विष्णु नागर का व्यंग्यः सेंगर जैसों को घबराने की जरूरत नहीं, योगी-शाह तो हैं न बचाने के लिए
उत्तर प्रदेश का वह बलात्कारी दाऊ अभी भले कुछ फंसा हुआ है, लेकिन बलात्कारी भाइयों को चिंता करने की जरूरत नहीं, क्योंकि ऊपरवाले ने चाहा तो समय के साथ आदित्यनाथ जी सब ठीक कर-करा देंगे, जो अभी तक बेचारे कराते भी रहे हैं। केस कहीं चला जाए, रहेगा तो भारत में ही।
ऐसा है बलात्कारी भाइयों (बहनों नहीं) यूपी का आपका वह बलात्कारी दाऊ अभी कुछ फंसा हुआ सा जान पड़ता है, मगर इस कानून-व्यवस्था आदि-आदि को हम आप कई दशकों से देख-समझ रहे हैं, इसलिए अधिक निराश होने की जरूरत नहीं। कुछ ज्यादा ही स्यानपत्ती सेंगर साहब ने दिखा दी तो उन्हें टैम्परेरी झटका नहीं बल्कि झटका-सा ही कुछ लगा है।
ऊपर वाले ने चाहा तो समय के साथ आदित्यनाथ जी सब ठीक कर-करा देंगे, जो अभी तक बेचारे कराते भी रहे हैं। अभी वह थोड़ा पीछे हट से गए लगते हैं, मगर पुलिस के जरिए वह सब ठीक करवा रहे होंगे और हो भी जाएगा सब ठीक। केस कहीं भी चला जाए, भारत ही में तो जाएगा, इसलिए राजनीति और जाति का डेबिट-क्रेडिट कार्ड हर कहीं चल जाएगा, धर्म का कार्ड चलाने की जरूरत नहींं पड़ेगी, वैसे वह भी जेब में रखा रहता है।
आदित्यनाथ सबसे ज्यादा अपनी जाति के नाथ हैं। और फिर भी एक मिनट के लिए मान लो, यह झटका सेंगर साहब के लिए परमानेंट साबित हो गया तो भी हिम्मत हारने का कोई कारण नहीं। अरे हिमालय पर चढ़ने वाले सब के सब सफल थोड़े ही हो जाते हैं! कोई तो बस पहुंचने ही वाला होता है कि फिसल जाता है, बर्फ में धंस जाता है।
तो सेंगर साहब उस तरह के एक 'शहीद' हो भी गए तो क्या चिंता! हर काम में कुछ-कुछ रिस्क होता है, चलते-चलते भी केले के छिलके पर पैर पड़ जाता है और छह महीने बिस्तर पर पड़े रहना पड़ता है। दुकान खोलो तो उसमें घाटा हो जाता है। इसलिए रिस्क से डरो मत, भारत के वीर जवान, बढ़े चलो। बलात्कार के आंकड़ों में वार्षिक वृद्धि दर बनाए रखो। यह व्यवस्था तुम जैसों के मजबूत कंधों और छप्पन इंची सीने पर फिलहाल टिकी हुई है।
सो कीप इट अप। वैसे मेरी सलाह की आपको जरूरत नहीं। बस ये है कि मैं तो हौसला बनाए रखने में आपकी मदद करना चाहता हूं। देखिए हर कानून बहुत कुछ कहता है, कविता जितना नहीं कहती, कानून उससे ज्यादा कहता है, इसलिए कविता की तरह कानून की परवाह करने की भी जरूरत नहीं। अरे कौन कानून की चिंता करता है, जो तुम इसमें समय बर्बाद करो! कानून अपना काम करेगा, इतना आश्वासन काफी है, जिसका मतलब है कि वह घूम-फिरकर बलात्कारी का काम करेगा, इसलिए तुम अपना कार्य जारी रखो- कर्मण्येवाधि कारस्ते ... आदि-आदि।
हर जगह, हर रंग में, हर समय आदित्यनाथ मौजूद हैंं, अमित शाह उपस्थित हैं। आपका काम कानून की बात उसी तरह नहीं सुनना है, जिस तरह घर के बूढ़ों की सुनकर भी नहीं सुनना होता है।वैसे व्यावहारिकता कानून का बाप होती है। सबसे पहले तो कोई जरूरी नहीं कि बलात्कृता पुलिस के पास जाए ही जाए। और वह चली ही गई मान लो तो क्या पुलिस इतनी भोली है कि झट से उसकी रिपोर्ट लिख लेगी, कानूनी कार्रवाई शुरू कर देगी! कतई नहीं।
कानून कुछ भी कहता हो, पुलिस के पास न सुनने के पचास बहाने हैं। जैसे 'एसएचओ साहब आज छुट्टी पर हैं। उनसे पूछे बगैर ऐसे संगीन मामले की एफआईआर लिखने के हमें आर्डर नहीं हैं' या 'आपका थाना ये नहीं है, उस इलाके में है, वहां जाओ'। वहां भी एसएचओ नहीं होगा, उसे दस्त लगे होंगे। वैसे भी ऐसे मौकों पर उसका सबसे जरूरी काम न होना होता है। यह भी हो सकता है कि रिपोर्ट लिखने के लिए पुलिस के पास कागज नहीं हो या कागज हो मगर पेन नहीं हो या पेन हो तो पेन चल नहीं रहा हो या 'हम बगैर वेरीफिकेशन के कुछ नहीं कर सकते, वगैरह जैसा कुछ श्रवण करने को मिले।
हो सकता है कि वह कहें- 'पहले हमने बिना वैरिफिकेशन के एक केस दर्ज कर लिया था तो हमारी तो नौकरी जाते-जाते बची थी और उन्हीं साहब ने हमारी नौकरी बचाई थी, जिनके खिलाफ आप रिपोर्ट लिखवाने आई हैं। वो तो देवतास्वरूप आदमी हैं, वो ऐसा कर ही नहीं सकते। वगैरह-वगैरह'।
उधर आपका भाई सेंगर जैसा एमएलए नहीं हुआ, छोटा-मोटा ही कुछ हुआ तो बलात्कृता को डांट-फटकार कर भगाने के बाद पुलिस वाला बलात्कारी को थाने बुलाएगा। फिर बिना बोले चार डंडे उसके पिछवाड़े पर जमाएगा। वह बोलेगा, ‘साब मेरा कसूर तो बताओ'? तो पुलिसवाला उसे मां और बहन की मोटी-मोटी सी गालियों से नवाजते हुए कहेगा, 'साले हमसे पूछता है तेरा कुसूर क्या है'?
