राम पुनियानी का लेखः RSS सामाजिक न्याय का घोर विरोधी, ‘भावनात्मक एकता’ के बहाने कायम रखना चाहता है भेदभाव
आरएसएस और उसके सभी संगठन और उनके नेता, जाति जनगणना को देश को बांटने वाला बता रहे हैं। सच यह है कि जाति जनगणना, देश में सामाजिक न्याय की स्थापना की दिशा में बड़ा कदम है। कहने की जरुरत नहीं कि आरएसएस, सामाजिक न्याय का घोर विरोधी है।
वर्तमान सत्ताधारी दल सहित हिन्दू राष्ट्र की कायमी के लक्ष्य को लेकर काम करने वाली कई अन्य संस्थाओं से मिलकर बने संघ परिवार के मुखिया हैं मोहन भागवत। ये संस्थाएं शिक्षा, राजनीति, सामाजिक गतिविधियों आदि में संलग्न हैं। भागवत संघ परिवार को विजयादशमी (दशहरा) के दिन मार्गदर्शन देते हैं। विजयादशमी का यह भाषण उस बहुसंख्यकवादी हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति की विचारधारा और राजनैतिक एजेंडा को प्रतिबिंबित करता है, जिसका नेतृत्व संघ परिवार के हाथों में है।
इस वर्ष (2023) के 24 अक्टूबर को उन्होंने अपने भाषण में केवल शब्दों के कुछ हेरफेर के साथ ऐसी कई बातें कहीं जिन्हें द्वितीय सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘बंच ऑफ थाट्स’ में निरूपित किया था। इस पुस्तक में गोलवलकर लिखते हैं, “मुस्लिम, ईसाई और कम्युनिस्ट हिन्दू राष्ट्र के लिए आंतरिक खतरा हैं”। छलपूर्ण भाषा में भागवत ने कहा कि “सांस्कृतिक मार्क्सवाद एक खुदगर्ज और धोखेबाज ताकत है जो मीडिया और शिक्षण के क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित कर देश को विभाजित करना चाहती है।”
उन्होंने आगे कहा, “ये शक्तियां कुछ उत्कृष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कार्य करने का दावा करती हैं लेकिन उनका वास्तविक लक्ष्य दुनिया की व्यवस्था और नैतिकता, परोपकार, संस्कृति, गरिमा और संयम को अस्त-व्यस्त करना है।” उन्होंने यह भी कहा कि, “ये विध्वंसक शक्तियां अपने आप को ‘वोक’ या मार्क्सवादी बताते हैं...विश्व की सभी सुव्यवस्था, मांगल्य, संस्कार, तथा संयम से उनका विरोध है....माध्यमों तथा अकादमियों को हाथ में लेकर देशों की शिक्षा, संस्कार, राजनीति और सामाजिक वातावरण को भ्रम एवं भ्रष्टता का शिकार बनाना उनकी कार्यशैली है।”
‘वोक’ शब्द मौजूदा दौर में सांस्कृतिक चर्चाओं के केन्द्र में रहा है। इसकी जड़ अफ्रीकी-अमेरिकियों की स्वयं को नस्लवाद के चंगुल से निकालकर समानता हासिल करने की ललक में है। यह शब्द लोकतंत्र के आगाज के पूर्व के तानाशाही के दौर की पितृसत्तात्मकता, नस्लवाद और वर्णों से संबंधित ऊंच-नीच द्वारा खड़ी की गई रुकावटों पर विजय हासिल करने का प्रतीक भी है।
यह कहा जा सकता है कि यह शब्द अब सारी दुनिया में प्रचलित हो गया है। यूरोप और आस्ट्रेलिया में रूढ़िवादी राजनीतिज्ञ ‘वोक’ के समावेशिता के विचार का उपहास करते हैं और इसके आधार पर लैंगिक समानता और पर्यावरण संरक्षण का विरोध करते हैं। बीबीसी की डाक्यूमेन्ट्री ‘इंडियाः द मोदी क्वेश्चन’ (मोदी के मुख्यमंत्रित्वकाल में गुजरात में हुई हिंसा पर बनी डाक्यूमेन्ट्री जिस पर भारत में पाबंदी लगा दी गई है) के बारे में टिप्पणी करते हुए आरएसएस नेता राम माधव ने ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में लिखा कि बीबीसी का यह ‘पतन’ ब्रिटेन के संभ्रात वर्ग में ‘वोक संस्कृति’ के उदय के कारण हुआ है।
