बापू और उनके हत्यारे की विरासत पर संघ का एकसाथ दावा न सिर्फ हास्यास्पद, बल्कि अपमानजनक भी है
अगर संघ बापू सही अर्थों में बापू को अपनाना चाहता है तो उसे यह मानना होगा जो गांधी जी ने कहा था, “स्वतंत्र भारत हिंदू राज नहीं होगा...यह ऐसा भारत होगा जो किसी धार्मिक समुदाय या पंथ की बहुसंख्या पर आधारित नहीं होगा...”
हाल ही में आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गेनाइज़र ने अपने संपादकीय में सवाल उठाया था कि आखिर कांग्रेस क्यों महात्मा गांधी की विरासत को अपना बताती है। साथ ही कहा था कि गांधी की विरासत पर संघ का दावा किया था। इतना दुस्साहस की क्या कम था कि इस संपादकीय के बाद आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के एक निबंध में महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि दी गई थी।
कोई भी साधारण पाठक महात्मा गांधी और उनके मूल्यों के प्रति इस समर्पण से अभिभूत हो सकता है। लेकिन फिर भी यह पाठक यह सवाल जरूर पूछेगा कि आखिर महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त कहने वाली और उनकी प्रशंसा करने वाली बीजेपी सांसद प्रज्ञा ठाकुर के खिलाफ कोई कार्यवाही क्यों नहीं हुई?
क्या बीजेपी-आरएसएस इतना लोकतांत्रिक या फिर अराजक हो चुके हैं कि संघ प्रमुख और प्रधानमंत्री तो महात्मा गांधी की प्रशंसा करते रहें, लेकिन सार्वजनिक तौर पर गांधी को लेकर उनके विचारों से असहमति जताने वाले और लक्ष्मण रेखा लांघने वाले सांसद का त्याग करने की इच्छा तक न जताएं? क्या महात्मा गांधी और उनके हत्यारे की विरासत को पर एक साथ ही दावा किया जा सकता है? संघ जैसी दोमुंही बात करने वाली संस्था के लिए भी कम से कम ऐसा होना तो अचरज में डालता ही है।
दरअसल संघ-बीजेपी के विचारकों की आदत बन गई है कि वे इस बात का दावा करते फिरें कि गांधीजी ने संघ कार्यालय का दौरा किया था और दो-एक मौकों पर संघ की प्रशंसा भी की थी। संघ प्रमुख भागवत ने भी गांधी जी के चयनित लेखों का जिक्र करते हुए ऐसा ही किया।
क्या आपको इससे अचरज नहीं होता कि जो संस्था 1925 में अस्तित्व में आई और खुद के राष्ट्रवादी होने का दावा करती है, उसने अपने दौर के सबसे बड़े स्वतंत्रता सेनानी और नेता से इतना कम संवाद या व्यवहार किया कि 1925 से 1947 के बीच उसके पास बताने के लिए सिर्फ दो-एक मौके ही हैं?
ध्यान रहे कि 1925 से 1947 के बीच दो बड़े जनांदोलन हुए। एक था सिविल नाफरमानी यानी असहयोग आंदोलन, जो 1930 से 1932 के बीच चला और दूसरा था क्विट इंडिया मूवमेंट यानी भारत छोड़ो आंदोलन जो 1942 में हुआ। इन दोनों आंदोलनों में संघ की भूमिका के बारे में सवाल करो तो बताया जाता है कि संघ के संस्थापक डॉ हेडगेवार ने इसमें हिस्सा लिया था और जेल भी गए थे। लेकिन इसका जवाब नहीं है कि आखिर आरएसएस स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल क्यों नहीं हुआ?
दरअसल 1942 में ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता कि डॉ हेडगेवार जेल गए हों। यह स्थापित और दस्तावेज़ी तथ्य है कि आरएसएस ने अपने स्वंयसेवकों को स्वतंत्रता आंदोलन से दूर रहने को कहा था और संघ की राजनीतिक शाखा, वी डी सावरकर की अगुवाई वाली हिंदू महासभा ने अंग्रेजों के साथ सहयोग की पेशकश की थी और हिंदुओं से अंग्रेज़ सेना में शामिल होने को कहा था। इतना ही नहीं आरएसएस ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सिंध और नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रॉविंस में और कृषक प्रजा पार्टी के साथ मिलकर बंगाल में सरकार बनाई थी।
और, यह वह समय था जब गांधी जी, सरदार पटेल, जवाहर लाल नेहरू, मौलाना आज़ाद और कांग्रेस के बहुत सारे नेता और कार्यकर्ता जेलों में डाल दिए गए थे। और, जिन गांधी को आज संघ अपना बता रहा है, क्या आरएसएस ने उन गांधी जी की गिरफ्तारी के खिलाफ एक भी विरोध सभा की?
महात्मा गांधी ने क्या लिखा था?
