कैसे मानें आजाद हैं, कैसे मनाएं जश्न, देश का हाल तो बंटवारे-सा है

आज ऐसा समाज बनाया जा रहा जिसकी बुनियाद में हिंसा है, लोकतंत्र नहीं। बदलाव की शक्तियों के कमजोर पड़ने से यह शक्ति मजबूत होती गई। धर्म के नाम पर विभाजन, सांप्रदायिक उन्माद, हमारे मूल्यों को जो माने, सही और विरोधी राष्ट्रद्रोही- ऐसी सोच रखने वाले मजबूत होते गए।

फोटोः सोशल मीडिया
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रामचंद्र राही

15 अगस्त फिर आ गया। हमारे देश में फिर आजादी का जश्न मनाया जाएगा। हर साल जब भी यह दिन आता है तो मुझे 15 अगस्त, 1947 की याद आती है। उस वक्त मैं लगभग 9 साल का रहा होऊंगा। मेरे पिता स्वराज आंदोलन के सक्रिय सिपाही थे। लंबे अरसे तक जेल में रहने के बाद कुछ ही दिन पहले जेल से रिहा हुए थे। तो इसलिए हम गांधी टोपी पहनकर तिरंगा हाथ में लेकर दिन भर चक्कर काटते रहे।

मुझे याद है, हमारे घर पर जो झंडा लहरा रहा था, उसमें खून के धब्बे लगे थे। मेरे पिता 1942 में जब थाने पर झंडा लगाने जा रहे थे, तब उन्हें गोली लगी थी। उनके खून के निशान इस झंडे पर थे। हमने वह झंडा संजोकर रखा हुआ था कि जब देश आजाद होगा तो इसे फहराएंगे। यह याद जब आती है तो मुझे लगता है कि हमारी आजादी अहिंसक पद्धति से लोक शक्ति अर्जित कर जरूर हासिल हुई थी, लेकिन उसमें आंदोलन के सिपाहियों ने अपना रक्त भी बहाया था। गांधी के नेतृत्व की विशेषता यह थी कि उन्होंने आम जनता को आजादी का सिपाही बनाया था।

गांधी जी ने पूरे देश को ‘नहीं’ कहना सिखाया। रावी के तट पर पूर्ण स्वराज का जो संकल्प लिया गया था, उसमें यह बात भी थी कि गुलामी की व्यवस्था को स्वीकार करके जीना ईश्वर के प्रति द्रोह है। गांधीजी ने जिस रूप में आजादी और गुलामी- दोनों को समझा था, आजाद भारत में वर्तमान स्थिति पर विचार करते समय इन मुद्दों पर चिंतन करना, विश्लेषण करना जरूरी लगता है। क्या हुआ कि आजाद भारत के योग्य व्यवस्था बनाने से हम चूक गए?

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान एक बार गांधी के आध्यात्मिक सहयोगी आचार्य विनोबा ने कहीं यह प्रश्न उठाया था। गांधी ने किसी पत्रिका में विनोबाजी के बारे में लिखा था। विनोबाजी ने कहा था कि आजाद भारत में गुलामी का झंडा नहीं चल सकता। लाल किले पर ब्रिटिश झंडा नहीं चल सकता। पंडित नेहरू ने पहला काम यह किया कि वह झंडा उतारा और भारत का तिरंगा फहराया।

लेकिन सवाल फिर उठता है कि गुलामी का झंडा नहीं चल सकता तो गुलामी की शिक्षा चलेगी क्या? लेकिन गुलामी की शिक्षा चली। हम जैसा समाज बनाना चाहते हैं, वैसी शिक्षा-व्यवस्था खड़ी करते हैं। अगर हमने गुलामी की शिक्षा व्यवस्था ही जारी रखी तो इसका मतलब हुआ कि हम आजाद भारत की बुनियाद डालने में कहीं चूक गए।

