राम पुनियानी का लेखः RSS मूलतः एक राजनैतिक संगठन, सरकारी कर्मचारियों को सदस्य बनने की इजाजत देना कितना सही?

आरएसएस के चेहरे पर से सांस्कृतिक संगठन का मुखौटा हटाया जाना जरूरी है। अगर हमें भारतीय संविधान और प्रजातंत्र की रक्षा करनी है तो हमें संघ के असली एजेंडे को समझना ही होगा। यह स्पष्ट है कि संघ सबसे पहले और मूलतः एक राजनैतिक संगठन है।

राम पुनियानी का लेखः सरकारी कर्मचारियों को RSS का सदस्य बनने की इजाजत देना कितना सही?
राम पुनियानी का लेखः सरकारी कर्मचारियों को RSS का सदस्य बनने की इजाजत देना कितना सही?
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राम पुनियानी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) दुनिया का सबसे बड़ा संगठन है। उसका दावा है कि वह एक सांस्कृतिक संस्था है। लेकिन आरएसएस का उद्धेश्य है हिंदू राष्ट्र की स्थापना। हमारे देश के संविधान का आधार है भारतीय राष्ट्रवाद मगर आरएसएस हिंदू राष्ट्रवाद की बात करता है और हिंदुओं को एक अलग राष्ट्र मानता है। समय-समय पर बीजेपी के शीर्ष नेता यह मांग करते रहे हैं कि भारतीय संविधान को सिरे से बदल कर, भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित किया जाए। यही बात आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक के. सुदर्शन ने सन् 2000 में अपना पद संभालने के तुरंत बाद कही थी। सन् 2024 के लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा था कि अब बीजेपी पहले से अधिक काबिल बन गई है और अब उसे चुनाव जीतने के लिए आरएसएस की मदद की जरूरत नहीं है।

बीजेपी एक राजनैतिक दल है और उसके गठन में आरएसएस की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इससे साफ है कि संघ के राजनीति और बीजेपी से नजदीकी रिश्ते हैं। हिंदू महासभा के श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने आरएसएस के साथ मिलकर बीजेपी के पूर्व अवतार जनसंघ का गठन किया था। उस समय आरएसएस के मुखिया एम.एस. गोलवलकर (गुरूजी) थे। वे आरएसएस के प्रमुख चिंतकों में से एक माने जाते हैं। उन्होंने कई मौकों पर जनसंघ और बीजेपी में काम कर रहे संघ के स्वयंसेवकों और प्रचारकों की भूमिका की चर्चा की है।

गोलवलकर लिखते हैं, ‘‘उदाहरण के लिए हमारे कुछ मित्रों से कहा गया कि जाईये, राजनीति में काम कीजिये। इसका कारण यह नहीं है कि वे राजनीति में बहुत रूचि रखते हैं या राजनीति से प्रभावित हैं। वे राजनीति के बिना उस तरह नहीं तड़पेंगे जैसे पानी के बिना मछली तड़पती है। अगर उनसे राजनीति छोड़ देने के लिए कहा जाएगा तो भी उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। उनके अपने विचार का कोई महत्व नहीं है" {गोलवलकर, एमएस, ‘श्रीगुरूजी समग्र दर्शन (हिंदी में गोलवलकर का संपूर्ण वांग्मय), भारतीय विचार साधना, नागपुर, खंड 3 पृष्ठ 31}। इससे यह साफ है कि बीजेपी और जनसंघ से यह अपेक्षा की जाती थी और है कि वे आरएसएस के निर्देशों का पालन करें।

एक अन्य स्थान पर गुरूजी कहते हैं, ‘‘हम यह भी जानते हैं कि हमारे कुछ स्वयंसेवक राजनीति के क्षेत्र में काम करते हैं। उन्हें उसके अनुरूप काम करना पड़ता है। उन्हें सार्वजनिक सभाओं में बोलना पड़ता है, जुलूस निकालने पड़ते हैं और नारे लगाने होते हैं।" ({गोलवलकर, एमएस, ‘श्रीगुरूजी समग्र दर्शन (हिंदी में गोलवलकर का संपूर्ण वांग्मय), भारतीय विचार साधना, नागपुर, खंड 4, पृष्ठ 4-5)}।


आरएसएस ने बड़े संख्या में अपनी सोच में ढले स्वयंसेवकों को प्रशिक्षित और तैयार किया। उसके बाद उसने कई अलग-अलग संगठन स्थापित किए। महात्मा गांधी का हत्यारा नाथूराम गोडसे भी संघ का प्रशिक्षित प्रचारक था। उस समय आरएसएस अपने सदस्यों का कोई रिकार्ड नहीं रखता था और इसलिए संघ, गांधीजी की हत्या में सीधे संलिप्त होने के आरोप से बच गया। नाथूराम गोडसे के परिवार का मानना है कि आरएसएस के इस कट्टर सदस्य को न तो कभी आरएसएस से निष्कासित गया और न उसने कभी आरएसएस को छोड़ा।

हिंदू राष्ट्रवाद के जानेमाने अध्येता शम्सुल इस्लाम लिखते हैं, ‘‘आरएसएस के केन्द्रीय प्रकाशन (सुरूचि प्रकाशन, झंडेवालान, नई दिल्ली) द्वारा प्रकाशित "परम वैभव के पथ पर" (1997) में आरएसएस द्वारा अलग-अलग क्षेत्रों के लिए गठित 40 से अधिक संगठनों की सूची दी गई है। बीजेपी इस सूची में तीसरे नंबर पर है और उसे संघ का राजनैतिक संगठन बताया गया है। सूची में जो अन्य प्रमुख संगठन शामिल हैं, उनमें से कुछ हैं अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, हिंदू जागरण मंच, विश्व हिंदू परिषद, स्वदेशी जागरण मंच और संस्कार भारती"।

