सिल्कयारा सुरंग संकट: चट्टानों में फंसी जिंदगियों के बाहर आने की आस, लेकिन सवालों के जवाब तो तलाशने ही होंगे 

उत्तराखंड में धंसी सुरंग के मलबे में फंसे 41 मजदूरों को निकालने के अभियान से ही साफ हो गया कि पहले तो इसकी ही पक्की व्यवस्था नहीं थी कि कोई बड़ी दुर्घटना न हो; फिर भी, अगर दुर्घटना हो ही जाए, तो बचाव कार्य कैसे किया जा सकता है।

सिल्कियारा सुरंग में फंसे कामगारों को निकालने का अभियान एक बार फिर रुक गया है
सिल्कियारा सुरंग में फंसे कामगारों को निकालने का अभियान एक बार फिर रुक गया है
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रश्मि सहगल

उत्तरकाशी में निर्माणाधीन सुरंग का धंसना और उसमें 41 मजदूरों का फंस जाना तमाम सवालों को जन्म देता है। हिमालयीन इलाके में ढीली चट्टानों और मिट्टी से बने ये पहाड़ पर्यावरण के लिहाज से बेहद संवेदनशील तो हैं ही लेकिन इनके साथ सावधानी से पेश न आने के कैसे खतरे हो सकते हैं, यह बार-बार के हादसों ने बताया है। इन इलाकों में न तो विकास रुकने वाला है और न हादसे, लेकिन इनके बीच संतुलन कैसे बनाया जाए, इस सवाल के साथ सिल्कयारा सुरंग हादसा हमारे सामने है। सोचना नीति निर्धारकों को है।    

बड़कोट-सिलक्यारा सुरंग में फंसे 41 मजदूरों को निकालने में, काफी देर से ही सही, तमाम एजेसियों और देशी-विदेशी विशेषज्ञों को लगना पड़ा, उससे ही समझा जा सकता है कि इस किस्म की दुर्घटना से निबटने की तैयारी पहले से नहीं थी। मतलब, निर्माण एजेंसियों ने बचाव की सूरत का प्लान ही नहीं बनाया था।

सिर्फ जानकारी के लिए कि आखिरकार, किस-किस स्तर के अधिकारियों-कर्मचारियों को इसमें जुटना पड़ाः पीएमओ, वायु सेना, एनएचआईडीसीएल, ओएनजीसी, डीआरडीओ, बीआरओ, रेल विकास निगम, राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल, राज्य आपदा प्रतिक्रिया बल प्राधिकरण, सतलुज जल विद्युत निगम लिमिटेड (एसजेवीएनएल), टिहरी हाइड्रो डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (टीएचडीसी), इसरो, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण जैसी तमाम सरकारी एजेसियों से लेकर ट्रेंचलेस इंजीनियरिंग प्राइवेट लिमिटेड और एलएंडटी सेफ्टी यूनिट सहित कई निजी एजेंसियों को भी।

मजदूरों को निकालने के अभियान की देखरेख में तो राष्ट्रीय राजमार्ग एवं बुनियादी ढांचा विकास निगम लिमिटेड (एनएचआईडीसीएल) जुटना ही था क्योंकि यह चार धाम परियोजना को पूरा करने से जुड़ी प्रमुख एजेंसी है। ध्यान रहे कि एनएचआईडीसीएल ने बरकोट-सिल्कयारा सुरंग की इंजीनियरिंग, खरीद और निर्माण के लिए जून, 2018 में हैदराबाद स्थित नवयुग इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड (एनईसीएल) के साथ 853.79 करोड़ रुपये के अनुबंध पर हस्ताक्षर किए थे। 

लगता है या तो दुर्घटना की स्थिति से निबटने के लिए जो प्लान बनाया भी गया था, उस पर ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई थी। दुर्घटना 12 नवंबर को दीपावली के दिन हुई। अमेरिकी ऑगुर मशीन लगाई गई लेकिन यह 16 नवंबर को खराब हो गई। एनएचआईडीसीएल के निदेशक अंशू मनीष खलको के अनुसार, 16 नवंबर को खराब हो गई अमेरिकी ऑगुर मशीन को मरम्मत करके फिर से काम में लगाया गया। ऑगुर मशीन से 900 मिलीमीटर स्टील पाइप में ड्रिल करके इसमें 800 मिलीमीटर पाइपों को डालकर अतिरिक्त मजबूती प्रदान करते हुए सिल्क्यारा की ओर से क्षैतिज ड्रिलिंग का काम फिर से शुरू किया गया। ढहे हुए हिस्से सिल्क्यारा से सुरंग के मुहाने की दूरी 270 मीटर बताई गई। 17 नवंबर को पहले वाले ऑपरेशन को छोड़ दिया गया था क्योंकि मशीन रास्ते में कठोर पत्थर आ जाने से क्षतिग्रस्त हो गई थी। 


