खरी-खरी: जब ज़ुल्म के बंधन टूटेंगे, वह सुबह हमीं से आएगी

इस 21वीं सदी में वह चाहे फैज हों या फिर साहिर, दोनों की ही प्रासंगिकता इस कारण बढ़ जाती है कि इस समय चारों ओर एक बार फिर से मानव अधिकारों पर गहरा संकट है। वह अमेरिका हो अथवा म्यांमार, हर जगर इस समय लोकतांत्रिक प्रथाएं एवं मानव अधिकार संकट में हैं।

फोटो : सोशल मीडिया
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ज़फ़र आग़ा

उर्दू साहित्य के दो प्रख्यात कवि, एक पाकिस्तानी और दूसरे हिंदुस्तानी। पर दोनों की कविताएं न तो पाकिस्तानी हैं और न ही हिंदुस्तानी। एक की नज्में हिंदुस्तान के धरना-प्रदर्शनों में जन-जन की जुबान पर, तो दूसरे के गाने पाकिस्तानियों की महफिलों की जीनत। जी हां, आप समझ गए होंगे कि मैं पाकिस्तानी शायर फैज अहमद फैज और हिंदुस्तानी शायर एवं हिंदी फिल्मों के सबसे प्रख्यात गीतकार साहिर लुधियानवी का जिक्र कर रहा हूं। इन दोनों का जिक्र इसलिए कि फैज और साहिर, दोनों का जन्मदिन पिछले एक महीने के भीतर दोनों देशों में मनाया गया। फैज की 13 फरवरी को 110वीं जयंती थी, तो साहिर की 8 मार्च को 100वीं जयंती थी। इन दोनों कवियों के देश अलग-अलग थे लेकिन सोच और नजरिया एक था। इन दोनों ही कवियों ने मोहब्बत के जाम छलकाए पर दोनों ही ने हर जुल्म और नाइंसाफी के खिलाफ बिना किसी खौफ एवं खतरे के अपनी आवाज बुलंद की। ये दोनों ही केवल अपने देश के लिए ही नहीं जिए बल्कि मानवता के लिए भी जिए और उन्होंने जो कुछ लिखा वह संपूर्ण मानवता के लिए लिखा।

अच्छे साहित्य की पहचान ही यही है कि वह न केवल समय की परिधि से ऊंचा हो बल्कि वह कहीं भी पढ़ा और सुना जाए और वह किसी को भी अपना महसूस हो। फैज और साहिर का यही कमाल है कि वे हिंदुस्तान में पढ़े जाएं अथवा उनके गीत किसी भी सरहद के पार गुनगुनाए जाएं, दोनों ही तरफ के लोगों को महसूस होता है कि वे उनके अपने गीत हैं। तब ही तो पिछले वर्ष जब सीएए के खिलाफ भारत में प्रदर्शन हुए तो फैज अहमद फैज की कविता ‘हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे’ गली-गली में गूंज उठी। वैसे ही कौन पाकिस्तानी नहीं होगा जो लाहौर और कराची में साहिर के इस गीत ‘वक्त ने किया क्या हंसी सितम, तुम रहे न तुम, हम रहे न हम’ के बजने पर स्वयं इसको न गुनगुना उठे।

फैज और साहिर 1950 के दशक में (फैज तो पहले ही) साहित्य के जगत में चमके और लगभग चार-पांच दशकों तक दोनों देशों में अपनी कविताओं एवं गीतों के माध्यम से छाए रहे। दोनों ही मार्क्सवाद से प्रभावित थे, दोनों के यहां इश्क एवं मानवता प्रेम का साझा संदेश है। बल्कि ये दोनों ही प्यार में डूबकर एक ऐसे समाज की रचना के सपने दिखाते एवं सजाते हैं जहां दुख न हो, कोई नाइंसाफी न हो, सब बराबर हों और सब सुख-चैन की नींद सोएं। यदि कहीं भी ऐसा नहीं हो रहा हो तो बस उनकी कलम तुरंत एक ऐसी कविता रच देती थी कि जिसको पढ़ या सुनकर मनुष्य का मानवता एवं प्रेम में फिर से विश्वास उत्पन्न हो जाए। फैज ने तो स्वयं अपने बारे में लिखा ही यही कि उनका जीवन केवल और केवल प्रेम और संघर्ष है। वह कहते हैं:

मकाम ‘फैज’ कोई राह में जंचा ही नहीं

जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले।

फैज पाकिस्तान में वास्तविकता में ‘सू-ए-दार’ अर्थात जेल गए। और पाकिस्तान में जब भी फौजी राज हुआ तो उनको अपना वतन छोड़कर दर-बदर भटकना पड़ा। सन 1979 में जब जुल्फिकार अली भुट्टो को कैद करके पाकिस्तान में मार्शल लॉ लागू किया गया तो फैज को अपना वतन छोड़ना पड़ा। और तब उन्होंने लिखा :

