आकार पटेल का लेख: समीर वानखेड़े की जाति के विवाद ने दिया है धर्म बदलने वाले दलितों के आरक्षण के अधिकार पर बहस को जन्म
दरअसल सबसे ज्यादा खतरा या नुकसान उन दलितों और आदिवासियों को होता है जिन्होंने धर्म परिवर्तन किया है, क्योंकि सरकार उन्हें प्रमाणपत्र में ईसाई आदिवासी के तौर पर पंजीकृत करती है, इस तरह उन्हें आरक्षण का लाभ मिलना मुश्किल हो जाता है।
एनसीबी मुंबई के जोनल डायरेक्टर समीर वानखेड़े के जाति प्रमाणपत्र का विवाद सामने आने के बाद दो अहम मुद्दों पर विचार करने की जरूरत है। पहला है आरक्षण का और दूसरा है धार्मिक स्वतंत्रता का। आरक्षण की जहां तक बात है, भारत में हिंदुओं, सिखों और दलित बौद्धों को अनुसूचित जाति का आरक्षण मिलता है, लेकिन ईसाई और मुस्लिम दलितों को यह सुविधा नहीं मिलती। इस बारे में पिछली सरकारों ने पूर्व जस्टिस राजिंदर सच्चर की अगुवाई में एक समिति बनाई थी। इस समिति की सिफारिशें थीं कि आरक्षण का लाभ मुस्लिमों सहित सभी दलितों को मिलना चाहिए। लेकिन इन सिफारिशों को अभी तक लागू नहीं किया गया है। इसमें संदेह नहीं आज की तारीख में मुसलमानों की कोई इतनी राजनीतिक धमक नहीं है कि वे अपने लिए आरक्षण की मांग उठा सकें, वे या तो जेलों में भेजे जा रहे हैं या फिर सड़कों पर मॉब लिंचिंग से बचने की कोशिशों में जुटे हैं।
भारत में सभी अनुसूचित जन-जातियों को (मुसलमानों और ईसाइयों समेत) एसटी केटेगरी में आरक्षण मिलता है। इसी तरह ओबीसी या अन्य पिछड़ा वर्ग के तहत भी मुसलमानों और ईसाइयों को आरक्षण मिलता है। सिर्फ अनुसूचित जाति – एससी का मामला ऐसा है जिसमें मुस्लिमों को आरक्षण नहीं मिलता है और समीर वानखेड़े ने इसी श्रेणी में आरक्षण का लाभ लिया है। यह साफ हो चुका है कि समीर वानखेड़े के पिता दलित हैं और मां मुस्लिम थीं। ऐसा आरोप है कि समीर वानखेड़े खुद एक मुस्लिम हैं, इसलिए एससी केटेगरी में उन्हें आरक्षण का लाभ अवैध रूप से मिला है।
दरअसल सबसे ज्यादा खतरा या नुकसान उन दलितों और आदिवासियों को होता है जिन्होंने धर्म परिवर्तन किया है, क्योंकि सरकार उन्हें प्रमाणपत्र में ईसाई आदिवासी के तौर पर पंजीकृत करती है, इस तरह उन्हें आरक्षण का लाभ मिलना मुश्किल हो जाता है। गुजरात में, ईसाई धर्म में परिवर्तित कुछ दलित आधिकारिक तौर पर अपनी हिंदू आस्था को बनाए रखते हैं, और इसलिए उनकी जाति और स्थिति, चर्च की एक प्रक्रिया के तहत मनोगत मुआवजे के सिद्धांत के तहत स्वीकार की जाती है। यह संज्ञा उस व्यक्ति के लिए है जो अतिरिक्त कानूनी अधिनियम के माध्यम से अपने नुकसान की मांग करता है। इस मिसाल को देखें तो इसमें दलितों द्वारा एक ऐसे राज्य से अपने अधिकार का दावा किया जा रहा है जो उन्हें इससे अन्यायपूर्ण तरीके से वंचित कर रहा है।
बीजेपी सरकार सक्रिय रूप से गुजरात के दलित और आदिवासी ईसाइयों को आरक्षण मिलने में बाधा डालती है ताकि वे धर्मांतरण न करें। 7 मार्च 2011 को, गुजरात हाईकोर्ट ने एक दलित को सरकार द्वारा यह दावा किए जाने के बाद कि उसने धर्मांतरण किया था, पहले से मिल रहे आरक्षण के लाभों को खारिज कर दिया था। कोर्ट ने कहा कि निमेश जावेरी और उनका परिवार सरकार द्वारा जारी प्रमाण पत्र होने के बावजूद दलितों के रूप में अपने अधिकारों का फायदा लेना बंद कर देंगे। लोगों को शायद यह नहीं पता है कि एससी और एसटी व्यक्तियों (और महिलाओं) के धर्मांतरण के लिए अन्य व्यक्तियों के धर्मांतरण की तुलना में कड़ी सजा दी जाती है।
