बाबरी की 25वीं बरसी : संघ का हिंदुत्व बनाम असली भारत का विचार
बाबरी की 25वीं बरसी पर अपने विचार व्यक्त करने से पहले हमें यह ध्यान रखना होगा कि हम ऐसे दौर में हैं जहां तथ्यों और सच्चाई से ज्यादा भावनाओं और निजी विश्वासों केआधार पर धारणा बनाई जा रही है।
आज के सार्वभौमिक युग की व्याख्या इसी से हो सकती है कि यह आधुनिक मूल्यों से मुंह फेर चुका समय लगता है। ऐसे में हमें अपने राष्ट्रीय आंदोलनों के उन नेताओं की दूरदर्शिता पर अधिक गर्व करना चाहिए, जिन्होंने हमें भारत नाम का विचार दिया, जो मूलत: लोगों के असली मुद्दों पर केंद्रित है। इस विचार की जड़ें भारत के लोगों के ऐतिहासिक अनुभवों से निकली हैं, और इसीलिए यह विचार विविधता का सम्मान करता है। इस विचार की मूल प्रकृति लोकतांत्रिक और भविष्योन्मुखी है। यही विचार सेक्युलर शब्द की विस्तार से व्याख्या करता है, जिससे सर्व धर्म संभाव यानी सभी धर्मों के सम्मान की भावना जगती है। ये विचार इस बात का भी द्योतक है कि भारतीय समाज में कोई भी प्रगतिशील बदलाव इसी वैचारिक परंपरा के अनुरूप और उसी कड़ी में ही होगा।
चूंकि देश के स्वतंत्रता आंदोलन में कांग्रेस ने अग्रणी भूमिका निभाई थी, इसीलिए इस विचार को कांग्रेस से जोड़कर देखा जाता रहा है, लेकिन हकीकत में इस विचार को सभी लोकतांत्रिक और प्रगतिशील शक्तियों ने अपनाया है। इनमें कांग्रेस के कटु आलोचक भी शामिल हैं। इसी विचार में सबके समान विकास और सामाजिक समरसता वाली आर्थिक नीतियां भी निहित हैं।
इस विचार की रूपरेखा और प्रस्ताव 1931 में हुए कांग्रेस कराची अधिवेशन में तय हुई थी, जहां यह भी तय हुआ था कि स्वतंत्र भारत में कांग्रेस और सरकार आर्थिक विकास, नियमित काम के घंटे, अस्पृश्यता का अंत यानी छुआछूत से छुटकारा, लिंग समानता और सिविल लिबर्टी के सिद्धांतों पर चलेगी।
यह प्रस्ताव जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस ने लिखा था और महात्मा गांधी ने इसे प्रस्तुत किया था, जबकि सरदार पटेल ने इस पर मुहर लगाई थी। यह प्रस्ताव कांग्रेस में आपसी पसंद या ना पसंद को परे कर आम सहमति का प्रतीक भी था। इसीलिए स्वाधीनता हासिल करने के बाद कानूनी और राजनीतिक प्रक्रिया से ओद्योगिक ढांचे बनाकर सामाजिक लोकतंत्र के साथ संप्रभुता और आत्मनिर्भरता हासिल करना सबसे बड़ा लक्ष्य था।
आरएसएस के लिए यह विडंबना ही थी कि हिंदू बहुसंख्यक देश होने के बावजूद हिंदुत्व की उसकी विचारधारा से बहुत कम लोग सहमत थे। यहां तक कि 2014 में मोदी लहर के बाद भी आरएसएस की राजनीतिक शाखा बीजेपी को 31 फीसदी वोट ही हासिल हुए। इन वोटों का भी बड़ा हिस्सा विकास और मोदी की निजी लोकप्रियता के दम पर हासिल किया गया। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि 2014 के लोकसभा चुनावों के परिणाम उस रणनीति का नतीजा थे, जिसकी बुनियाद 1992 में अयोध्या से पड़ी थी।