मिरे दिल, मिरे मुसाफिर

हुआ फिर से हुक्म सादिर

कि वतन-बदर हों हम तुम

दें गली गली सदाएं

करें रुख नगर नगर, का।

अर्थात चलो, एक बार फिर से संघर्ष का समय आया! यही कुछ हाल साहिर का था। सन 1965 में भारत-पाक जंग के बाद जब दोनों ओर ‘फतह का जश्न’ मनाया जा रहा था, तो साहिर ने लिखा :

फतह का जश्न हो कि हार का सोग

जिंदगी मय्यतों पर रोती है

इसलिए ऐ शरीफ इंसानो

जंग टलती रहे तो बेहतर है

आप और हम सभी के आंगन में

शमा जलती रहे तो बेहतर है।


साहिर यूं तो फिल्मों में गीतकार का जीवन व्यतीत करने लगे। परंतु उन्होंने फिल्मों को ही अपने संघर्ष का माध्यम बना लिया। फिल्म ‘फिर सुबह होगी’ में जब साहिर ने लिखा कि ‘वो सुबह कभी तो आएगी’ तो सारा हिंदुस्तानअपना संघर्ष भूलकर एक नई सुबह की आशा लेकर साहिर का यह गीत गुनगुनाने लगा। आपको साहिर के दर्जनों ऐसे गीत मिल जाएंगे जिनके माध्यम से वह जुल्म के खिलाफ आवाज ही नहीं उठाते बल्कि संघर्ष का पैगाम भी देते हैं। वह पैगाम केवल अपने देशवासियों के लिए नहीं बल्कि सारे संसार के लिए है। फैज और साहिर की रचना का यही जादू दोनों को मानवता का कवि बना देता है।

मैं कोई साहित्यिक इंसान नहीं कि फैज और साहिर जैसे महान कवियों पर अपनी कलम उठाऊं। मैंने तो सारा जीवन पत्रकारिता की तथा राजनीति पर ही लिखा। परंतु क्या करूं कि फैज और साहिर की कविताओं में राजनीति कूट-कूट कर भरी है। परंतु ये दोनों ही शायर किसी पार्टी की राजनीति नहीं करते हैं। उनकी राजनीति का केंद्र मनुष्य है और उनकी रचना मानव अधिकारों के लिए एक संघर्ष है। यही कारण है कि कोई भी मानव अधिकार का संघर्ष हो, फैज की ‘हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे’ कविता पाकिस्तान और हिंदुस्तान, दोनों ही जगहों पर गूंज उठती है।

इस 21वीं सदी में वह चाहे फैज हों या फिर साहिर, दोनों की ही प्रासंगिकता इस कारण बढ़ जाती है कि इस समय चारों ओर एक बार फिर से मानव अधिकारों पर गहरा संकट है। वह अमेरिका हो अथवा म्यांमार, हर जगर इस समय लोकतांत्रिक प्रथाएं एवं मानव अधिकार संकट में हैं। भला कोई सोच सकता था कि अमेरिकी पार्लियामेंट कैपिटल हिल पर आक्रमण होगा और उस आक्रमण को रचने वाला डोनाल्ड ट्रंप आज भी अमेरिकी राजनीति का एक मुख्य बिंदु बना रहेगा। ऐसे ही भारत में सन 2002 में गुजरात नरसंहार के बाद मोदी जी इस देश के ‘हिंदू हृदय सम्राट’ बन जाएंगे। या इन दिनों लोकतंत्र की रक्षा के लिए म्यांमार में जिस प्रकार फौजी शासन के खिलाफ सड़कों पर उतरी जनता मारी जा रही है, तो ऐसी कल्पना इस सदी के आरंभ में नहीं की जा सकती थी।


लब्बोलुआब यह है कि मानवता एक बार फिर उसी तरह मानव अधिकारों के उल्लंघन से जूझ रही है जैसे कि फैज एवं साहिर के समय में जूझ रही थी। ये दोनों ही कवि अपनी रचना के माध्यम से उस समय मानवता को न केवल साझा प्रेम का संदेश दे रहे थे बल्कि अपनी कविताओं के माध्यम से संघर्ष का भी पैगाम दे रहे थे। और जब-जब मानवता पर यह संकट होगा तो केवल फैज एवं साहिर ही नहीं बल्कि हर वो साहित्यकार प्रासंगिक हो उठेगा जिसकी रचना मानव अधिकारों की रक्षा की रचना है। इस समय जब हमारे देश में हर लोकतांत्रिक प्रथा खतरे में है और 21 वर्ष की दिशा रवि को इसलिए जेल में डाल दिया जाता है क्योंकि उसने आंदोलन कर रहे किसानों का समर्थन किया तो फिर फैज अहमद फैज एवं साहिर लुधियानवी जैसे कवियों की कविताएं ही नहीं गुनगुनाई जाएंगी बल्कि उनके जन्मदिवस भी ‘नगर-नगर, गली- गली’ धूम से मनाए जाएंगे। और मैं भी इस अवसर पर अपनी कलम से ही सही फैज एवं साहिर जैसे मानवता के कवियों को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने में पीछे नहीं रहूंगा।

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