बहरहाल इसका 'सुखद' अंत यह होगा कि पैसे का इधर से शांतिपूर्ण प्रदान होगा, उधर से बिना गिने जेब में रखने की 'उदारता' बरती जाएगी। फिर भी पुलिसवाला कहेगा, 'देख भई, हम तुझे बचाने की फुल गारंटी नहीं ले सकते। ऊपर से प्रेशर पड़ा तो हम कुछ नहीं कर पाएंगे'। मतलब आगे भी वसूली का रास्ता ओपन रहेगा, क्योंकि मामला संगीन है और पासा पलट भी सकता है, बलात्कारी को बचाने के चक्कर में पुलिसवाला फंस भी सकता है।
और मानने के लिए मान लो, न जाने कितने पापड़ बेलते-बेलते एक दिन एफआईआर दर्ज हो गई तो जरूरी नहीं कि ऐसा होना सफलता की पहली सीढ़ी साबित हो। उधर डाक्टर भी सब साधु-संत नहीं होते और साधु-संत भी क्या होते हैं, यह आज दुनिया खूब जानती है। फिर बलात्कारी को जाति-धर्म का सहारा मिलता है, जो बलात्कृता को नहीं मिल सकता। मुख्यमंत्री अगर बलात्कारी की जाति का नहीं हुआ तो प्रदेश पार्टी अध्यक्ष होगा। कोई ताकतवर मंत्री होगा, आईजी, डीआईजी या कोई न कोई 'जी' जरूर होगा। सरकारी दल में कोई अपना न हुआ तो विपक्ष में होगा।
इनमें से कोई न कोई साबित कर देगा कि यह बलात्कार का केस नहीं, राजनीतिक षड़यंत्र का केस है और आप देख ही रहे हैं, इस देश में षड़यंत्र तो हर पल होते रहते हैं, पारिवारिक टाइप टीवी सीरियल्स इसका पक्का सबूत हैं। षड़यंत्र नहीं होता तो साजिश होती है। और षड़यंत्र या साजिश जो भी संभव हो जाए, वह राजनीतिक के सिवाय कुछ हो नहीं सकती। तो बलात्कार, बलात्कार न होकर एक बड़ी राजनीतिक साजिश का हिस्सा हो उठता है और पटाक्षेप होना आरंभ हो जाता है। और बलात्कारी अगर नेता हो तो चाहे कल बलात्कार करने के बाद ही उसने सफेद कुर्ता पायजामा धारण किया हो, वह राजनीतिक साजिश का शिकार ही होगा क्योंकि वही वह हो सकता है।
इसलिए बलात्कारी भाइयों, यह मामूली झटका है, सह लो मगर पहले की तरह यही मानते रहो कि यह देश तो तुम्हारे बाप का है ही, इसके कायदे-कानून भी सब तुम्हारे बाप-दादों के हैं। पुलिस भी दो-चार डंडा जमाने के बावजूद तुम्हारी अपनी है। वह डंडा नहीं पुलिस का प्यार दिखाने का तरीका है, आशीर्वाद है। पहली बार डंडे खानेवाला, दो डंडे खाने के बाद ही इस रहस्य तक पहुंच जाता है।
एक बार यह ज्ञान प्राप्त होने के बाद कोई भी अनुभवी अपराधी अगर वह एमएलए नहीं है तो थाने पहुंचकर अपना पिछवाड़ा पुलिस के सामने कर देता है, जिससे सिपाही या एसएचओं को हंसी आ जाती है और वह प्यार भरी गाली के साथ डायलॉगबाजी शुरू कर देता है। फिर दोनों तरफ से मैत्रीपूर्ण डायलॉगबाजी होती है, जो बाद में सलमान खान के लिए डायलॉग लेखन के काम आती है।
अंत में एक बात और, बहनों और बेटियों और हां मांओं, दादियों-नानियों भी, आपको यह जानकर प्रसन्नता होनी चाहिए कि देश में 'बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ' कार्यक्रम सुचारू गति से प्रगति पर है।
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