राम पुनियानी का लेखः RSS और आम्बेडकर दो विपरीत ध्रुव, केवल वोट हासिल करने के लिए संघ कर रहा है गुणगान
सच यह है कि आरएसएस का जन्म ही सामाजिक न्याय की मांग का विरोध करने के लिए हुआ था। विदर्भ के नागपुर क्षेत्र में गैर-ब्राह्मण आन्दोलन के उभार की प्रतिक्रिया में क्षेत्र के जमींदार-ब्राह्मण गठबंधन ने आरएसएस की स्थापना की, जिसे शेठजी-भट्टजी गठबंधन कहा जाता है।
आरएसएस और अम्बेडकर की विचारधाराएं भारतीय राजनीति के दो विपरीत ध्रुव हैं। जहां अम्बेडकर जाति के विनाश, प्रजातान्त्रिक मूल्यों की स्थापना और सामाजिक न्याय की ओर कदम बढ़ाने के हामी थे, वहीं आरएसएस यथास्थिति बनाए रखने और पूर्व-आधुनिक काल के ऊंच-नीच पर आधारित मूल्यों के पुनरुत्थान का पैरोकार है। यह विडम्बना ही है कि विचारधारा के स्तर पर अम्बेडकर के धुर विरोधी होते हुए भी आरएसएस के नेता यह दिखाते नहीं थकते कि वे अम्बेडकर का कितना सम्मान करते हैं। वे अम्बेडकर का जन्मदिन मनाते हैं और उनकी पुण्यतिथि पर भी आयोजन करते हैं।
कोई आश्चर्य नहीं कि अपने वार्षिक विजयादशमी प्रबोधन (अक्टूबर 24, 2023) में आरएसएस मुखिया मोहन भागवत ने अपने अनुयायियों का आव्हान किया कि वे अम्बेडकर के भाषण पढ़ें, विशेषकर संविधान सभा में दिए गए उनके अंतिम दो भाषण। यही नहीं, भागवत ने अम्बेडकर की तुलना संघ के संस्थापक और उसके प्रथम सरसंघचालक डॉ के.बी. हेडगेवार से कर डाली। आरएसएस समर्थक “हमारे गौरवशाली अतीत” के नाम पर अम्बेडकर के संघर्ष और उनके प्रयासों का विचारधारात्मक स्तर पर विरोध करते रहे हैं।
सच तो यह है कि आरएसएस का जन्म ही सामाजिक न्याय की मांग की खिलाफत करने के लिए हुआ था। विदर्भ के नागपुर क्षेत्र में गैर-ब्राह्मण आन्दोलन के उभार की प्रतिक्रिया में इस क्षेत्र के जमींदार-ब्राह्मण गठबंधन ने आरएसएस की स्थापना की। महाराष्ट्र में इस गठबंधन को शेठजी-भट्टजी गठबंधन कहा जाता है। दलित जागृति की शुरुआत जोतीराव फुले से हुई, जिन्होंने दलितों को स्कूलों में प्रवेश दिलाने के लिए संघर्ष किया। इस वर्ग में जागृति लाने के काम को अम्बेडकर ने आगे बढ़ाया। उन्होंने 1920 में अपना समाचारपत्र ‘मूकनायक’ शुरू किया और 1923 में बहुजन हितकारिणी सभा की स्थापना की। इन सब से दलितों का आत्मविश्वास बढ़ा और वे अनके अधिकारों के प्रति जागृत हुए।
सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए अपने संघर्ष के भाग के रूप में अम्बेडकर ने 1927 में पानी के सार्वजनिक स्त्रोतों तक दलितों को पहुंच दिलवाने के लिए चावदार तालाब आन्दोलन किया और उनके मंदिर प्रवेश के समर्थन में 1930 में कालाराम मंदिर आन्दोलन। बाबासाहेब के इन आंदोलनों का आरएसएस ने समर्थन किया हो, ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता। अलबत्ता महात्मा गांधी ने जाति के प्रश्न को अत्यंत गंभीरता से लिया और 1932 के पूना समझौते के बाद कई वर्षों तक दलितों की स्थिति सुधारने के लिए संघर्ष किया।
उस समय आरएसएस हिन्दू राष्ट्र की बात कर रहा था। सावरकर बढ़-चढ़ कर हमें यह बता रहे थे कि भारत में दो राष्ट्र हैं– हिन्दू और मुस्लिम। आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र के सिद्धांत की अम्बेडकर ने कड़े शब्दों में आलोचना की। उन्होंने लिखा, “यह अजीब लग सकता है मगर सच यही है कि श्री सावरकर और श्री जिन्ना एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के मसले पर एक-दूसरे के विरोधी होने के बजाय एक-दूसरे से पूरी तरह सहमत हैं। दोनों सहमत हैं– न केवल सहमत हैं वरन जोर देकर कहते हैं- कि भारत में दो राष्ट्र है, एक मुस्लिम राष्ट्र और दूसरा हिन्दू राष्ट्र।” (डॉ आंबेडकर की 1940 में प्रकाशित प्रसिद्ध पुस्तक ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ से)।
अम्बेडकर हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना के धुर विरोधी थे। “अगर हिन्दू राज स्थापित हो जाता है तो वह निसंदेह इस देश के लिए सबसे बड़ी विपदा होगी...हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।” (बी.आर. अम्बेडकर, ‘पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन ऑफ़ इंडिया’ (1946) पृष्ठ 354-355)। वे बहुसंख्यकवाद, जिसका भारत के सन्दर्भ में अर्थ है बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय का राज, के विरोधी थे। और यही भागवत के नेतृत्व वाले आरएसएस की विचारधारा है, जिसका बचाव करते हुए नरेन्द्र मोदी पूछते कि बहुसंख्यकवाद में आखिर बुराई ही क्या है!
