आकार पटेल का लेख: ग्लोबल हंगर इंडेक्स ही नहीं, बीते 7 साल में तो हम 4 दर्जन संकेतकों में पिछड़ चुके हैं...
करीब 4 दर्जन संकेतकों में 2014 के बाद से भारत की रैंकिंग नीचे आई है। लेकिन हमारा रवैया तथ्यों को समझने की रहा ही नहीं, जैसा कि अन्य देश करते हैं। हमारी प्रतिक्रिया तो सिर्फ इस पर होती है कि यह आंकड़े गलत हैं और मौजूदा सरकार तो कुछ गलत कर ही नहीं सकती।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 2015 में भारत की रैंकिंग 55 थी। वहीं पिछले साल यानी 2020 में, यह 39 स्थान गिरकर 94 पर आ गया। भारत इस तरह पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल से भी पीछे चला गया। ग्लोबल हंगर इंडेक्स अल्पपोषण, बाल स्टंटिंग (उम्र के लिए कम ऊंचाई), उम्र के लिहाज़ से बच्चे का कम वजन होना और बाल मृत्यु दर (5 साल से पहले मरने वाले बच्चों की संख्या) को ट्रैक करता है।
उस समय सरकार ने इस डेटा को स्वीकार नहीं किया था। ध्यान रहे कि इस इंडेक्स के लिए आंकड़े जुटाने का काम ज्यादातर संयुक्त राष्ट्र और विश्व बैंक से जुड़ी एजेंसियों द्वारा किया जाता है। इस मोर्चे पर खुद को बचाने के लिए सरकार ने संसद में एक असमान्य सा तर्क रखा था। कृषि मंत्री पुरुषोत्तम रूपाला ने कहा कि भारत में तो "जब भी हमारे गांव में एक गली का कुत्ता बच्चे को जन्म देता है, भले ही वह काटने वाला कुत्ता ही क्यों न हो तब भी हमारी महिलाएं उन्हें खीर खिलाती हैं, इसलिए ... हमें ऐसी रिपोर्टों के प्रति संवेदनशील नहीं होना चाहिए।
जहां तक इन सर्वेक्षणों का सवाल है, स्वस्थ और मजबूत बच्चों की भी गिनती की जाती है... समाज में जागरूकता होनी चाहिए, हमारी ऊर्जावान मंत्री स्मृति (ईरानी) जी ने जन आंदोलन शुरू किया है, और 13 करोड़ कार्यक्रम किए गए हैं।"
अब इस साल, भारत इस इंडेक्स में और सात स्थान नीचे गिरकर 101वें नंबर पर पहुंच गया है। हमसे पीछे सिर्फ अफगानिस्तान, सोमालिया, यमन और कुछ अफ्रीकी देश ही हैं। एक बार फिर सरकार ने इस इंडेक्स को नकार दिया है कि देश में अल्पपोषण वाले या फिर कुपोषण के शिकार भारतीयों की संख्या 14 फीसदी से बढ़कर 15.3 फीसदी हो गई है।
सरकार ने कहा है, “रिपोर्ट ने पूरी तरह से कोविड के दौरान देश की पूरी आबादी की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सरकार के बड़े पैमाने पर प्रयास की अनदेखी की है, जबकि इस काम का डेटा उपलब्ध है। इस सर्वे में जिन लोगों से बात की गई है उनसे यह पूछा ही नहीं गया है कि उन्हें सरकार या अन्य स्रोतों से भोजन मिला या नहीं। इस जनमत सर्वेक्षण में भारत और अन्य देशों का प्रतिनिधित्व सही तरीके से नहीं किया गया है।”
एक तरह से सरकार यह कहना चाहती है कि वह देश की 60 फीसदी आबादी या 80 करोड़ लोगों को हर मुफ्त राशन (5 किलो चावल या गेहूं और एक किलो दाल) मुहैया करा रही है। यह सही है और सरकार ऐसा पिछले साल से कर भी रही है। लेकिन सवाल है कि आखिर इतनी बड़ी संख्या में भारतीय हर माह राशन के लिए कतारें क्यों लगा रहे हैं? इसका जवाब तो यही हुआ न कि वे भूखे हैं और उन्हें राशन चाहिए।
जैसाकि मैंने पिछले सप्ताह लिखा था कि 2019-20 का भारत सरकार का अपना राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे बताता है कि कुपोषण के मोर्चे पर हालात गंभीर होते जा रहे हैं। दरअसल असम, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में 2005-06 के मुकाबले 2019-20 में उम्र के लिहाज से कम वजन वाले बच्चों की संख्या अधिक रही है। इसका अर्थ है कि बीते 15 साल में इस मोर्चे पर जो तरक्की हुई थी वह हमने गंवा दी है।
