विष्णु नागर का व्यंग्य: पिछले पौने नौ वर्षों में भारत का बहुत 'विकास' हुआ, 'अच्छे दिन' आए, जो अब कभी जाएंगे नहीं!

पिछले पौने नौ वर्षों में भारत का बहुत 'विकास' हुआ है मगर उसके 'विकास' में रोड़े अटकाने वाले आज भी जिंदा हैं, उन्हें अभी तक गोली से उड़ाया नहीं गया! सरकार और दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी उसका भरपूर से भी भरपूर सहयोग कर रही है।

फाइल फोटोः सोशल मीडिया
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विष्णु नागर

कहा जाता है कि घूरे के दिन भी फिरते हैं तो फिर मूर्खता जैसी मानव की 'अमूल्य उपलब्धि' के क्यों नहीं फिरते? फिरे और ठीक तरह से फिरे। जिन नेताओं, मंत्रियों, साधु-संतों, भक्तों पर उसे विश्वास था, उन्होंने उसका भरपूर साथ दिया। सगे भी जितना साथ नहीं देते, उतना दिया। कभी उसके प्रति अपनी चाहत कम नहीं होने दी। अच्छे-अच्छे प्रेमी भी एक-दूसरे से ऊब जाते हैं मगर मूर्खता के इन प्रेमियों ने अनोखा उदाहरण पेश किया। मूर्खता से उनका प्रेम बढ़ता गया! 'सबका साथ, सबका विश्वास' पाकर उसका उत्तरोत्तर विकास होता गया। मूर्खता की बहार आ गई। ऊपर से नीचे तक मूर्खता का समुद्र लहराने लगा। ज्वार पर ज्वार आने लगे। मूर्खता की आंधी बहने लगी, बरसात होने लगी, ठंड पड़ने लगी, लू चलने लगी।

पहली बार मूर्खता इतनी खुश थी। हर गणवेश में वह थी। हर पद उसका था। हर डाल उसकी थी। और अंजामे गुलिस्तां क्या होगा, कह कर उसकी हंसी उड़ाने वाले बहुत से जेलों में थे और बहुत से कतार में थे। जो भी मूर्खता विरोध  करता, उसे हर अखबार, हर टीवी चैनल मूर्ख सिद्ध कर देता। इसके बावजूद पता नहीं कहां से कोई आ टपकता और मूर्खता की खिल्ली उड़ा कर, उसे ठेंगा दिखा कर चला जाता! इससे उसके दिल को गहरी चोट पहुंचती। उसकी खुशी हवा हो जाती। गम की बदलियां छा जातीं।


तब उसके प्रेमियों, पुजारियों, प्रशंसकों को उसे विश्वास दिलाना पड़ता कि वह निश्चिंत रहे, घबराए नहीं। यह दौर उसका अपना है। जो उससे टकराएगा, चूर-चूर हो जाएगा, वाला समय है !एक दिन देखना, ये सब मूर्खता विरोधी तत्व जेलों में होंगे। मूर्खता का अखंड राज्य होगा। और जहां तक हंसी उड़ने का सवाल है, सबकी उड़ी है। भगवान राम की उड़ी थी। आज के मुखिया जी की तो दिन में तीन-तीन किलो तक उड़ जाती है। सबकी हंसी उड़ी है, उड़ती रही है, उड़ती रहेगी। फिर भी मूर्खता डरी-डरी सी रहती। इतने अधिक बुरे दिन देखे थे उसने कि कहीं एक तिनका भी उड़ता हुआ उसकी तरफ आता तो वह डर से कांपने लगती।

उसे इस बात का सख्त अफसोस था कि चालाकी, नफरत, झूठ, पाखंड, धूर्तता आदि इतने सारे रूप धरने के बावजूद उसके साथ बदतमीजी आज भी हो रही है! पिछले पौने नौ वर्षों में भारत का बहुत 'विकास' हुआ है मगर उसके 'विकास' में रोड़े अटकाने वाले आज भी जिंदा हैं, उन्हें अभी तक गोली से उड़ाया नहीं गया! सरकार और दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी उसका भरपूर से भी भरपूर सहयोग कर रही है। उसकी हर जरूरत का खयाल रख रही है। युद्ध स्तर पर उसकी सहायता कर रही है। उसके लिए रेड कारपेट बिछा रही है। उसे जेड सेक्यूरिटी दे रही है! फिर भी यह स्थिति क्यों?