लेकिन आरएसएस में एक खास बात तो है, वह यह कि उसने अपने हिंदू राष्ट्र की कल्पना वाली विचारधारा को कभी छिपाया नहीं। बीजेपी को इस विवादित मुद्दे को कुछ समय के लिए पीछे रखकर रणनीति के तहत आगे बढ़ने को कहा गया था, लेकिन वह भी अपने हिंदुत्व के एजेंडे से डिगी नहीं है। यह वह हथियार था जिसके तहत हिंदुत्व को वैकल्पिक राष्ट्रीय परिकल्पना के तौर पर पेश किया जाने लगा।
इस तरह तथ्यों को परे कर हुई घटनाओं की परिणति 6 दिसंबर 1992 के रूप में हुई और जिसकी शुरुआत आडवाणी ने 1990 री रथ यात्रा से हुई थी। इस रथ यात्रा से कई बरस पहले से आरएसएस रामजन्म भूमि मुक्ति आंदोलन की जमीन तैयार करने में लगी थी। मेरठ और कई दूसरी जगहों पर हुए दंगे संघ की इन्ही संभावनाओं की तलाश से जुड़े हुए थे। इसकी जमीन 8 अप्रैल 1984 को नई दिल्ली में हुई विश्व हिंदू परिषद की धर्म संसद में पारित प्रस्ताव से हुई जिसमें मुक्ति की बात कही गई थी।
आज हम पीछे मुड़कर देखें तो हमें याद करना होगा कि कई धर्मों वाले भारत जैसे देश में अल्पसंख्यकों के लोकतांत्रिक अधिकार बिना बहुसंख्यक समुदाय के धार्मिक विश्वास और उनकी मदद के सुनिश्चित नहीं हो सकते।
दरअसल आम हिंदुओं की धार्मिक भावनाओँ को समझने में नाकामी के कारण ही आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद और बीजेपी को अपनी कार्यनीति को आगे बढ़ाने में मदद मिली। वामपंथियों, उदारवादियों और कट्टरपंथियों ने जिस तरह किसी भी हिंदू भावना को दरकिनार किया, उससे समस्या और विशाल और उग्र हो गई। मसलन, आज के गौ-रक्षा वाले राजनीतिक विमर्श में जिस तरह वामपंथियों और उदरावादी बुद्धिजीवियों ने प्राचीन भारत में गौ-मांस के सेवन को साबित करने के जो प्रयास किए, इससे यही साबित होता है। उन्हें लगता है कि प्राचीन समय के बाद हिंदुओं ने अपनी भोजन प्राथमिकताओं को छोड़ दिया है और वे अपने पुरखों और वंशजों के धार्मिक विश्वास और परंपराओं से दूर हो गए हैं। इसके अलावा देश और दुनिया के कई हिस्सों में सामने आई जिहादी विचारधार ने भी हिंदूओं की बेचैनी में इजाफा किया।
आरएसएस के हिंदुत्व से महज ओबीसी या दलित राजनीति सामने रखकर मुकाबला नहीं किया जा सकता है। बीजेपी दावा कर सकती है कि उन्होंने ओबीसी को शीर्ष पदों पर बिठाया है जिसमें प्रधानमंत्री का पद भी शामिल है। 2002 के गुजरात दंगों के बाद लालू प्रसाद यदाव के अलावा, करीब-करीब सभी ओबीसी नेताओं ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बीजेपी के साथ गठबंधन किया है। मायावती को भी बीजेपी से कभी सीधा परहेज नहीं रहा।
ऐसे में जरूरत है कि हम एक ऐसा वास्तविक राष्ट्रीय कार्यक्रम सामने रखें, जिसमें शोषण और भेदभाव के हर रूप से निपटने की व्यवस्था हो, जो भारत की बहुलतावादी परंपरा के प्रति संवेदनशील हो और जो भावनाओँ को ठेस पहुंचाने वाले और हर तरह के संप्रदायवाद से लड़ने में सक्षम हो। सिर्फ ऐसा कार्यक्रम ही हिंदुत्व के राजनीतिक और सांस्कृतिक हथकंडों को रोक सकेगा। सांस्कृतिक पहचान के मुद्दे को भी राजनीतिक दायरे में रखते हुए सामाजिक व्यवस्था पर केंद्रित करना होगा।
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