आकार पटेल का लेख: भारतीय संविधान की प्रस्तावना के खिलाफ थी धारा 377
हमें आभारी होना चाहिए कि हमने उस कानून से पीछा छुड़ा लिया है जिसे आजाद भारत में होना भी नहीं चाहिए था, साथ-साथ हमें इस बात भी विचार करना चाहिए कि यह कानून 71 सालों तक क्यों बना रहा और क्यों एक कोर्ट को इसे कानून से बाहर करना पड़ा।
1950 में ब्रिटिश वैज्ञानिक एलन ट्यूरिंग ने एक चीज विकसित की थी जिसे हम ट्यूरिंग टेस्ट कहते हैं। यह बुद्धिमतापूर्ण व्यवहार दिखाने की कम्प्यूटर की क्षमता को निर्धारित करता है। ट्यूरिंग टेस्ट को एक मनुष्य की जरूरत होती थी ताकि वह मनुष्य और मशीन के बीच की प्राकृतिक टेक्सट बातचीत को देख सके (जैसा कि मैसेजिंग ऐप पर होता है)। अगर मनुष्य विश्वासपूर्ण तरीके से यह नहीं बता पाता था कि कौन आदमी है और कौन मशीन, तो यह माना जाता था कि कम्प्यूटर ने टेस्ट पास कर लिया है। हम लोग निश्चित रूप से कम्प्यूटर की बुद्धिमता के उस पड़ाव पर पहुंच चुके हैं, लेकिन ट्यूरिंग उसे देखने के लिए नहीं हैं। उनका 41 साल की उम्र में 1954 में निधन हो गया। उन्हें ब्रिटेन में समलैंगिकता का दोषी पाया गया था और उन्हें रसायनिक इलाज के जरिये नपुंसक बना दिया गया (ब्रिटेन में जेल के विकल्प के रूप में यही सजा दी जाती थी)। कुछ सालों बाद उन्होंने आत्महत्या कर ली। ट्यूरिंग के एक सदी पहले महान अंग्रेज लेखक ऑस्कर वाइल्ड को भी समलैंगिक होने के अपराध का दोषी पाया गया था। कोर्ट में अपमानित होने के बाद उन्हें जेल में दो साल गुजारने पड़े। जिस जज ने उन्हें सजा सुनाई, उसने अपने फैसले में कहा:
“मेरे लिए तुम्हें संबोधित करने का कोई उपयोग नहीं है। जो लोग ऐसा करते हैं उन्हें शर्म से मर जाना चाहिए, और कोई उन पर किसी किस्म का असर डालने की उम्मीद नहीं कर सकता। यह सबसे बुरा केस है जिसकी मैंने सुनवाई की है। इस स्थिति में मुझसे उम्मीद की जाती है कि मैं सबसे कड़ी सजा दूं जिसकी कानून इजाजत देता है। मेरे निर्णय में ऐसे केस में यह बिल्कुल अपर्याप्त होगा। कोर्ट यह सजा देता है कि तुम सभी को दो साल की जेल हो और कड़ा परिश्रम कराया जाए।”
कोर्ट में मौजूद भीड़ चिल्लाई, “शर्म आनी चाहिए!” वाइल्ड ने कहा, “और मैं? क्या मैं कुछ नहीं कह सकता, जज साहब?” लेकिन कोर्ट स्थगित हो गई और वाइल्ड दो साल के लिए जेल चले गए।
1967 में ब्रिटिश संसद ने एक नया कानून पास किया जिसे यौन अपराध कानून कहा गया। इसने सहमति से वयस्कों के बीच होने वाले समलैंगिक सेक्स को अपराध से मुक्त कर दिया। यह वही काम है जो हमारे सुप्रीम कोर्ट ने इस हफ्ते किया। इसके बाद ब्रिटिश अखबार द गार्डियन में ग्लासगो के पॉल ब्राउनसे नाम के एक पाठक ने पत्र लिखा, जिसका शीर्षक था, “भारत के समलैंगिक-विरोधी कानून के समाप्त होने के साथ ही एक जहरीली औपनिवेशिक विरासत समाप्त हो गई (7 सितंबर)।” लेख में लिखा गया, “भारत के सुप्रीम कोर्ट ने घोषणा की है कि समलैंगिक सेक्स के खिलाफ कानून गैर-संवैधानिक है। भारत 71 सालों से आजाद है। अगर यह कानून सच में भारतीय संस्कृति के विपरीत और औपनिवेशिक नियमों के तहत था, तो इसे बहुत पहले ही खत्म कर दिया जाना चाहिए था।”