इसी तरह आरएसएस की आधिकारिक प्रार्थना और शपथ से यह साफ है कि उसके अनुयायी हिंदू राष्ट्र के निर्माण के प्रति प्रतिबद्ध हैं। संघ की प्रार्थना हैः "हे सर्वशक्तिशाली परमेश्वर! हम हिन्दू राष्ट्र के अंगभूत तुझे आदर सहित प्रणाम करते हैं। तेरे ही कार्य के लिए हमने अपनी कमर कसी है। उसकी पूर्ति के लिए हमें अपना शुभाशीर्वाद दे।" (आरएसएस शाखा दर्शिका, ज्ञान गंगा, जयपुर, 1997, पृष्ठ 1)। इसी तरह संघ की शपथ भी एकदम स्पष्ट है: ‘‘मैं मेरे पवित्र हिंदू धर्म, हिंदू समाज और हिंदू संस्कृति की प्रगति को पुष्ट कर भारतवर्ष का समग्र गौरव स्थापित करने के लिए संघ का सदस्य बना हूं।"

संघ सांस्कृतिक संगठन का लबादा ओढ़े रहता है। इससे उसे बहुत से लाभ हैं। जैसे वह सभी राजनैतिक विचारधाराओं के लोगों को आकर्षित कर सकता है। लेकिन हमारे स्वाधीनता संग्राम के सभी बड़े नेता संघ के असली चरित्र को अच्छी तरह से जानते-समझते थे। गांधीजी के काफिले के एक सदस्य ने वाघा, जो कि पंजाब में प्रवेश कर रहे शरणार्थियों का प्रमुख अस्थाई आश्रय स्थल था, में काम कर रहे आरएसएस के कार्यकर्ताओं की कार्यकुशलता, अनुशासन, साहस और परिश्रम की प्रशंसा की। इस पर गांधीजी का जवाब था, ‘‘परंतु यह न भूलो कि हिटलर के नाजी और मुसोलिनी के फ़ासिस्ट भी ऐसे ही थे।" महात्मा गांधी संघ को एक साम्प्रदायिक और एकाधिकारवादी सोच वाला संगठन मानते थे (प्यारेलाल, महात्मा गांधीः द लास्ट फेज़, अहमदाबाद, पृष्ठ 440)।


नेहरू का मानना था कि आरएसएस में फासीवाद के कई लक्षण हैं। देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था, "आरएसएस अपने संगठन की संपूर्ण जानकारी गुप्त रखता है। उसका विकास फासीवादी तरीके से हुआ है और वह निश्चित रूप से लोक शांति के लिए संभावित खतरा है" (डॉ राजेन्द्र प्रसाद द्वारा सरदार वल्लभ भाई पटेल को लिखा पत्र, 12 दिसंबर 1948)।

सरदार पटेल के अनुसार, ‘‘जहां तक गांधीजी की हत्या में आरएसएस और हिंदू महासभा की भागीदारी की बात है...हमारी रपटें पुष्टि करती हैं कि इन दोनों संगठनों, और विशेषकर दोनों में से पहले, की गतिविधियों से देश में ऐसा वातावरण बना जिसके कारण ऐसी भयावह त्रासदी संभव हो सकी...आरएसएस की गतिविधियां सरकार और राज्य के अस्तित्व के लिए स्पष्ट खतरा हैं। हमारी रपटों के अनुसार प्रतिबंध के बावजूद भी उसकी गतिविधियां खत्म नहीं हुई हैं। बल्कि समय बीतने के साथ आरएसएस की हिम्मत बढ़ती जा रही है और वह अपनी विध्वंसकारी गतिविधियों को और तेजी से चला रहा है" (सरदार पटेलः सिलेक्ट करस्पोंडेंट, 1940-1950, खंड 2, नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, अहमदाबाद, 1977, पृष्ठ 276-277 पर प्रकाशित पत्र क्रमांक 64)।

हम सबको पता है कि आरएसएस पर तीन बार प्रतिबंध लगाया जा चुका है और तीनों बार सांस्कृतिक संगठन का मुखौटा पहनकर वह प्रतिबंध को हटवाने में सफल रहा है। शासकीय कर्मियों के राजनीति में भाग लेने पर प्रतिबंध इसलिए लगाया जाता है ताकि वे संविधान के मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध रहें और अपने काम में राजनैतिक पक्षपात न करें।

शासकीय कर्मचारियों के आरएसएस की गतिविधियों में भाग लेने पर प्रतिबंध पिछले 50 से भी अधिक सालों से लगा हुआ है। इस बीच जनता पार्टी और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारें भी सत्ता में रहीं मगर यह प्रतिबंध नहीं हटाया गया। श्री मोदी पिछले 10 साल से सत्ता में हैं। उन्होंने यह निर्णय अब क्यों लिया? क्या इसलिए क्योंकि आरएसएस मुखिया मोहन भागवत ने परोक्ष रूप से सर्वोच्च नेता पर हमला किया है? भारतीय संस्कृति में आरएसएस के योगदान का समाज विज्ञानियों और संस्कृतिकर्मियों द्वारा अध्ययन किया जाना चाहिए। आरएसएस के चेहरे पर से सांस्कृतिक संगठन का मुखौटा हटाया जाना जरूरी है। अगर हमें भारतीय संविधान और प्रजातंत्र की रक्षा करनी है तो हमें संघ के असली एजेंडे को समझना ही होगा। यह स्पष्ट है कि संघ सबसे पहले और मूलतः एक राजनैतिक संगठन है।

(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)

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