इतना ही नहीं, जिन राज्यों में सर्वे हुआ उनमें से आधे राज्यों की रिपोर्ट है कि पांच वर्ष से कम उम्र का हर तीसरा बच्चा गंभीर कुपोषण का शिकार है। सरकारी सर्वे में 22 राज्यों और केंद्र शासित प्रदशों के आंकड़े रखे गए थे। इसमें 10 बड़े शहरों का विश्लेषण किया गया था, जिससे सामने आया था कि 2015-16 के मुकाबले 2019-20 में कम से कम 10 राज्यों में बच्चों में एनीमिया के लक्षण कहीं अधिक पाए गए थे। इसके अलावा 10 में से 7 राज्यों में अंडरवेट यानी कम वजन वाले बच्चों की संख्या भी अधिक पाई गई थी।
यह ऐसा संकट है जिसे हमें स्वीकार कर इसे सुधारने की कोशिश करनी चाहिए। यह एक मुश्किल समस्या है और इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों के साथ ही सिविल सोसायटी यानी एनजीओ आदि को मिलकर काम करना होगा।
लेकिन इसके बजाय हो यह रहा है कि शासन की खामियां सामने लाने वाले आंकड़ों से सरकार मुंह छिपाती फिरती है। जब द इकोनॉमिस्ट के इंटेलीजेंस यूनिट डेमोक्रेसी इंडेक्स ने दिखाया कि शासन के मामले में भारत की स्थिति 26 अंक गिरकर 27 से 53 पर पहुंच गई तो सरकार ने मानने से इंकार कर दिया और संसद में इस पर चर्चा तक नहीं की। सरकार ने कहा कि, “यह बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है....” अमेरिका के कमीशन फॉर इंटरनेशनल रिलीजस फ्रीडम कमीशन ने पिछले साल भारत को दुनिया के उन 15 देशों में रखा था जहां धार्मिक स्वतंत्रता खतरे में है। ऐसा इसलिए क्योंकि भारतीय अल्पसंख्यकों पर लगातार हमले हो रहे हैं। लेकिन सरकार ने कह दिया कि यह रिपोर्ट पक्षपातपूर्ण है और ऐसे कमीशन द्वारा भारत के खिलाफ बयान जारी करना कोई नया नहीं है।
इस साल फिर इसी कमीशन ने फिर से इसी तरह के आंकड़े सामने रखे हैं और भारत को धार्मिक स्वतंत्रता न देने वाले देशों की श्रेणी में रखते हुए भारत के कुछ लोगों पर पाबंदियां लगाने की सिफारिश की है। इसके अलावा जब फ्रीडम हाऊस ने भारत को स्वतंत्र से आंशिक तौर पर स्वतंत्र की श्रेणी में डाला और कश्मीर को आंशिक स्वतंत्र से स्वतंत्र नहीं की श्रेणी में रखा तो भी सरकार ने हा कि, फ्रीडम हाऊस के राजनीतिक आंकलन सही नहीं हैं। सरकार ने कहा कि कोविड प्रबंधन में दुनिया भर में भारत की तारीफ हो रही है, इसका कोई जिक्र क्यों नहीं है।
लगभग हर नई रिपोर्ट में यही सामने आता है कि भारत में हालात सही नहीं हैं, ऐसे में हमने एक कला सीख ली है कि हम इन सारी रिपोर्ट को झुठला दें और गलत बता दें। जब ग्लोबल टेररिज्म इंडेक्स आया जिसमें भारत को आतंकवाद से प्रभावित दुनिया के आंठवें सर्वाधिक प्रभावित देश बताया गया तो नीति आयोग ने सवाल किया कि आखिर कोई संस्था सिर्फ 24 सदस्यों और 6 वॉलंटियर के जरिए देशों की रिपोर्ट कैसे तैयार कर सकती है।
करीब 4 दर्जन संकेतकों में 2014 के बाद से भारत की रैंकिंग नीचे आई है। लेकिन हमारी प्रतिक्रिया इन सब पर तथ्यों को समझने की नहीं रही है, जैसा कि अन्य देश करते हैं। हमारी प्रतिक्रिया तो सिर्फ इस पर होती है कि यह आंकड़े गलत हैं और मौजूदा सरकार तो कुछ गलत कर ही नहीं सकती।
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