राम पुनियानी का लेखः काशी-मथुरा की मांग से मंदिर राजनीति की वापसी, अयोध्या फतह के बाद भी शांति नहीं
इस पृष्ठभूमि में हमारा आगे का रास्ता क्या होना चाहिए? हम अयोध्या के राम मंदिर को लेकर हुए उपद्रव को देख चुके हैं। इसके सामाजिक-राजनीतिक परिणामों ने हमारे लोकतंत्र को कई दशकों पीछे धकेल दिया है। नतीजे में धार्मिक अल्पसंख्यक लगभग दूसरे दर्जे के नागरिक बन गए।
दिनदहाड़े बाबरी मस्जिद ध्वस्त किए जाते समय एक नारा बार-बार लगाया जा रहा था “यह तो केवल झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है”।
सर्वोच्च न्यायालय ने बाबरी मस्जिद की भूमि उन्हीं लोगों को सौंपते हुए, जिन्होंने उसे ध्वस्त किया था, यह कहा था कि वह एक गंभीर अपराध था। बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद राम मंदिर का उपयोग सत्ता पाने के लिए और समाज को धार्मिक आधार पर बांटने के लिए किया गया। बार-बार यह दावा किया गया कि भगवान राम ने ठीक उसी स्थान पर जन्म लिया था। यही आस्था राजनीति का आधार बन गई और अदालत के फैसले का भी। यह धार्मिक राष्ट्रवाद देश की राजनीति में मील का पत्थर बना। परंतु अब क्या?
वैसे तो ऐसे मुद्दों की कोई कमी नहीं है, जिनसे धार्मिक आधार पर समाज को बांटा जाता है और धार्मिक अल्पसंख्यकों को हाशिये पर लाने के लिए जिनका उपयोग होता है। इनमें से कुछ तो विघटनकारी राजनीति करने वालों के एजेंडे में स्थायी रूप से शामिल कर लिए गए हैं। जैसे, लव जिहाद (अब इसमें भूमि जिहाद, कोरोना जिहाद, सिविल सर्विसेस जिहाद आदि भी जुड़ गए हैं), पवित्र गाय, बड़ा परिवार, समान नागरिक संहिता आदि। इसके अलावा इस तरह के नए-नए मुद्दे खोज कर भी सूची में जोड़े जाते हैं। इन मुद्दों को इस तरह पेश किया जाता है जैसे बहुसंख्यक, अल्पसंख्यकों की राजनीति से पीड़ित हैं।
इसी इरादे से उठाए गए दो महत्वपूर्ण मुद्दे हैं- काशी और मथुरा। काशी में विश्वनाथ मंदिर से सटी हुई ज्ञानव्यापी मस्जिद है। कुछ लोगों का कहना है कि यह मस्जिद अकबर के शासनकाल में बनाई गई थी। तो कुछ अन्य मानते हैं कि इसका निर्माण औरंगजेब के राज में किया गया था। इसी तरह मथुरा के बारे में कहा जाता है कि शाही ईदगाह, कृष्ण जन्मभूमि के नजदीक बनी हुई है। हिन्दुओं की आस्था के अनुसार राम, शिव और कृष्ण सबसे प्रमुख देवता हैं। इस तरह धार्मिक दृष्टि से अयोध्या (राम), वाराणसी (शिव) और मथुरा (कृष्ण) आस्था के तीन केन्द्र हैं और इन्हें मुक्त कराना आवश्यक है।
यह कहा जाता है कि मुस्लिम आक्रांताओं ने सैकड़ों मंदिर ध्वस्त किए। परंतु हिन्दू राष्ट्रवादियों के अनुसार कम से कम इन तीन को तो पुनः प्रतिष्ठापित किया ही जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त यह भी प्रचारित किया जाता है कि दिल्ली की जामा मस्जिद और अहमदाबाद की जामा मस्जिद भी हिन्दुओं के पूजास्थलों को तोड़कर बनाई गईं हैं।
मंदिरों को ध्वस्त किए जाने की घटनाओं का इतिहास और पुरातत्व के विद्वानों ने विश्लेषण किया है। यह कहा जाता है कि मंदिर तोड़े जाने का प्रमुख कारण राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता थी। इसके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है कि अपनी सत्ता का सिक्का जमाने के लिए या संपत्ति हड़पने के लिए मंदिर तोड़े गए।
एक पक्ष यह भी है कि जहां मुस्लिम राजाओं ने हिन्दू मंदिरों को तोड़ा वहीं उनमें से कुछ ने हिन्दू मंदिरों को उदारतापूर्वक दान भी दिया। ऐसे कुछ फरमान मिले हैं, जिनमें इस बात का उल्लेख है कि औरंगजेब ने अनेक हिन्दू मंदिरों को दान दिया। इनमें गुवाहाटी का कामाख्या देवी मंदिर, उज्जैन का महाकाल और वृंदावन का कृष्ण मंदिर शामिल है। यह दावा भी किया जाता है कि औरंगजेब ने गोलकुंडा में एक मस्जिद को भी ध्वस्त किया, क्योंकि गोलकुंडा का शासक तीन वर्षों से लगातार बादशाह को शुक्राना नहीं चुका रहा था।
