जाती है, साथी कलाकारों से लेकर वह हर आदमी यह बात करता है जिसने उनके साथ काम किया है।
शर्मीली? वह भी श्रीदेवी? मैं इससे इतेफाक नहीं रखती। किसी भी गाने को देख लीजिए जिसे श्रीदेवी सिनेमा के पर्दे पर गाते हुए दिखी हैं, या मत देखिए। ‘सदमा’ में कमल हासन को ‘सुरमयी अंखियों में...’ गाते हुए देखें। श्रीदेवी उस मधुर गाने पर सिर्फ प्रतिक्रिया दे रही हैं, और याद रखिए, आपकी निगाह कभी भी कमल हासन पर नहीं जा सकती। उनके हाव-भाव इस तरह हमारे ध्यान को कैद कर लेते हैं कि दर्शकों मजबूर हो जाते है कि अगर एक भी पल के लिए ध्यान हटाया तो श्रीदेवी के सक्रिय चेहरे का कोई भाव देखने से महरूम रह जाएंगे।
श्रीदेवी एक उम्दा कलाकार थीं। उन्हें अपनी कला के बारे में बात करने की जरूरत नहीं थी और उन्होंने नहीं की। साक्षात्कारों के साथ वे सहज नहीं थीं, इसलिए उन्होंने इससे भरसक बचने की कोशिश की जब तक उकी बिल्कुल जरूरत नहीं पड़ गई हो। लेकिन क्या उन्हें अभिनय के बारे में बात करने की जरूरत थी? वह चलती-फिरती फिल्म संस्थान थीं..खुद अप्रशिक्षित, लेकिन अपनी कला, अपने चेहरे, अपने भावों और अपने शरीर उनका पूरी तरह नियंत्रण था। वे अभिनय कर रही थीं जो लोग बात कर रहे थे और वहीं फर्क मौजूद है। जिस साफगोई से वे अपना कोई भी किरदार निभाती थी उसमें कहीं भी कोई शर्मीलापन दिखता नहीं है। अगर उन्होंने किसी सवाल का सटीक जबाव नहीं दिया तो उसका मतलब यह है कि वे कहना चाह रही थीं कि ‘क्या मुझे यह बताने की जरूरत है कि यह मैं कैसे करती हूं? यह सच्चाई कि मैं ऐसा कर लेती हूं, काफी नहीं है? कुछ भी देखें जो उन्होंने किया हो, बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप फिल्मों को ही देख लें, उन्हें देखना एक आनंददायक अनुभव है। ऐसा कैसे हो सकता है? वह ऐसा क्या कर रही थीं जो दूसरे नहीं कर रहे थे या नहीं कर सके?
श्रीदेवी वे अभिनय करने के लिए जन्म लिया था, वे सिनेमा की रोशनी के लिए जन्मी थीं और वही उनकी जिंदगी का मिशन था। उन्होंने बहुत जल्दी ही 4 साल की उम्र में कैमरे का सामना करना शुरू कर दिया था और वह एक अभिनेत्री बन चुकी थीं, इसलिए वे कुछ और नहीं कर सकीं। कैमरे का सामना करना उनकी जिंदगी थी। यही करने के लिए उनका जन्म हुआ था और ऐसा करते हुए वे खुश थीं। कैमरे से अलग उनका व्यक्तित्व काफी साधारण हो जाता था। अभिनेत्री श्रीदेवी एक रंगीन और उर्जावान शख्यिसत की मालिक थीं; कैमरे से अलग वे चुप्पी में कैद हो जाती थीं।
संगीत की तरह ही अभिनय को किसी भाषा की जरूरत नहीं होती और जब हम श्रीदेवी को दक्षिण भारत से लेकर आए तो वे न हिंदी जानती थीं और न अंग्रेजी, लेकिन उनके अभिनय को इसने कभी बाधित नहीं किया। इसने उन्हें गैर-जरूरी बातचीत से दूर रखा और यह ताउम्र उनके साथ रहा।
सिर्फ सिनेमा के पर्दे पर ही नहीं, उन्हें आप रैंप पर चलते हुए भी देखें तो आप पाएंगे कि वे वैसा करते हुए भी काफी सहज थीं, जबकि युवा मॉडलों को भी रैंप पर चलते हुए एक अजीब सी आत्मविश्वास की कमी होती है या वे काफी ‘दिखावा’ करती हैं। दूसरी तरफ श्रीदेवी को इन चीजों की जरूरत नहीं थी, वे इतने नजदीक से देखे जाने को लेकर भी खुद में काफी सहज थीं। शर्मीली? वह भी श्रीदेवी? कतई नहीं?
