भारत की आजादी में ‘फ्रंटियर गांधी’ बादशाह खान की थी प्रेरक भूमिका

बादशाह खान को अंग्रेज शासकों ने बार-बार जेल में डाला। उनकी यह जेल यात्रा पाकिस्तान की आजादी के बाद भी जारी रही। 98 वर्ष की आयु में जब पेशावर में उनका देहान्त हुआ, तब उन्होंने कहा था कि कोई भी सच्चा प्रयास कभी बेकार नहीं जाता।

फोटोः सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

देश की आजादी की लड़ाई का एक बहुत प्रेरक पक्ष खान अब्दुल गफ्फार खान के अथक और गहरी निष्ठा के प्रयासों से जुड़ा है। अहिंसा के प्रति उनके पूर्ण समर्पण के कारण उन्हें फ्रंटियर गांधी का नाम भी दिया गया, यानि उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त के गांधी। उन्होंने ‘खुदाई खिदमतगारों’ का गठन अहिंसा के ऐसे सिपाहियों के रूप में किया, जिनमें असीमित साहस और सहनशक्ति का अनोखा मिलन था।

महात्मा गांधी जब उस क्षेत्र के दौरे पर गए तो उन्होंने कहा, “सामान्य रूप से खान अब्दुल गफ्फार ख़ां से लोगों का लगाव अद्भुत है। यह लगाव केवल खुदाई खिदमतगारों का ही नहीं है बल्कि प्रत्येक स्त्री, पुरुष और बच्चे उन्हें जानते-पहचानते हैं और उन्हें प्यार करते हैं।” वापस लौटते समय गांधीजी ने कहा था, “मैं आपको मुबारक देता हूं। मैं यही प्रार्थना करूंगा की सीमांत के पठान न केवल भारत को आजाद कराएं बल्कि सारे संसार को अहिंसा का अमूल्य संदेश भी पढ़ाएं...।”

सीमांत से लौटकर गांधीजी ने लिखा, “ख़ान अब्दुल गफ्फार ख़ां के बारे में कोई दो राय नहीं कि वह खुदा के बंदे हैं। वे वर्तमान की हकीकत में विश्वास रखते हैं और जानते हैं कि उनका आंदोलन खुदा की मर्जी से फैलेगा। अपने उद्देश्य को पूरा करने में वो अपनी आत्मा तक उसमें लगा देते हैं और क्या होता है उसके प्रति निरपेक्ष रहते हैं...। सीमांत प्रांत मेरे लिए एक तीर्थ रहेगा, जहां मैं बार-बार जाना चाहूंगा।

उधर बादशाह खान ने गांधीजी के बारे में लिखा, “अंततः जब मैं गांधीजी से मिला, मैंने उनके अहिंसा और रचनात्मक कार्यक्रम के बारे में सब कुछ सीखा। इससे मेरी जिंदगी हमेशा के लिए बदल गई।”

1942 में ही पंडित नेहरू ने कहा था, ‘‘बहुत कम लोग जानते हैं कि खान अब्दुल गफ्फार खां पिछले 6 महीने से चुपचाप लेकिन महान कार्य कर रहे हैं। वह आडंबर में विश्वास नहीं करते, लेकिन वह लोगों से मिलने गांवों में जाते हैं, उन्हें संगठित करते हैं, हर तरह से प्रोत्साहित करते हैं।”

नागरिक अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में खुदाई खिदमतगारों ने बहुत साहसी भूमिका निभाई। सांप्रदायिकता उभरने पर वे हिन्दुओं और सिखों की रक्षा के लिए आगे आए। उधर चन्द्रसिंह गढ़वाली के नेत्तृत्व में गढ़वाली हिंदू सिपाहियों ने अंग्रेज शासकों का खुदाई खिदतमगारों पर गोली चलाने का आदेश मानने से इंकार कर दिया।

बादशाह खान को अंग्रेज शासकों ने बार-बार जेल में डाला। उनकी यह जेल यात्रा पाकिस्तान की स्वतंत्रता के बाद भी जारी रही। 98 वर्ष की आयु में जब पेशावर में उनका देहान्त हुआ, तब उन्होंने कहा था, “कोई भी सच्चा प्रयास बेकार नहीं जाता। इन खेतों को देखो। यहां जो अनाज बोया गया है, उसे कुछ समय तक धरती के भीतर ही रहना है। फिर उससे अंकुर फूटता है और धीरे-धीरे वह अपने जैसे हजारों अन्न के दानों को जन्म देता है। यही बात अच्छे उद्देश्य के लिए किये गए हर प्रयास पर लागू होती है।”

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