बचाव अभियान जिस तरह चलता रहा, उससे ही समझा जा सकता है कि बचाव के लिए एक के बाद दूसरे विकल्प पर बार-बार जाना पड़ा, मतलब यह कि किसी को अंदाजा ही नहीं था कि फंसे मजदूरों तक पहुंचने का सुगम और सुरक्षित तरीका क्या है। टीएचडीसी को बारकोट छोर से ड्रिलिंग कार्य शुरू करने के लिए कहा गया और ड्रिल और ब्लास्ट विधि का उपयोग करके वे 6.5 मीटर लंबी खुदाई करने में सफल रहे। एसजेवीएनएल द्वारा क्रियान्वित तीसरी योजना सुरंग के ऊपर पहाड़ी से सीधी ड्रिलिंग की थी। इस ऑपरेशन के लिए एक ड्रिलिंग मशीन 21 नवंबर की शाम को साइट पर पहुंची। इस प्रक्रिया में मदद के लिए ओएनजीसी के विशेषज्ञों को बुलाया गया। गुजरात और ओडिशा से अतिरिक्त मशीनें भेजी गईं। सुरंग की बाईं ओर से माइक्रो-ड्रिलिंग भी चालू कर दी गई। 

इस ऑपरेशन में तमाम एजेंसियां सक्रिय रहीं, इसके बावजूद शुरू से ही किसी के पास बचाव कार्य को लेकर सही आकलन नहीं था। सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने मौके पर ही आकलन करने के बाद कहा था कि इसमें दो से तीन दिन लगेंगे। जनरल वी.के. सिंह (सेवानिवृत्त) ने भी यही समय सीमा दोहराई। जबकि प्रधानमंत्री के पूर्व सलाहकार भास्कर खुल्बे ने एक अनौपचारिक बातचीत के दौरान प्रेस को बताया था कि इसमें लगभग ‘पांच से सात दिन लगेंगे।’ उत्तराखंड के सड़क परिवहन सचिव ने कहा था कि इसमें 15 दिन या उससे भी अधिक समय लग सकता है। अतिरिक्त सहायता के लिए उत्तरकाशी भेजे गए ऑस्ट्रेलियाई सुरंग विशेषज्ञ अर्नोल्ड डिक्स ने तो स्थानीय पत्रकारों से यह कह दिया कि बचाव अभियान क्रिसमस तक जारी रह सकता है। 

कुछ भारतीय सुरक्षा विशेषज्ञ डिक्स की विशेषज्ञता को लेकर खुद ही आशंकित थे। दरअसल, उसकी विशेषज्ञता का क्षेत्र सुरंगों में अग्नि सुरक्षा और वायु गुणवत्ता का रहा है। गडकरी, सिंह और डिक्स- सभी ने टिप्पणी की कि ये पहाड़ियां ‘ढीले पत्थर और कीचड़’ से बनी हैं जो सुरंग और सुरंग बनाने वालों के लिए खतरनाक हैं। यह सब तब कहा गया जब वहां हादसा हो चुका था। लेकिन क्या यह बात तब सामने नहीं आई थी जब योजना ड्राइंग स्तर पर थी? क्या हिमालय की नाजुक संरचना को ध्यान में नहीं रखा गया?  

सिल्क्यारा सुरंग के बाहर इकट्ठा श्रमिकों, उनके परिवार के लोगों समेत आम लोगों के मन में यह सवाल पहले दिन से ही उठता रहा कि नवयुग इंजीनियरिंग कंपनी (एनईसी) किसी भी आपात स्थिति में निकलने के लिए एक वैकल्पिक मार्ग उपलब्ध कराने में विफल रही है जबकि सुरंग निर्माण के मामले में यह अनिवार्य होता है।  

देहरादून स्थित कांग्रेस प्रवक्ता सुजाता पॉल ने कहा, ‘इतनी लंबी सुरंग में न केवल सुरक्षा नलिका और आपात स्थिति में निकलने का रास्ता नहीं था बल्कि एनईसी और एनएचआईडीसीएल ऐसी आपात स्थिति के लिए कोई सुरक्षा योजना तैयार करने में भी विफल रहे। हादसे के वक्त घटनास्थल पर सिर्फ एक जेसीबी थी। ऑगुर की दो मशीनें खराब हो गईं और तीसरी इंदौर से मंगवानी पड़ी।’ 