आर्थिक दृष्टि से गांधी की स्पष्ट अवधारणा थी कि पूंजी केंद्रित और अति मशीनीकृत केंद्रित आर्थिक विकास की दिशा हमारे लिए, इस श्रम समृद्ध देश के लिए अच्छी नहीं है, उपयुक्त नहीं है। हम श्रम केंद्रित देश हैं, पूंजी में कंगाल हैं, लेकिन हमने पूंजी केंद्रित विकास की दिशा अपनाई और श्रम हमारे लिए मानो भार बन गया। तो आर्थिक विकास की दिशा भी हमने गलत ली।

सत्ता कुछ हाथों में ही

राजनीति में सत्ता का जो विकेंद्रीकरण होना चाहिए था, वह नहीं हुआ, बल्कि निरंतर उसका केंद्रीकरण होता गया। शुरू के 20-25 साल उसका अंतर्विरोध ज्यादा प्रकट नहीं हो पाया क्योंकि समाज में, नेताओं में गांधी के विचार के संस्कार बाकी थे। इसलिए, केंद्रित अर्थनीति का एकदम उग्र रूप हमारे सामने नहीं आया। लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते गए देश अति केंद्रित अर्थवाद में सिमटता चला गया, उसकी तरफ बढ़ता चला गया।

अब स्थिति यह है कि हम तो अपेक्षा करते थे कि भारत आजाद है, तो यह आजाद सोच रखने वाले नागरिकों का होगा लेकिन हमारी राजनीति प्रक्रिया ऐसी चली कि सारे राजनीतिक लोगों ने ‘सरकार माई बाप’ की मनोभूमिका बनाई, यानी सरकार ही सब कर देगी, बस, आप वोट दे देना। नतीजा हुआ कि वोट धीरे-धीरे पूंजी के हाथ में, नौकरशाही के हाथ में, नेताशाही के हाथ में सिमटता चला गया। समाज में अपनी जो नैतिक बुनियाद खड़ी होनी चाहिए थी, वैचारिक संदर्भ बनना चाहिए था, रिश्तों में जो आरोहण का प्रवाह जारी होना चाहिए था, सबकुछ उसके विपरीत हुआ।

आज हम देख रहे हैं पूरे समाज में हिंसा व्याप्त है। हिंसा और लोकतंत्र का कोई मेल नहीं है। हिंसक समाज लोकतांत्रिक हो ही नहीं सकता। लोकतंत्र अपने आप में राजनीति में अहिंसा का प्रयोग है। क्योंकि सिर काटना नहीं, सिर गिनना है, यानी मत गिनना है और जैसा मत होगा, लोकमत होगा, वैसा ही देश चलेगा, वैसी व्यवस्था चलेगी। यह लोकतंत्र की बुनियाद है। लेकिन आज नागरिकता के जो सत्व गुण हैं, उन्हें विकृत किया जा रहा है।

हम गलत दिशा में बढ़े और उसकी गति पिछले पांच-छह सालों में काफी तेज की गई है। जिन लोगों का लोकतंत्र में विश्वास नहीं है, उन्हें केवल इतना चाहिए कि वे जनता का वोट हासिल कर लें। उन्हें लोकतंत्र नहीं चाहिए। ऐसे लोकतंत्र का विकास हो रहा है जिसमें राजनेता, नौकरशाही और पूंजी के मालिक आजाद हैं और बाकी लोग गुलाम। नागरिक की हैसियत इतनी ही है कि राजनेता जो बोलता है, वह उसकी हां में हां मिलाता है। और राजनेता सत्ता को केंद्र में रखने, नियंत्रित करने के लिए उन सभी संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादाएं तोड़ रहे हैं जो नागरिक को नागरिकता प्रदान करती हैं और उनकी स्वायत्तता सुरक्षित रखने के लिए बनी हैं।