संविधान के अंतिम मसविदे के प्रस्तुतीकरण के बाद इसके विरोध में आरएसएस का अनाधिकारिक मुखपत्र ‘आर्गेनाइजर’ खुलकर सामने आया। उसने भारतीय संविधान पर तीखा हमला बोला। अपने 30 नवम्बर, 1949 के अंक के सम्पादकीय में ‘आर्गेनाइजर’ ने लिखा, “भारत के नए संविधान के बारे में सबसे ख़राब बात यह है कि...उसमें कुछ भी भारतीय नहीं है...उसमें प्राचीन भारतीय संवैधानिक कानूनों, संस्थाओं, नामावली और शब्द विन्यास का ज़रा-सा अंश नहीं है।”
आंबेडकर द्वारा तैयार किया गया हिन्दू कोड बिल समाज पर पितृसत्तामकता की पकड़ कम करने और महिलाओं की समानता स्थापित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। आरएसएस के नेतृत्व में दकियानूसी ताकतों ने हिन्दू कोड बिल पर ज़बरदस्त हमला किया। आधुनिक भारतीय इतिहास के जानेमाने अध्येता रामचंद्र गुहा लिखते हैं, “संघ ने हिन्दू कोड बिल को कानून बनाने का विरोध किया क्योंकि इस बिल में हिन्दू महिलाओं को उनकी जाति से बाहर विवाह करने, अपने पति से तलाक लेने और उत्तराधिकार में संपत्ति प्राप्त करने का अधिकार दिया गया था। सन 1949 में आरएसएस ने इस बिल के खिलाफ पूरे देश में सैकड़ों बैठकें और विरोध प्रदर्शन आयोजित किए। इनमें साधु-संतों को भाषण देने के लिए बुलाया गया।”
संविधान सभा ने संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया। इन प्रावधानों को मुंहजुबानी प्रचार के ज़रिये बदनाम किया गया, जिसके नतीजे में 1980-81 में और फिर 1985 में गुजरात में दलित-विरोधी हिंसा हुई। इसी तरह, मंडल आयोग की सिफारिशों का अपरोक्ष रूप से विरोध करने के लिए राममंदिर रथयात्रा शुरू की गई और पार्टी के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा कि “वे मंडल लाए तो हम कमंडल लाए”। यह भी दिलचस्प है कि संघ परिवार ने बाबरी मस्जिद को गिराने के लिए 6 दिसंबर का दिन चुना, जो कि आंबेडकर की पुण्यतिथि है। यह इस दिन, जो प्रजातान्त्रिक मूल्यों के महत्व को रेखांकित करता है, की महत्ता को कम करने का रणनीतिक प्रयास था।
जहां तक धार्मिक अल्पसंख्यकों का प्रश्न है, आंबेडकर उनकी सुरक्षा के लिए समग्र प्रावधान के हामी थे। यद्यपि इन प्रावधानों को कभी पूर्णतः लागू नहीं किया गया मगर उन्हें लागू करने के प्रयासों को भी ‘अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण’ बताया जाता है। बाबासाहेब बंधुत्व के पैरोकार थे। बंधुत्व का भाव बहुसंख्यकवादी राजनीति का विलोम है। बहुसंख्यकवादी राजनीति तो अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत फैलाती है जिसके नतीजे में हिंसा होती है और समाज का ध्रुवीकरण होता है।
आंबेडकर के लिए सामाजिक प्रजातंत्र के बिना राजनैतिक प्रजातन्त्र अधूरा था। वे जाति के उन्मूलन के पैरोकार थे। इसके विपरीत, आरएसएस ने ‘सामाजिक समरसता मंचों’ की स्थापना की है। संघ की दृष्टि में जातियां हिन्दू धर्म का अभिन्न भाग हैं और वे हिन्दू धर्म को मजबूती देती हैं! यही इन दोनों विचारधारात्मक धाराओं में मूल विरोधाभास है। हिन्दू बहुसंख्यकवादी राजनीति, जातिगत पदक्रम को नए-नए नामों से बचाए रखना चाहती है। वह भारतीय संविधान में केवल शाब्दिक आस्था रखती है। संघ के चिन्तक कहते हैं कि भारत एक ‘सभ्यतागत राज्य’ (मनुस्मृति जैसी पवित्र पुस्तकों में निरुपित जातिगत और लैंगिक मूल्यों के प्रतीक) है जिसके लिए संविधान उतना महत्वपूर्ण नहीं है।
आंबेडकर का धुर विरोधी होते हुए भी संघ परिवार केवल नाम के लिए उनका गुणगान करता है। और अब तो वे उन्हें उदृत भी करने लगे हैं। यह सब केवल वोट हासिल करने की कवायद है।
(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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