आपराधिक लापरवाही के लिए एनईसी के खिलाफ कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई है। जब दुर्घटना स्थल पर मौजूद बड़े लोगों से इसका कारण पूछा गया, तो उन्होंने सवाल को टाल दिया और जोर देकर कहा कि फिलहाल तो उनका ध्यान यह सुनिश्चित करना है कि मजदूर सुरक्षित और स्वस्थ बाहर निकाले जाएं। 

देहरादून स्थित पर्यावरणविद् रीना पॉल ने इस बात पर जोर दिया कि ‘उत्तराखंड की सुरंगें मौत का जाल बन गई हैं। कुछ दिन पहले ही सहारनपुर को देहरादून से जोड़ने वाली डाट काली सुरंग को भूस्खलन की वजह से कुछ देर के लिए बंद कर दिया गया था और तीन घंटे तक सुरंग में फंसे रहे यात्रियों ने दम घुटने और सांस फूलने की शिकायत की थी।’

सिल्क्यारा सुरंग में आपात रास्ता क्यों नहीं था? जब सरकार ने फरवरी, 2018 में सुरंग परियोजना को मंजूरी दी, तो उसने साफ कहा था कि इसमें ‘सुरक्षा वैकल्पिक मार्ग’ होगा। देहरादून स्थित एनजीओ समाधान ने उत्तराखंड हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर सिल्कयारा सुरंग के निर्माण में बड़ी सुरक्षा चूक के लिए संबंधित अधिकारियों के खिलाफ लापरवाही का आपराधिक मामला दर्ज करने की मांग की है। कोर्ट ने राज्य सरकार को नोटिस जारी कर जवाब दाखिल करने को कहा है।  

भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के पूर्व निदेशक डॉ पी.सी. नवानी ने स्पष्ट रूप से कहा कि ऐसी बड़ी परियोजनाओं के लिए सुरक्षा रास्ता बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। वे न केवल जीवन बचाने और बचाव कार्य को सुविधाजनक बनाने में मदद करते हैं, बल्कि सुरंग के अंदर साजो सामान और अन्य आपूर्ति पहुंचाने में भी मददगार होते हैं। नवानी ने इस बात पर भी जोर दिया कि सुरंग निर्माण के लिए इंजीनियरिंग भूवैज्ञानिकों की एक विशेषज्ञ टीम के इनपुट की जरूरत होती है लेकिन यह काम उन ठेकेदारों को सौंप दिया जाता है जिन्हें संबंधित इलाके की बेहतर जानकारी नहीं होती और वे सभी तरह के शॉर्टकट अपनाने को तैयार होते हैं। 

दुनिया भर में सड़क, रेल और जलविद्युत परियोजनाओं में सुरंगें जरूरी हिस्सा होती हैं। यही बात भारत के लिए भी लागू होती है लेकिन यह देखते हुए कि हिमालय पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र है, किसी भी सुरंग के निर्माण में उचित सावधानी अपेक्षित और जरूरी हो जाती है। यह देखते हुए कि हिमालय के पहाड़ नरम चट्टानों से बने हैं, ये रेल सुरंगें भला किस तरह की सुरक्षा का आश्वासन दे सकती हैं? 16,000 करोड़ रुपये की ऋषिकेश-कर्णप्रयाग परियोजना के तहत 17 सुरंगें बननी हैं जिनमें 15.1 किलोमीटर लंबी सुरंग भी शामिल है जो भारत में सबसे लंबी सुरंग होगी। सिल्कयारा दुर्घटना को देखते हुए इस रेल लिंक का सुरक्षा ऑडिट जरूरी हो जाता है। 


2020 में एनईसी समेत अन्य निजी कंपनियों को इनमें से कुछ रेल सुरंगों के निर्माण का ठेका दिया गया था। यह भी गौर करने की बात है कि एनईसी का सुरक्षा ट्रैक रिकॉर्ड अपने आप में संदिग्ध है। इस बात का खुलासा हाल ही में तब हुआ जब समृद्धि एक्सप्रेस-वे पर पुल निर्माण में इस्तेमाल की जाने वाली मोबाइल गैन्ट्री क्रेन के गिर जाने से 15 मजदूरों की मौत हो गई जबकि एक इंजीनियर और पांच अन्य कर्मचारी मलबे में फंस गए। यह हादसा 1 अगस्त, 2023 को ठाणे जिले के शाहपुर तहसील में हुआ। समृद्धि एक्सप्रेस-वे के पहले चरण का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिसंबर, 2022 में किया था। यह दुर्घटना तीसरे चरण के दौरान हुई। तब एनईसी द्वारा काम पर रखे गए उप-ठेकेदारों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई थी। (हैदराबाद स्थित कंपनी को चंद्रबाबू नायडू का करीबी माना जाता है। जब 2019 में आंध्र प्रदेश में सत्ता बदली, तो नए मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी ने राज्य में एनईसी को दिए गए कई अन्य ठेके रद्द कर दिए।) 

मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व वाली उत्तराखंड सरकार ने बयान जारी कर कहा है कि चार धाम परियोजना के तहत प्रस्तावित सभी सुरंगों का पुनर्मूल्यांकन अगले छह महीनों में किया जाएगा। लेकिन जब तक इसमें विशेषज्ञों को शामिल नहीं किया जाता, इस तरह के पुनर्मूल्यांकन से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होने जा रहा। सवाल यह है कि क्या वे देहरादून को टिहरी से जोड़ने वाली दुनिया की सबसे लंबी सड़क सुरंग के निर्माण जैसी योजनाओं की वैधता की भी समीक्षा करेंगे? 

इन रेल सुरंगों के पर्यावरणीय प्रभाव की भी नए सिरे से समीक्षा की जरूरत है। प्रसिद्ध भूविज्ञानी और भूकंप विशेषज्ञ डॉ. सी.पी. राजेंद्रन कहते हैं, ‘ऐसा माना जाता है कि सुरंगों के निर्माण से पर्यावरण पर पड़ने वाले असर को कम किया जा सकता है। जबकि सच्चाई यह है कि सतह के भीतर इस तरह की संरचनाओं की वजह से पर्यावरण को कहीं भारी नुकसान हो सकता है जिसमें यातायात से होने वाले प्रदूषक तत्वों का ऐसी सुरंग में इकट्ठा होते जाना शामिल है जहां सूरज की रोशनी भी नहीं होती।’  

राजेंद्रन कहते हैं, ‘ट्रेनें अब बेशक बिजली से चलती हों और इससे प्रदूषण नहीं होता हो। लेकिन जब बात सुरंगों की आती है तो ट्रेन की आवाजाही के दौरान लगातार उत्पन्न होने वाला कंपन एक बड़ा खतरा होता है और इससे पहाड़ की ढलान अस्थिर हो जाती है और कोई मामूली सा कारक भी इसे भूस्खलन के प्रति संवेदनशील बना देता है। समस्या और भी बड़ी इसलिए हो जाती है कि सुरंगों को बनाने के दौरान किए गए विस्फोट से चट्टानें पहले से ही कमजोर हो गई होती हैं। नतीजतन बार-बार छोटे-बड़े भूस्खलन होते हैं। इसके साथ ही निर्माण के दौरान भारी मात्रा में चट्टानी अपशिष्ट निकलते हैं जिससे भूमिगत जल पर स्थायी असर पड़ता है और जल स्तर में गिरावट हो जाती है। तमाम सुरंग निर्माण क्षेत्रों का यही अनुभव है।’ 


अत्यधिक सड़क और रेल सुरंग निर्माण हिमालय में चल रही बड़े पैमाने पर निर्माण गतिविधि के सबसे खतरनाक पहलुओं में से एक है। वैज्ञानिकों द्वारा तैयार किए गए ग्राफ से पता चला है कि पिछले पांच सालों में उत्तराखंड में भूस्खलन के मामले 2,900 फीसदी तक बढ़ गए हैं। भूस्खलन कई कारकों पर निर्भर करता है और इनमें चट्टान की प्रकृति, उनकी क्षमता और इस्तेमाल किए गए विस्फोट तरीके शामिल होते हैं। चट्टानों का भूविज्ञान और उनके भीतर विखंडन की प्रकृति पर विचार करना जरूरी होता है।

सिल्क्यारा सुरंग संकट में पहाड़ियों की अस्थिरता बिल्कुल साफ हो गई है। जैसे ही विशेषज्ञों ने मलबे में खुदाई की, कंपन के कारण भूस्खलन हुआ जिससे बचाव कार्य में देरी हुई। इस अफसोसनाक हादसे में अकेली राहत यह रही कि अधिकारी छह इंच की पाइपलाइन के लिए खुदाई करने में कामयाब रहे जिसके जरिये फंसे हुए मजदूरों को भोजन, फल, अवसाद रोधी दवाएं वगैरह भेजी जा सकीं। एंडोस्कोपिक कैमरा भी लगाया गया ताकि मजदूरों की तस्वीरें झारखंड, बंगाल, ओडिशा, बिहार, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में उनके परिवारों तक पहुंचाई जा सकें। एक और राहत की बात यह रही कि सुरंग में बिजली बंद नहीं की गई और श्रमिकों के पास घूमने के लिए लगभग 1.5 किलोमीटर की जगह थी। बहरहाल, बचाए जाने का इंतजार कर रहे मजदूरों के लिए ये छोटी-छोटी राहतें इस मुश्किल समय को काटने में बड़ी मददगार साबित रही होंगी। 

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