जो राम माधव यह मानते हैं कि ‘द मोदी क्वेश्चन’ का प्रसारण करने से बीबीसी का ‘पतन’ हुआ है वे ही राम माधव सरसंघचालक के ‘जड़ों’ की ओर लौटने (संक्षेप में मनुस्मृति के मूल्यों के इर्दगिर्द जाने) के आव्हान का समर्थन करते हैं और सांस्कृतिक मार्क्सवादियों पर हमारे शिक्षण संस्थानों और मीडिया पर कब्जा करने का आरोप लगाते हैं। उनके अनुसार सांस्कृतिक मार्क्सवादियों ने ऐसा आख्यान विकसित किया है जिसमें हिन्दू धर्म को उच्च जातियों की प्रभुता के रूप में परिभाषित कर हिंदुत्व और जाति या जाति प्रथा को दमनकारी और शोषक निरूपित किया गया है। माधव के अनुसार जातिगत जनगणना विभाजनकारी है।
सच यह है कि स्वाधीनता संग्राम के दिनों से ही मार्क्सवाद से प्रभावित लोग समानता के लिए सामाजिक परिवर्तन के हामी रहे हैं। भगतसिंह और उनके साथियों ने समानता की बात थी। औद्योगीकरण और शिक्षा के प्रसार के साथ प्रगतिशील ताकतों ने उस विचारधारा को उखाड़ फेंकने की वकालत की जो सामंती समाज से हमें विरासत में मिली थी और जो वर्गीय, जातिगत और लैंगिक ऊंच-नीच पर आधारित थी। कम्युनिस्टों के अलावा, जोतीराव फुले और आंबेडकर के नेतृत्व वाली धारा ने भी उस दमनकारी व्यवस्था को चुनौती दी, जिसमें ऊंची जातियों के पुरुष दलितों और महिलाओं पर अपना प्रभुत्व जमाते थे और जिसमें पितृसत्तात्मक मूल्यों की प्रधानता थी। गांधीजी के नेतृत्व वाले स्वाधीनता आन्दोलन ने भी इन मुद्दों को उठाया और दमनकारी सामाजिक प्रथाओं के खिलाफ विद्रोह को व्यापक स्वरुप देने का प्रयास किया और उसे स्वाधीनता आन्दोलन का अभिन्न बनाया।
अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए संघर्ष भी स्वाधीनता आन्दोलन का अभिन्न अंग था और लोकमान्य तिलक से लेकर गांधीजी और उनसे लेकर नेहरु तक सभी ने इसका समर्थन किया। प्रगतिशील वर्गों ने विश्वविद्यालयों में शिक्षण और लेखन तथा भाषणों के जरिये अपने विचारों को आम लोगों तक पहुंचाया।
इन लोगों ने अपनी बौद्धिक आजादी का उपयोग कर हमारी शिक्षा प्रणाली को प्रजातान्त्रिक नींव दी और वे जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय जैसे बौद्धिक उत्कृष्टता के केन्द्रों की स्थापना में सहायक बने। इस संस्थान ने जबरदस्त प्रतिष्ठा अर्जित की और देश को अनेक लेखक, नौकरशाह और पुलिस अधिकारी दिए। निश्चित रूप से भागवत और माधव का यह दावा सही नहीं है कि शिक्षा के केन्द्रों में घुसपैठ करने का कोई योजनाबद्ध प्रयास किया गया, जिसके चलते हम ‘अपनी जड़ों’ से दूर चले गए। उनके लिए तो पूरा स्वाधीनता संग्राम ही ‘हमारी जड़ों से दूर जाना था।”