बीजेपी शासित राज्यों ने 2018 के बाद से ऐसे कड़े कानून बनाने शुरु कर दिए हैं जो शादी से जुड़े धर्मांतरण को रोकते हैं। भारत एक रुढिवादी समाज है। अधिकतर परिवार धार्मिक मान्यताओं और परंपराओं का घरों में पालन करते हैं। एक ही परिवार में अलग-अलग धर्मों के लोगों का होना सामान्य बात नहीं है। हालांकि सैद्धांतिक तौर पर दो अलग-अलग धर्मों के लोगों का स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत शादी करना संभव है, लेकिन इससे जुड़ी अपनी समस्याएं हैं जिन पर विचार करना जरूरी है।
नए ‘लव जिहाद’ कानून को सबसे पहले उत्तराखंड में धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम 2018 के तहत सामने लाया गया। इसमें कहा गया कि जो लोग हिंदू धर्म में आते हैं (हिंदु धर्म को पैतृक धर्म माना गया है) उन पर यह कानून लागू नहीं होगा। इसका अर्थ है कि हिंदु व्यक्ति किसी मुस्लिम से शादी करने के लिए इस्लाम धर्म नहीं अपना सकता, लेकिन मुस्लिम व्यक्ति हिंदू से शादी करने के लिए हिंदू धर्म अपना सकता है। इसी तरह उत्तर प्रदेश में यूपी विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिशेध अध्यादेश 2020 लाया गया। इसके तहत सबूत की बाध्यता ही खत्म कर दी गई। यानी अगर कोई व्यस्क महिला कहती है कि उसने अपनी मर्जी से अपना धर्म बदला है, तो इसे अपर्याप्त माना जाएगा और जिस परिवार में उस महिला ने शादी की है उसे सरकार को संतुष्ट करना होगा कि उस महिला पर किसी किस्म का दबाव धर्म परिवर्तन के लिए नहीं डाला गया।
मध्य प्रदेश में भी धर्म स्वातंत्रय अध्यादेश, 2020 लाया गया जिसमें शादी के लिए धर्म परिवर्तन करने पर 10 साल की सजा का प्रावधान है। इस कानून में शादी को अवैध घोषित किया जा सकता है, भले ही उस दंपति के बच्चे ही क्यों न हों। गुजरात में भी गुजरात धार्मिक स्वतंत्रता (संशोधन) अधिनियम 2021 लाया गया जिसमें 10 साल की सजा का प्रावधा किया गया है। कर्नाटक और हरियाणा समेत अन्य बीजेपी शासित राज्यों ने भी इसी किस्म के कानून जल्द लाने की बात कही है। 21वीं सदी के दो दशक गुजर जाने के बाद भी एक लोकतांत्रिक देश में ऐसी व्यवस्थाएं अटपटी हैं। लेकिन आज भारत में ऐसा ही कुछ हो रहा है और न जाने क्या-क्या आगे होने वाला है।
भारत के नागरिकों को "स्वतंत्र रूप से धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने" का मौलिक अधिकार है। प्रचार का अर्थ है प्रसार करना। संविधान सभा में, इस अधिकार पर ईसाईयों की ओर से उनके धर्मांतरण के अधिकार के हिस्से के रूप में जमकर बहस हुई थी। अम्बेडकर ने संविधान सभा के सामने जो मूल मसौदा प्रस्तुत किया था उसमें इन शब्दों का इस्तेमाल किया गया था, 'सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता के अनुकूल सीमाओं के भीतर, (धर्म का) प्रचार करने, प्रसार करने और परिवर्तित करने का अधिकार' है। उन्होंने प्रचार के लिए शब्द बदलने के बाद कोई टिप्पणी नहीं की क्योंकि वह संतुष्ट थे कि प्रचार का मतलब वही है जो परिवर्तिन से है। आज भारत में प्रचार करने या परिवर्तिन करने का कोई अधिकार नहीं है। ऐसा करने के लिए किसी को एक फॉर्म भरना होगा और फिर सरकार तय करेगी कि कोई अपना धर्म बदल सकता है या नहीं।
यह बात हमारे धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के बारे में सामने आ रही कई अजीबोगरीब बातों में से एक है।
कभी “धर्म का स्वतंत्र रूप से पालन करने और उसका प्रचार करने” को मौलिक अधिकार माना जाता था, यानी लोगों को सरकार की तरफ से यह सुरक्षा कवच मिला हुआ था, न कि ऐसा करना आपराधिक कृत्य बना दिया जाए।
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