प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता डी. डी. कोशाम्बी ने अपनी पुस्तक (रिलिजियस नेशनलिज्म, मीडिया हाउस, 2020, पृष्ठ 107) में लिखा है कि “11वीं सदी में कश्मीर के राजा हर्षदेव ने दोवोत्वपतन नायक पदनाम के अधिकारी की नियुक्ति की थी। इस अधिकारी को यह जिम्मेदारी सौंपी गई थी कि वह ऐसी मूर्तियों पर कब्जा करे, जिनमें हीरे, मोती और कीमती पत्थर जड़े हों।”
एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता रिचर्ड ईटन बताते हैं कि विजयी हिन्दू राजा पराजित होने वाले राजाओें के कुलदेवता के मंदिरों को ध्वस्त करते थे और उनके स्थान पर अपने कुलदेवता के मंदिरों की स्थापना करते थे। श्रीरंगपट्टनम में मराठा फौजों ने हिन्दू मंदिरों को तोड़ा और बाद में टीपू सुलतान ने उनकी मरम्मत करवाई।
कुछ चुनिंदा साम्प्रदायिक इतिहासज्ञों ने मंदिरों के ध्वस्त होने की घटनाओं को देश में विभाजनकारी राजनीति को मजबूती देने के लिए प्रमुख हथियार बनाया है। इतिहास का एक पहलू यह भी है कि बौद्धों और हिन्दुओं के बीच टकराव में सैकड़ों बौद्ध विहार तोड़े गए। अभी हाल में राममंदिर की नींव तैयार करने के दौरान बौद्ध विहारों के अवषेष पाए गए।
इतिहासवेत्ता डॉ एमएस जयप्रकाश के अनुसार, 830 और 966 ईसवी के बीच हिन्दू धर्म के पुनरूद्धार के इरादे से सैकड़ों की संख्या में बुद्ध की मूर्तियां, स्तूप और विहार नष्ट किए गए। भारतीय और विदेशी साहित्यिक और पुरातात्विक स्त्रोतों से यह पता लगता है कि हिन्दू अतिवादियों ने बौद्ध धर्म को नष्ट करने के लिए कितने क्रूर अत्याचार किए। अनेक हिन्दू शासकों को गर्व था कि उन्होंने बौद्ध धर्म और संस्कृति को पूर्ण रूप से तबाह करने में भूमिका अदा की।
अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने घोषणा की है कि वह शीघ्र ही काशी और मथुरा को मुक्त करने के लिए अभियान प्रारंभ करेगी। परिषद ने यह इरादा भी जाहिर किया है कि इस अभियान में वह संघ से जुड़े संगठनों की सहायता भी लेगी। इस समय तो आरएसएस यह कह रहा है कि इस मुद्दे में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है। परंतु जैसा पूर्व में हो चुका है- ज्योंही अखाड़ा परिषद का अभियान जोर पकड़ेगा संघ उससे जुड़ जाएगा- इसकी भरपूर संभावना है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि मस्जिदों को गुलामी का प्रतीक बताया जाता है। कर्नाटक के बीजेपी नेता और ग्रामीण विकास और पंचायत मंत्री के एस ईष्वरप्पा ने 5 अगस्त को यह दावा किया कि गुलामी के ये प्रतीक बराबर हमारा ध्यान खींचते हैं और हम से यह कहते हैं कि “तुम गुलाम हो”। उन्होंने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए कहा, “विश्व के सभी हिन्दुओं का एक स्वप्न है कि गुलामी के इन प्रतीकों को वैसे ही नष्ट किया जाए, जैसे अयोध्या में किया गया था। मथुरा और काशी की मस्जिदों को निश्चित ही ध्वस्त किया जाएगा और वहां मंदिर का पुनर्निर्माण होगा।”
ऐसी बातें इस तथ्य के बावजूद कही जा रही हैं कि इस संबंध में कानूनी स्थिति यह है कि “किसी भी धार्मिक स्थान में कोई ऐसा परिवर्तन नहीं किया जाएगा, जिससे उसके धार्मिक स्वरूप में परिवर्तन हो और उसमें वही स्थिति कायम रखी जाएगी जो 15 अगस्त 1947 को थी।”
इस पृष्ठभूमि में हमारा आगे का रास्ता क्या होना चाहिए? हम अयोध्या के राम मंदिर को लेकर हुए उपद्रव को देख चुके हैं। इसके सामाजिक और राजनीतिक परिणामों ने हमारे लोकतंत्र को कई दशकों पीछे धकेल दिया है। नतीजे में धार्मिक अल्पसंख्यक लगभग दूसरे दर्जे के नागरिक बन गए हैं।
मंदिरों की यह राजनीति हमारे बहुवादी लोकतांत्रिक संस्कारों के विपरीत है। राम मंदिर आंदोलन के माध्यम से दक्षिणपंथी ताकतें अपना प्रभुत्व बढ़ाने में सफल हुई हैं और इस सफलता से उत्साहित होकर वे इसे दोहराना चाहेंगीं, जो देश की प्रगति और विकास में बाधक सिद्ध होगा। हम केवल यह आशा कर सकते हैं कि बहुसंख्यक समुदाय ऐसे मुद्दों को दुबारा उठाए जाने के खिलाफ उठ खड़ा होगा।
(लेख का हिंदी रूपांतरणःअमरीश हरदेनिया द्वारा)
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Published: 17 Sep 2020, 7:59 AM