आम चुनाव से पहले एक सियासी दांव है सवर्ण आरक्षण, बीजेपी गरीबों में पैदा करना चाहती है जातिगत भावना
पूरे साढ़े चार साल के दौरान मोदी सरकार को सबसे ज्यादा आलोचना इस बात के लिए झेलना पड़ा कि वह वादे के मुताबिक हर साल दो करोड़ लोगों को रोजगार नहीं दे सकी। इस दौरान सरकारी नौकरियों में न केवल कटौती हुई बल्कि पिछड़ों के लिए आरक्षित सीटें भी हजारों की तादाद में खाली पड़ी रहीं।
संसद के शीतकालीन सत्र के आखिर में पीएम नरेंद्र मोदी की सरकार का सवर्णों को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में दस प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला अपने आप में पूरी कहानी को बयां कर रहा है।
नरेंद्र मोदी की सरकार पूरे साढ़े चार साल के दौरान इस बात की सबसे ज्यादा आलोचना झेलती रही है कि वह अपने वायदे के मुताबिक हर साल दो करोड़ रोजगार देने के अवसर पैदा नहीं कर सकी। साथ ही इस दौरान सरकारी नौकरियों में न केवल लगातार कटौती की गई बल्कि पहले से पिछड़े दलितों के लिए आरक्षित सीटें हजारों की तादाद में खाली पड़ी हैं।
नरेंद्र मोदी की सरकार ने गरीब सर्वणों को आरक्षण देने का फैसला महज अगामी लोकसभा चुनाव में कामयाबी हासिल करने के इरादे से लिया है, लेकिन यह उसके एक और जुमले से ज्यादा महत्व का नहीं दिखता है। क्योंकि किसी भी वर्ग के आरक्षण के लिए यह जरूरी है कि उसके लिए संविधान में प्रावधान होना चाहिए। दूसरा लागू करने से पहले उसके लिए एक अध्ययन रिपोर्ट तैयार की जानी चाहिए।
संविधान के अनुसार सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने के लिए पहले काला कालेलकर आयोग और उसके बाद 1978 में बीपी मंडल आयोग का गठन किया गया था।देश में जिन राज्यों में भी आरक्षण देने के फैसले किए गए हैं, उससे पहले उन्हें आरक्षण देने की ठोस वजहें बतानी पड़ी हैं। महाराष्ट्र में हाल में मराठों को आरक्षण देने के इरादे को पूरा करने के लिए आयोग का गठन किया गया। लेकिन केंद्र सरकार द्वारा सवर्णों को आरक्षण देने के फैसले के पहले इस तरह का कोई आधार दस्तावेज तैयार नहीं किया गया है। इस आधार पर भी केंद्र सरकार के इस फैसले को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।
दूसरी बात कि संविधान में आर्थिक रुप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है। आरक्षण गरीबी मिटाने का कार्यक्रम नहीं माना जाता है। यह भारतीय समाज में उन वर्गों के लिए विशेष अवसर देने के तौर पर संवैधानिक रुप से स्वीकृत सिद्धांत है कि समाज में जातिगत आधार पर लोगों को नीचे की श्रेणी में सदियों से रखा गया है और उन्हें पढ़ने-लिखने से वंचित रखा गया है। देश के जिन राज्यों में आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की कोशिश की गई है वे सभी कोशिशें अब तक विफल हुई हैं।
केंद्र सरकार की ओर से यह संकेत दिया जा रहा है कि सवर्णों को आरक्षण संविधान में संशोधन करके दिया जा सकता है। जबकि केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ यह फैसला दे चुकी है कि संविधान की मूल भावना और ढांचे को छुआ भी नहीं जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने ही मंडल आयोग की अनुंशसाओं को लागू करने के फैसले के आलोक में इंदिरा साहनी मामले में फैसला सुनाया था कि आरक्षण की सीमा पचास प्रतिशत से ज्यादा नहीं की जा सकती है।