हिन्दू राष्ट्रवादियों के इस दावे में भी कोई दम नहीं है कि मार्क्सवादियों की दृष्टि में हिन्दू धर्म का अर्थ था उच्च जातियों की प्रभुता। यह हिन्दू राष्ट्रवादियों की हमारे अतीत की सतही समझ को दर्शाता है। वे भूल जाते हैं कि आंबेडकर (चुनाव में लाभ प्राप्त करने के लिए जिनकी शान में हिन्दू राष्ट्रवादी कसीदे गढ़ रहे हैं) ने कहा था कि हिन्दू धर्म में ब्राह्मणवादी मूल्यों का बोलबाला है। दलितों को समानता का अधिकार न देने के प्रति कटिबद्ध कट्टरपंथी हिन्दू धर्म के सिद्धांतों से आंबेडकर इतने आहत थे कि उन्होंने न केवल सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति का दहन किया बल्कि यह घोषणा भी की कि, “मैं हिन्दू के रूप में पैदा हुआ था। वह मेरे हाथ में नहीं था। परन्तु मैं हिन्दू के रूप में मरूंगा नहीं।” इसी कारण आंबेडकर उन ‘जड़ों’ से दूर चले गए थे, जिनका गुणगान भागवत और माधव कर रहे हैं।
वोक, जो कि सामाजिक ऊंचनीच की बेड़ियों को तोड़ देना चाहते हैं, को भागवत एंड कंपनी नीची निगाहों से देखते हैं। उदारवादी भारतीय संविधान के मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध रहना चाहते हैं और वे संयुक्त राष्ट्रसंघ के मानवाधिकार घोषणापत्र के मूल्यों का सम्मान करते हैं। इसके विपरीत, आरएसएस ने अत्यंत योजनाबद्ध तरीके से सरस्वती शिशु मंदिरों की श्रृंखला की स्थापना की है, जिनका पाठ्यक्रम जातिगत और लैंगिक पदक्रम का समर्थन करता है। संघ के ‘शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास’ ने वेंडी डोनिगर के तार्किक और विद्वतापूर्ण लेखन का विरोध किया। एक अन्य संघी संगठन ने एके रामानुजन के लेख “थ्री हंड्रेड रामायाणास’ को पाठ्यक्रम से बाहर करवाया। यह लेख हमारी विविधवर्णी संस्कृति को समझने में हमारी मदद करता है। और ये तो केवल चंद उदाहरण हैं।
उदारवादी मूल्य देश को नहीं बांट रहे थे। वे तो पितृसत्तात्मकता और जाति प्रथा से मुक्ति की बात करते हैं। देश को जो बांट रहा है वह है आरएसएस शाखाओं, उसके लाखों स्वयंसेवकों और हजारों प्रचारकों द्वारा किया जा रहा अल्पसंख्यक-विरोधी दुष्प्रचार। जहां तक मीडिया पर नियंत्रण का सवाल है, उसके बारे में जितना कहा जाए, वह कम है। सन 1977 में जनता पार्टी की सरकार में लालकृष्ण अडवाणी के सूचना और प्रसारण मंत्री बनने के बाद से आरएसएस के स्वयंसेवकों का मीडिया संस्थानों में घुसपैठ करने का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह अब भी जारी है। मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद से कॉर्पोरेट घरानों ने मीडिया के एक बड़े हिस्से पर अपना नियंत्रण कायम कर लिया है और यह हिस्सा अब संघ और बीजेपी का भौंपू बन गया है।
ये सभी संगठन और उनके नेता, जाति जनगणना को देश को बांटने वाला बता रहे हैं। सच यह है कि जाति जनगणना, सामाजिक न्याय की स्थापना की दिशा में बड़ा कदम है। कहने की ज़रुरत नहीं कि आरएसएस, सामाजिक न्याय का घोर विरोधी है।
(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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