चाय बागानों के रिकॉर्ड मौसम विज्ञानियों के लिए भी बड़े काम की चीज, 90 साल के दौरान होने वाली बारिश का खाका
स्वाद में अंतर के कारणों की खोज की दिशा में असम के चाय बागानों के हस्तलिखित रिकॉर्ड से उम्मीद बंधी है। ये रिकॉर्ड पूर्वोत्तर भारत में बारिश के पैटर्न में बदलाव और चाय उद्योग पर इसके प्रतिकूल असर की झलक दे रहे हैं।
असम और दार्जिलिंग चाय दो प्रकार की समस्याओं से जूझ रहे हैं। नेपाल से आने वाली चाय को असम और दार्जिलिंग का बताकर बेचा जा रहा है। इस किस्म की ’नकली’ चाय की बिक्री पर पुलिस और अन्य एजेंसियों की मदद से रोकने की कोशिश की जा रही है। लेकिन दूसरी समस्या बड़ी है- वैश्विक बाजारों में चीन और श्रीलंका की चाय से इन्हें कड़ी टक्कर मिल रही है। श्रीलंका ने चाय उद्योग को बढ़ावा देने की दिशा में ठोस पहले की है। इससे उबरने के लिए उपाय किए जा रहे हैं। दरअसल, असम और दार्जिलिंग चाय में पिछले कुछ वर्षों में स्वाद में अंतर आ रहा है। इसीलिए पुराना स्वाद बनाए रखने के तरीके खोजे जा रहे हैं।
स्वाद में अंतर के कारणों की खोज की दिशा में असम के चाय बागानों के हस्तलिखित रिकॉर्ड से उम्मीद बंधी है। ये रिकॉर्ड पूर्वोत्तर भारत में बारिश के पैटर्न में बदलाव और चाय उद्योग पर इसके प्रतिकूल असर की झलक दे रहे हैं। इन बागानों में सौ साल से भी लंबे अरसे से हर साल बारिश का तारीखवार रिकॉर्ड हाथ से लिख कर रखा जाता रहा है। गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज के छात्रों और वैज्ञानिकों ने वर्ष 1920 से 2009 तक के इन हस्तलिखित दस्तावेजों के अध्ययन से 90 साल के दौरान होने वाली बारिश का खाका तैयार किया है।
इन रिकॉर्ड के अध्ययन से पता चल रहा है कि असम में मानसून में होने वाले बदलावों का राज्य में पैदा होने वाली चाय की गुणवत्ता पर प्रतिकूल असर पड़ता रहा है। दरअसल, चाय बागानों को मौसम में अंतर से गुणवत्ता तथा मात्रा के अंतर का अंदाजा था और इसी वजह से बड़े चाय बागानों में हर साल होने वाली बारिश का रिकॉर्ड रखना शुरू किया गया था ताकि वे संभावित पैदावार का पूर्वानुमान लगा सकें और उसी हिसाब से आगे की रणनीति तय कर सकें।
दिलचस्प बात यह है कि इसमें और मौसम विभाग की ओर से जारी आंकड़ों में अक्सर अंतर रहा है। अब अध्ययन इस बात का भी किया जा रहा है कि किस साल इन दोनों आंकड़ों में कितना अंतर था और उसका उत्पादन पर क्या और कैसा असर पड़ा। इस अध्ययन से पूर्वोत्तर भारत में बारिश की मात्रा का औसत निकालने और इसके साथ ही अतिवृष्टि के कारण पैदा होने वाले प्रतिकूल असर तथा खतरों का विश्लेषण कर उनसे निपटने के कारगर तरीके भी अपनाए जा सकेंगे।
इन आंकड़ों का अध्ययन कर निष्कर्ष तक पहुंचने वाली टीम के प्रमुख राहुल महंत बताते हैं, ’30-40 साल पहले तक बारिश का जो पैटर्न था, वह अब काफी बदल गया है। अब थोड़ी-थोड़ी देर के लिए बारिश होती है और यह हर जगह समान नहीं होती। नतीजतन कई बार एक ही इलाके में अलग-अलग मात्रा में बारिश रिकॉर्ड की गई है।’ वह बताते हैं कि पूर्वोत्तर भारत में अति या अनावृष्टि के अध्ययन के दौरान टीम ने देखा कि भारतीय मौसम विभाग की ओर से नियमित रूप से जारी आंकड़े वर्ष 1975 के बाद, यानी महज 32 वर्ष के लिए उपलब्ध थे। उन आंकड़ों को सिर्फ 32 केन्द्रों पर ही रिकॉर्ड किया गया था।
अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि ब्रिटिश शासनकाल में वर्ष 1875 में मौसम विभाग की स्थापना के साथ ही आंकड़ों को सुरक्षित रखने की शुरुआत हुई थी। लेकिन चाय बागानों ने उससे करीब पांच साल पहले से ही हस्तलिखित दस्तावेजों को सुरक्षित रखने की परंपरा शुरू कर दी थी। असम के करीब 750 चाय बागान हैं और उनमें सौ से ज्यादा बागान एक सदी से भी ज्यादा पुराने हैं और वहां दैनिक तापमान और बारिश के रिकॉर्ड दर्ज हैं। इसके अलावा निजी डायरियों, तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं और मिशनरी अस्पतालों में मिले चिकित्सकीय और वैज्ञानिक शोध के दस्तावेजों से भी इस काम में काफी मदद मिली।
असम के जोरहाट स्थित एक चाय विशेषज्ञ सुमंत बरगोंहाई कहते हैं, ’तापमान में होने वाले उतार-चढ़ाव और चाय की खेती के लिए जरूरी बरसात के पैटर्न में बदलाव का असर चाय की क्वालिटी पर नजर आने लगा है। इससे चाय बागान की मिट्टी पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है और पानी को बांधे रखने की उसकी क्षमता कम हो जाती है।’ वह बताते हैं कि ’ग्लोबल वार्मिंग के कारण तापमान में उतार-चढ़ाव होता है। इसका सीधा असर चाय की खेती के लिए जरूरी बारिश की मात्रा पर पड़ता है। तापमान में वृद्धि के कारण मिट्टी के वाष्पीकरण की प्रक्रिया तेज होती है। स्थिर तापमान और नियमित बारिश का पैटर्न गड़बड़ाने की स्थिति में चाय की क्वालिटी और उसके उत्पादन पर प्रतिकूल असर पड़ता है।’ ध्यान रहे कि भागलपुर में सबौर कृषि विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं ने पाया है कि मौसम में बदलाव और अनियमित बारिश की वजह से बिहार के कई इलाकों में धान की पैदावार और स्वाद में भी फर्क पड़ा है।
मौसम विज्ञानी जी.सी. दस्तीदार कहते हैं, ’बारिश की मात्रा अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग होती है। इसलिए जिन केन्द्रो से आंकड़े लिए जा रहे हैं, उनका घनत्व जितना ज्यादा होगा, मौसम के चरित्र को समझने में उतनी ही आसानी होगी। पूर्वोत्तर भारत में आंकड़े जुटाने के लिए मौसम विभाग के संसाधन शुरू से ही सीमित रहे हैं। ऐसे में चाय बागानों में मौजूद रिकार्ड्स की सहायता से जलवायु के इतिहास के पुनर्निर्माण में भी काफी मदद मिलने की संभावना है।’
मौसम वैज्ञानिकों का कहना है कि बारिश में उतार-चढ़ाव का पैटर्न समझने के लिए लंबी अवधि के आंकड़े जरूरी हैं। लेकिन पूर्वोत्तर में महज 12 केन्द्रों में ही बीते सौ साल के आंकड़े उपलब्ध हैं। राहुल महंत बताते हैं कि ’पूर्वोत्तर भारत में 1950 से पहले मौसम विभाग के पास बारिश मापने के लिए सौ से ज्यादा केन्द्र थे। मेघालय के चेरापूंजी में 1940 से पहले ऐसे पांच केन्द्र थे। लेकिन 1950 के बाद ऐसे केन्द्रों की संख्या लगातार कम होती रही। अब चेरापूंजी के बारे में भी नियमित आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। बीचे के कई वर्षों का कहीं कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता।’ ध्यान रहे कि बांगलादेश सीमा से काफी करीब चेरापूंजी को दुनिया भर में सर्वाधिक बारिश के लिए जाना जाता है।
महंत और उनकी टीम फिलहाल ताजा आंकड़ों के आधार पर बाढ़ और सूखे के दौर का विश्लेषण करने में जुटी है। प्राथमिक तौर पर इस टीम को पता चला है कि वर्ष 1970 से मानसून के दौरान अतिवृष्टि और अनावृष्टि का दौर लगातार तेज हुआ है। इससे इलाके में बाढ़ और सूखे का खतरा भी बढ़ा है।
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