केंद्र की मोदी सरकार लोकसभा चुनाव में कामयाबी के इरादे से यह फैसला कर रही है। क्योंकि 11 दिसंबर को बीजेपी को मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा। वहां कांग्रेस ने कामयाबी हासिल की है। बीजेपी को लगता है कि लोकसभा में जीत हासिल करने के लिए अपने वोट बैंक का जुगाड़ नहीं बैठाया तो उन्हें 2014 को दोहराने में बेहद मुश्किलें उठानी पड़ सकती हैं।
पिछले साढ़े चार साल के दौरान विभिन्न वजहों से दलितों, पिछड़ों की तरह सवर्ण मतदाताओं का आधार भी बीजेपी से छिटका है। दलित एक्ट के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने जब 2 अप्रैल 2018 को दलित-बहुजन संगठनों को सड़कों पर उतार दिया तो वह नरेंद्र मोदी के खिलाफ चले आ रहे गुस्से का विस्फोट था। मोदी सरकार को कोर्ट के फैसले के खिलाफ संसद में संविधान संशोधन लाना पड़ा, लेकिन सवर्णों के जातिगत संगठनों ने मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को हराने का ऐलान कर दिया ।
पिछले कुछ सालों में बीजेपी का सोशल इंजीनियरिंग यानी जातियों के बीच तोड़-फोड़ और उनके बीच ध्रुवीकरण के जरिये चुनाव में कामयाबी हासिल करने पर यकीन बढ़ा है। अमित शाह का माइक्रो चुनावी मैनेजमेंट भी यही है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि उसके जातियों के इस खेल का अब दम निकलता दिख रहा है।
मजे की बात तो यह है कि बीजेपी पिछड़ों के आरक्षण के सिद्धांत के विरोध में रही है। बिहार में जब पिछला विधानसभा चुनाव हो रहा था तब उसी दौरान आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण के संवैधानिक प्रावधानों की समीक्षा की बात दोहरा कर बवाल मोल ले लिया था और बिहार में बीजेपी को मात खानी पड़ी थी। तब से संघ परिवार आरक्षण का विरोध करने में सतर्कता दिखाता रहा है और उसका उदाहरण दिल्ली में विज्ञान भवन में संघ के भव्य कार्यक्रम में भी दिखाई दिया, जब मोहन भागवत ने आरक्षण का समर्थन कर दिया।
लेकिन दूसरी तरफ यह देखने में आ रहा है कि दलितों-पिछड़ों के आरक्षण को बीजेपी की सरकारें कई हिस्सों में बांटने की कोशिश में लगी हुई हैं। पूर्व न्यायाधीश जी रोहिणी की अध्यक्षता में एक आयोग अपनी रिपोर्ट को अंतिम रुप देने में लगा है। उत्तर प्रदेश में यह प्रयास हो रहा है। दूसरी तरफ बीजेपी की सरकारें उन जातियों को आरक्षण देने के धड़ाधड़ फैसले कर रही हैं, जो कि संविधान के मुताबिक आरक्षण की हकदार नहीं हो सकती हैं। इनमें महाराष्ट्र का उदाहरण सबसे नया है।
नरेंद्र मोदी की सरकार के इस फैसले के नतीजे, इसके पीछे छिपे इरादों से उलट भी हो सकते हैं। सवर्ण मतदाताओं को अपने पक्ष में एकजूट करने का संदेश और दूसरी तरफ दलितों-पिछडों को बांटने की कोशिश चुनावी मतलब निकालने का संदेश देती है। मोदी सरकार को अपने कार्यकाल के दौरान दलितों और आदिवासियों को पदोन्नति में आरक्षण नहीं देने के विरोध में आंदोलनों का सामना करना पड़ा है।
बीजेपी पिछड़े, दलितों और आदिवासियों के लिए संविधान में आरक्षण के सिद्धांत का विरोध करते- करते सवर्णों के लिए आरक्षण की व्यवस्था करने तक की राजनीतिक यात्रा से गुजर रही है। तब जबकि सरकार में नौकरियां कम होती जा रही हैं और निजीकरण की प्रक्रिया को सबसे ज्यादा तेज गति में लागू करने के प्रति बीजेपी की सरकारें अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करती रही हैं। बीजेपी की नीतियों में इस कदर के विरोधाभास दिखते हैं कि लोगों को उन्हें जुमला कहने में ज्यादा माथा-पच्ची नहीं करनी पड़ती है।
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