यह सोचने की बात है कि जब चुनाव आयोग, न्यायपालिका, मीडिया, संचार माध्यम- सारे के सारे पूंजी और राजसत्ता के नियंत्रण में आ जाएंगे तो हम स्वतंत्र कैसे होंगे? तो हमारी आजादी पर जो सबसे बड़ा प्रश्न चिह्न लग रहा है, ग्रहण लग रहा है बल्कि लग गया है, वह यह है कि संविधान प्रदत्त हमारे मूल अधिकार इस व्यवस्था के चलते धीरे-धीरे खत्म किए जा रहे हैं। देश में रोजगार का संकट है। पर मुट्ठी भर लोगों के हाथ में सारी सत्ता, अर्थसत्ता सिमटती चली गई है। और संरक्षण भी उन्हें ही मिल रहा है।

कोरोना महामारी के चलते लागू किए गए पहले लॉकडाउन ने हमारी परिस्थिति का नंगा चित्र हमारे सामने ला दिया। लोगों के रोजगार एकदम से छीन लिए गए और उनसे अपने हाल पर रहने को कहा गया। अब वे कहां जाएं। वे अपना गांव छोड़कर रोजगार के लिए कहीं से कहीं पहुंचे थे। लेकिन अब उन्हें वापस जाना है। वे पैदल ही हजारों किलोमीटर दूर अपने गांव जा रहे हैं। यह तो ऐसा दृश्य उपस्थित हो गया था, जैसा विभाजन के समय हुआ था। तो ऐसे देश को हम कैसे कहें कि यह आजाद देश है, कैसे हम आजादी का जश्न मनाएं।

इसी से निकलेगा रास्ता

फिर भी, मुझे लगता है कि निराश होने की जरूरत नहीं है। सैकड़ों वर्षों की गुलामी से मुक्ति की शक्ति इस देश की आम जनता-युवाओं और महिलाओं ने गांधी के रास्ते पर चलकर पैदा की थी। ठीक है कि आज गांधी नहीं हैं, लेकिन उनका सुझाया, दिखाया रास्ता तो है। उस रास्ते पर चलकर हमें भारत को, उसकी आजादी को वापस लाना है। हर नागरिक के अधिकारों का संरक्षण करने की शक्ति समाज में पैदा करनी है। सबसे बड़ी चुनौती है आजादी का संरक्षण।

इस तथ्य को हमें स्वीकार करना चाहिए कि जनता को मानसिक रूप से गुलाम बनाने की दो प्रक्रियाएं लंबे अरसे से चल रही थीं: एक लोकतांत्रिक विकास की प्रक्रिया और दूसरी ऐसे समाज निर्माण की प्रक्रिया जिसकी बुनियाद में हिंसा है, लोकतंत्र नहीं है। हिंसा इस अर्थ में कि हमारी राष्ट्र की जो अवधारणा है, हर नागरिक को उसी रास्ते पर चलना है। जो नहीं जाएगा, उसे एलिमिनेट कर दिया जाएगा। यह स्थिति धीरे धीरे, अंदर-अंदर चल रही थी।

दूसरी जो धारा है लोकतंत्र की, उसके कमजोर पड़ने से, बदलाव की शक्तियों के कमजोर पडने से यह शक्ति मजबूत होती गई। धर्म के नाम पर विभाजन, सांप्रदायिक उन्माद पैदा करना, हमारे मूल्यों को जो माने, उसे सही माना जाए और जो उसका विरोध करे, उसे राष्ट्रद्रोही माना जाए- इस तरह की सोच रखने वाले मजबूत होते चले गए।

गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान कहा था कि आजादी किसी एक समूह के लिए नहीं होगी, यह देश में बसने वाले एक-एक नागरिक के लिए होगी। तो ऐसा नहीं है कि समाज इसी तरह चलेगा। समाज से ही ऐसी शक्तियां उठकर खड़ी होंगी जो इस धारा का विरोध करेंगी, जो गलत को गलत कहना सीखेंगी। तब हम गांधी के बताए रास्ते से दोबारा आजादी हासिल कर पाएंगे और वही सही अर्थों में आजादी का जश्न होगा।

(सुधांशु गुप्त से बातचीत पर आधारित)

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Published: 14 Aug 2020, 5:15 PM