मूर्खता को कभी-कभी निराशा इतना अधिक घेर लेती कि उसका मन करता कि अगर उसके स्वर्ण युग में भी यही होना है तो फिर ऐसे जीने से मरना अच्छा, इस देश, इस दुनिया से पलायन करना अच्छा। इसी दौरान उसके चाहने वाले मिल जाते। वे उसकी तारीफ़ के पुल दर पुल बांधने लगते। उसके साम्राज्य का कितना विस्तार हो चुका है, इसका ज्ञान उसे करवाते। उसका दिल बहल जाता। उसका आत्मविश्वास लौट आता। उसे भरोसा होने लगता कि चूंकि इस महान देश में उसके 'अच्छे दिन' आए हैं, तो अब कभी जाएंगे नहीं। देश के नेतृत्वकर्ता उसे जाने नहीं देंगे। खूंटे से बांध कर रखेंगे।

जब पौने नौ साल पहले उसने सुना था कि 'अच्छे दिन' आने वाले हैं तो वह खुशी से पागल हो गई थी। वह समझ गई थी कि 'अच्छे दिन' तो उसके आनेवाले हैं, जबकि जनता समझ रही थी कि उसके आने वाले हैं मगर मूर्खता इतनी मूर्ख भी नहीं थी कि छाती ठोककर कहती कि बेवकूफों, तुम हो किस फेर में, तुम्हारे नहीं, 'अच्छे दिन' मेरे आने वाले हैं। और लो, देखो, ये आ भी गए! अब देखना, मूर्खता का सूरज रोज उगेगा, चंद्रमा आकाश में रोज दमकेगा। रोज मैं नए-नए आइटम पेश करूंगी। रोज जाम छलकाऊंगी! तुम आज तक रोते आए हो, रोते ही रहना। फर्क यह आएगा कि अब जयश्री राम कहते हुए रोते रहना होगा।


उसे अधिकतर इतिहासकारों, वैज्ञानिकों, लेखकों-कलाकारों से बेहद नफरत है। उसका मानना है कि ये ही उसकी परेशानी की असली जड़ हैं। ये ही उसके वास्तविक  दुश्मन हैं। उसका मन करता है कि इनमें से एक-एक का खून पी जाए, गला घोट दे, चिथड़े उड़ा दे! वह चाहती है कि सरकार 2002 टाइप कुछ करके इन्हें परमानेंटली ठीक कर दे, सारा झंझट एक झटके में खत्म कर दे वरना ये एक दिन फिर से उसका जीना, सांस लेना मुश्किल कर देंगे। एक दिन ऐसा आएगा कि ये दिन हवा हो जाएंगे। यह स्वर्ण युग चला जाएगा,पाषाण युग लौट आएगा!

मूर्खता भुक्तभोगी है। 1947 में उसने नफरत का साथ देकर अपनी जान लड़ा दी थी, विजय पताका फहरा दी थी मगर महात्मा गांधी-नेहरू आदि आड़े आ गए और उसका जीना मुहाल कर दिया। ‌किसी तरह उसने अपनी जान बचाई, तब जाकर वह 1992 और फिर 2002 का समय देख पाई! उसे पहली बार भरोसा हुआ कि हां अब देर हो सकती है मगर अंधेर नहीं! 2014 आया तो उसे लगा, उसका अमृतकाल आ गया है। 'विकास' के अवसरों की नई-नई संभावनाएं उसे दिखने लगीं। इस बार शुक्र था कि गांधी-नेहरू नहीं थे मगर मूर्खता विरोध की जो  विरासत वे छोड़ गए थे, वह थी। इस सरकार ने कितनी ही कोशिश की, प्रधान जी ने सबकुछ करके देख लिया मगर उस विरासत को केवल एकाध बाल ही बांका कर पाए!

मूर्ख अभी भी हंस रहे हैं, मूर्खता आंसू अभी भी थम नहीं रहे हैं।

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