कैमरा उनका निजी आईना था। वे शर्मीली नहीं थीं, वे कैमरे के सामने रोशन हो जाती थीं। उन्हें कैमरे की वैसे ही जरूरत थी जैसे मछली को पानी की होती है। जब उन्होंने अपना परिवार शुरू किया और फिल्मों से अलग हो गईं, तब भी उन्होंने फिटनेस से जुड़ी गतिविधियों को जारी रखा, उन्होंने अपनी सुंदरता को जाने नहीं दिया, बल्कि उन्होंने फिट रहने को लेकर काम जारी रखा और हमेशा खूबसूरत दिखती रहीं। अपनी समझ से वे तब भी अभिनेत्री थीं और उन्होंने ‘इंग्लिश विंग्लिश’ और ‘मॉम’ में इसे साबित किया। हमें कहीं भीतर लगा कि वह तब भी इंतजार में बैठी एक अभिनेत्री थीं। क्योंकि हमने जो सिनेमा के पर्दे पर देखा वह अद्भुत था, उन्हें भी अभिनय में उतना ही आनंद आया। उन्हें कैमरे का सामना करने में मजा आता था और उन्होंने कैमरे को अपना बेहतरीन दिया। कोई भी उनकी तरह हंसोड़ चेहरा नहीं बना सकता, चेहरे पर मजेदार भाव नहीं ला सकता, और बेवकूफाना दृश्य उतनी खूबसूरती से नहीं कर सकता। और गरिमामयी, राजसी महिला में नहीं तब्दील हो सकता जब जरूरत पड़े। उन्होंने एक साधारण दक्षिण भारतीय से खुद को एक कुलीन महिला में बदल लिया था। लेकिन हमें हमेशा लगा कि वह भी एक अभिनय था जो उन्होंने लोगों के लिए ओढ़ रखा था। उन्होंने खुद ही यह स्वीकार किया कि वे निर्देशक की अभिनेत्री हैं और श्रीदेवी ने उन तमाम किरदारों का बखूबी निभाया जो उनके निर्देशकों ने उन्हें सौंपा। फिरोज खान चाहते थे कि वे अकल्पनीय रूप से सेक्सी लगें, यश चोपड़ा एक सिफॉन पहनी हुई सुंदरी के रूप में उन्हें देखना चाहते थे, शेखर कपूर उन्हें चार्ली चैपलीन की हंसोड़ बनाना चाहते थे, बालु महेन्द्रू उन्हें गलत महिला के तौर पर दिखाना चाहते थे। वे एक बंद डब्बा थीं जिससे जो भी जरूरत हो वह निकाल लिया जाता था। और उनका चमत्कार का डब्बा उनकी 300 फिल्मों के बाद भई खत्म नहीं हुआ था। और कोई भी उसे उतना नहीं जानता था जितना वह खुद। सिर्फ वह जानती थीं कि उन्हें अभी पूरी तरह उनका उपयोग नहीं हुआ है और वे अभी काफी कुछ दे सकती हैं।
अपने आखिरी दिनों में उन्होंने मीडिया से यह अपील की कि उनकी बेटी जान्हवी की तुलना उनसे न करें, सिर्फ श्रीदेवी जानती थीं कि किसी की श्रीदेवी से तुलना करना कितना दुर्भाग्यपूर्ण है और उस पर से अगर वह उनकी बेटी हो तो यह कितना अन्यायपूर्ण है। श्रीदेवी अपनी तरह की अकेली अभिनेत्री थीं, जन्म से ही। और यह शायद सबसे बड़ी त्रासदी है। एक महान अभिनय कला का नुकसान हुआ है, जो दर्शकों को हमेशा आनंद देता रहता। लेकिन ईश्वर कुछ और ही चाहते थे।
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