ब्राउनसे पूरी दुनिया के प्रेस में छपे कई लेखों का संदर्भ दे रहे थे जिनमें कहा गया कि धारा 377 अनिवार्य रूप से एक औपनिवेशिक विरासत है और इसलिए हम भारतीयों पर इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं थी। फिर भी, जैसा कि उन्होंने कहा, हमने अपने कानून में आजादी के बाद 7 दशकों तक इसे रहने दिया। एक दूसरी चीज जिस पर इस मामले में चर्चा नहीं हुई, वह यह कि इस धारा को कोर्ट द्वारा खत्म किया गया, कानून बनाकर नहीं जैसा ब्रिटेन में हुआ था। यह ज्यादा सही होता अगर ऐसे कानून को पांच जजों के फैसले की बजाय लोकतांत्रिक राजनीति द्वारा खत्म किया जाता, जिसे सभ्य दुनिया के ज्यादातर हिस्से ने बहुत पहले ही तिलांजलि दे दी थी।
मैं सिर्फ दो नेताओं को जानता हूं जिन्होंने संसद में इसके खिलाफ बोला और समलैंगिक सेक्स को अपराध ठहराने वाले कानून के खिलाफ विधेयक लाने की कोशिश की। एक बीजू जनता दल के तथागत सतपति हैं और दूसरे कांग्रेस के शशि थरूर। मैं समझता हूं कि थरूर कांग्रेस के ज्यादातर सांसदों का समर्थन प्राप्त करने में नाकामयाब रहे जब उन्होंने यह प्रयास किया। मैं इस बात को क्यों सामने ला रहा हूं?
संविधान की प्रस्तावना में लिखा है:
“हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए और उसके समस्त नागरिकों को; सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर...अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"
यह बहुत साफ है। हम एक बहुत बुरे कानून के जरिये अपने साथी भारतीयों की गरिमा को नुकसान पहुंचा रहे थे। हम उनकी अभिव्यक्ति, विश्वास और अवसरों की समानता को नुकसान पहुंचा रहे थे। हमने कितने ट्यूरिंग और वाइल्ड को खो दिया क्योंकि वे खुद को अभिव्यक्त करने से डरते थे या कानून से घबराते थे या समाज द्वारा किनारे कर दिए गए थे या अनिवार्य रूप से झूठ के साथ जीवन जीने को मजबूर कर दिए गए थे? आज भी कितनी समलैंगिक महिलाएं वैवाहिक जीवन व्यतीत कर रही हैं जो उनके लिए नहीं है लेकिन वे सामाजिक दबाव या शर्म की वजह से शादी करने को मजबूर कर दी गईं। मैं कल्पना नहीं कर सकता कि ऐसी महिलाओं की संख्या कितनी होगी।
हमें आभारी होना चाहिए कि हमने उस कानून से पीछा छुड़ा लिया है जिसे आजाद भारत में होना भी नहीं चाहिए था, साथ-साथ हमें इस बात भी विचार करना चाहिए कि यह कानून 71 सालों तक क्यों बना रहा और क्यों एक कोर्ट को इसे कानून से बाहर करना पड़ा।
यह मुद्दा लोकप्रिय राजनीति का मुद्दा होना चाहिए था क्योंकि यह उन वादों के खिलाफ था जो हमने अपने संविधान की प्रस्तावना में किया था। लोकतंत्र का अर्थ लोगों के अधिकारों की सुरक्षा को लोगों द्वारा सुनिश्चित करना ही है।
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