असहज करने वाले तथ्यों को छिपा लेना संघ की एक और आदत है, और गांधी जी के लेखों के उल्लेख में उनके शोध से यह स्पष्ट भी हो जाता है। जिस लेख का उल्लेख किया गया है, उसे गांधी जी ने अपनी गिरफ्तारी से ठीक पहले 9 अगस्त 1942 को हरिजन नामक अखबार में लिखा था। अगले ही दिन गांधी जी को गिरफ्तार कर लिया गया था।
गांधी जी ने लेख में दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी द्वारा उनको भेजी गई एक शिकायत का उल्लेख किया था। इसमें कहा गया था कि, आरएसएस के 3000 सदस्य रोज लाठी लेकर अभ्यास करते हैं और नारे लगाते हैं कि ‘हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं का है और किसी का नहीं’। इस नारे के बाद एक भाषण होता है, जिसमें वक्ता कहते हैं कि, ‘पहले अंग्रेजों को बाहर निकालो और उसके बाद हम मुसलमानों से निपटेंगे। अगर वे नहीं माने तो उन्हें मार देंगे।’
गांधी जी ने आगे लिखा, ‘इस मामले को सामने रखते हुए, कहा जा सकता है कि यह नारा गलत है और इसके बाद होने वाले भाषण खतरनाक...मुझे आशा है कि संघ के कर्ताधर्ता इस मामले की जांच करेंगे और जरूरी कदम उठाएंगे।’ इसी में आगे गांधी जी ने संघ के नारे ‘हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं का है, किसी और का नहीं’ के जवाब में ऐसी व्यवस्था की चर्चा की है जो सही मायनों में भारतीय राष्ट्रवाद का दस्तावेज है। गांधी जी ने लिखा:
“नारा गलत और बेहूदा है, क्योंकि हिंदुस्तान उन सभी का है जो यहां जन्मे और पले-बढ़े हैं, और जिनके पास दूसरा देश नहीं है। इसलिए यह पारसियों, बेनी इज़रायलियों, भारतीय ईसाइयों, मुसलमानों और अन्य गैर हिंदुओं का भी उतना ही है, जितना हिंदुओं का। स्वतंत्र भारत एक हिंदू राज नहीं होगा, यह भारतीय राज होगा जिसका आधार किसी धार्मिक समुदाय का पंथ की बहुसंख्या से नहीं बल्कि धर्म के बिना सभी लोगों के प्रतिनिधित्व का होगा....धर्म एक निजी मामला है, जिसका राजनीतिक में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।”
गांधी जी आरएसएस के असली चरित्र को अच्छी तरह पहचान गए थे, इस बात की तस्दीक उनके सचिव प्यारेलाल भी करते हैं। 1946 में जब सांप्रदायिक दंगे भड़के तो गांधी जी के काफिले एक सदस्य ने कहा कि आरएसएस के सदस्य शिविरों में अच्छा काम कर रहे हैं, जिस पर गांधी जी ने तुरंत कहा था, “मत भूलो की नाजियों ने भी हिटलर के नेतृत्व में फासिस्टों ने मुसोलिनी के नेतृत्व में ऐसा ही किया था।”
कांग्रेस से नफरत करने वालों की एक और पसंदीदा बात का ऑर्गेनाइज़र के संपादकीय में जिक्र किया गया है, जिसमें कहा जाता है कि गांधी जी ने कहा था कि स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस को भंग कर देना चाहिए। संपादकीय में इसी आधार पर आगे कहा गया है कि कांग्रेस गांधी की विरासत का दुरुपयोग कर रही है।
यह तर्क उस लेख की एक भ्रामक व्याख्या है जो गांधी जी की मृत्यु के 3 दिन बाद हरिजन में 2 फरवरी 1948 को प्रकाशित हुआ था। गांधी जी के इस लेख को उनके सहयोगियों ने ‘लास्ट विल एंड टेस्टामेंट’ (अंतिम इच्छा और वसीयत) का शीर्षक दिया था।
गांधी जी ने इस लेख को अपनी मृत्यु की किसी भी आहट के एहसास के बिना और अपनी आखिरी इच्छा और वसीयत के इरादे से 29 जनवरी को लिखा था। दरअसल यह लेख उस बहस का हिस्सा था जिसमें स्वतंत्रता आंदोलन में 1946 से कांग्रेस की भूमिका पर बात हो रही थी। इस बहस में तमाम नेताओं के विचार सामने आ रहे थे और गांधी जी भी इस बहस में शामिल थे।
एक और तथ्य है कि हरिजन में 2 फरवरी 1948 को ही गांधी जी का एक और बयान प्रकाशित हुआ था। इसमें कहा गया था:
वर्षों तक अहिंसा के सिद्धांत पर चलकर स्वतंत्रता हासिल करने वाले देश के सबसे पुरानी राष्ट्रीय राजनीतिक संगठन कांग्रेस को ऐसे ही खत्म होने नहीं दिया जा सकता। यह सिर्फ राष्ट्र के साथ ही खत्म हो सकती है।
अगर आरएसएस/बीजेपी बापू की विरासत पर दावा करती है, तो उसे गांधी जी के उन वचनों को लागू करना होगा जो उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ आखिरी लड़ाई के सबसे कठिन दौर ‘करो या मरो’ की पूर्वसंध्या पर कहा था:
हिंदुस्तान उन सभी का है जो यहां जन्मे और पले-बढ़े और जिनका अपना कोई देश नहीं है...स्वतंत्र भारत हिंदू राज नहीं होगा....
क्या संघ के लोग अपने सीने पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि एनआरसी और जिस नागरिकता संशोधन बिल को पूरे देश में लागू करने की धमकी दे रहे हैं, गांधी जी के वचनों के अनुरूप हैं?
क्या जम्मू-कश्मीर के लोगों के नागरिक अधिकार छीनना गांधी जी विरासत के उन वचनों को तोड़ने की कोशिश नहीं है जिन्हें संविधान ने दिया है और जिसे गांधी जी ने ‘जीवन का जल’ कहा था?
(लेखिका जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में आधुनिक इतिहास पढ़ाती थीं और दो प्रसिद्ध पुस्तकों ‘इंडियाज़ स्ट्रगल फॉर इंडिपेंडेंस’ और ‘इंडिया सिंस इंडिपेंडेंस’ की सहलेखक हैं।)
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